महासती पद्मिनी के श्राप का प्रभाव - वंश नाश हुआ खिलजी का




भारतीय इतिहासकारों का लेखन इस प्रकार है, मानो केवल दिल्ली ही समूचा भारतवर्ष है। इसीलिए लोदी जैसा सामान्य राजवंश भी भारतीय पाठ्य पुस्तकों में जगह बनाये हुए है, जबकि दक्षिण भारत के चोल और पांड्य राजवंशों यहाँ तक कि महान और शक्तिशाली मराठा साम्राज्य को भी विस्मृति के गर्त में दफनाने का पूरा प्रयास किया गया है। हमारे नौनिहालों को यह बताया ही नहीं जाता कि अंग्रेजों ने भारत को मुगलों से नहीं, बल्कि मराठों से कब्जे में लिया था। उस तथाकथित मुग़ल दौर में भी विजय नगर साम्राज्य अपनी बुलंदी पर था - समृद्ध और उन्नत। आज अगर किसी के सम्मुख मार्तण्ड वर्मा का नाम लिया जाए, तो नब्बे प्रतिशत लोग हैरत में पड़ जाते हैं, जबकि त्रावणकोर के इस महान शासक ने 18 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सबसे शक्तशाली मानी जाने वाली डच ईस्ट इंडिया कंपनी को भी धूल चटाई थी।

प्राचीन भारत का शौर्य और इतिहास अविस्मरणीय है, लेकिन इतिहासकारों ने उसे एक विचित्र दुखांत कहानी बना दिया है। हालत यह हो गई है किआधुनिक भारतीय पीढ़ी अपने इतिहास, सभ्यता और संस्कृति में कुछ भी सराहना योग्य नहीं मानती। शायद यही उन वाममार्गी इतिहासकारों का उद्देश्य भी रहा हो - आत्म गौरव विहीन, आत्म विश्वास रहित और स्वाभिमान शून्य भारतीय समाज की रचना। किन्तु सोशल मीडिया के इस युग में भी क्या हम गाफिल बने रहेंगे ? आखिर पप्पू से परिपक्व होना ही होगा। इतिहास को समझने की नई दृष्टि आवश्यक है। आईये बाबर के आक्रमण से पूर्व के आततायी आक्रांताओं के घिनौने अत्याचारों पर एक नजर डालते हैं –

सन १३०३ ईस्वी में अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर अधिकार किया और उसके बाद वहां अपने प्रतिनिधि के रूप में जालौर के मालदेव सोनगरे को सामंत नियुक्त कर वापस दिल्ली चला गया | अलाउद्दीन ने जब गुजरात के राजा कर्ण को पराजित किया, तब वह महारानी कमला देवी के साथ दो नौजवानों को भी गुलाम बनाकर अपने साथ लेकर आया था, उनमें से एक गुलाम माणिक तो सुलतान का विश्वासपात्र मलिक काफूर बन गया तो दूसरा खुसरू खान | महारानी कमला देवी से उसने खुद शादी कर ली, जबकि गुजरात नरेश महाराज कर्ण ने अपनी अबोध बेटी देवल देवी के साथ दक्षिण भारत में देवगिरि के यादव नरेश रामचंद्र देव के यहाँ शरण ली।

दस वर्ष बाद 1308 में अर्थात महारानी पद्मिनी के जौहर के पांच वर्ष बाद जब मलिक काफूर के नेतृत्व में मुस्लिम फौजों ने देवगिरि पर हमला किया, गुजरात की राजकुमारी देवल देवी भी उनके हत्थे चढ़ गईं। अलाउद्दीन ने देवल देवी की शादी बलपूर्वक अपने बेटे खिज्र खान से करवा दी | लेकिन संभवतः इन लोगों के मन में कहीं न कहीं हिन्दू चेतना जागृत रही और मौक़ा पाकर मलिक काफूर ने 1316 में अलाउद्दीन खिलजी को जहर देकर मार डाला, उसकी बेगमों को जेल में डाल दिया, शहजादे खिज्र खान की आँखें निकलवा दीं और अलाउद्दीन के तीन साल के बेटे के नाम पर खुद शासन करने लगा | लेकिन महज पैंतीस दिन बाद खुसरू खान ने सोते समय मलिक काफूर की गर्दन रेत दी और स्वयं नसुरुद्दीन के नाम से सुलतान बन बैठा | अलाउद्दीन के सभी बेटे क़त्ल कर दिए गए और इस तरह अलाउद्दीन को उसकी नृशंसता का फल मिला, जैसे कर्म बैसा फल | वंश नाश हो गया उसका | अब देवल देवी खुसरू खान की बेगम बन गईं। माना जाता है कि देवल देवी की प्रेरणा से ही खुसरू खान ने यह सब किया था। इन दोनों ने सोचा था कि उनकी हिन्दू पृष्ठभूमि के कारण देश के अन्य हिन्दू राजा उनका साथ देंगे और इस प्रकार म्लेच्छ सत्ता का अंत हो जायेगा। काश उनका सपना सही सिद्ध हुआ होता, किन्तु ऐसा हुआ नहीं और महज कुछ माह बाद 8 सितम्बर 1320 को अलाउद्दीन खिलजी का एक तुर्की गुलाम गयासुद्दीन तुगलक दिल्ली की गद्दी पर बैठा जिसे पांच वर्ष बीतते न बीतते उसके ही बेटे मुहम्मद बिन तुगलक ने षडयंत्र पूर्वक मौत के घाट उतार दिया और खुद शहंशाह बन बैठा | इस बीच 1326 ई. में राणा हम्मीर चित्तौड़ को आजाद करवा चुके थे। 

सत्ता पाने के बाद मुहम्मद तुगलक ने चित्तौड़ पर धावा बोला, लेकिन न केवल बुरी तरह पराजित हुआ, बल्कि गिरफ्तार भी कर लिया गया | तीन महीने तक वह चित्तौड़ की कैद में रहा और अंत में अजमेर, रणथम्भोर, नागौर, शुआ और शिवपुर के इलाकों के साथ एक सौ हाथी और पचास लाख रुपये देकर उसने मुक्ति पाई | सन १३६५ में राणा हम्मीर के स्वर्गवास के बाद क्षेत्रसिंह ने राणा पद का गौरव अक्षुण रखा | दिल्ली के तत्कालीन बादशाह ने एक बार फिर चित्तौड़ कब्जाने का प्रयास किया, किन्तु क्षेत्रसिंह ने बकरौल नामक स्थान पर उस विशाल यवन सेना को परास्त किया |

बाबर ने जब भारत पर हमला किया उस समय दिल्ली की गद्दी पर इब्राहीम लोदी का कब्जा था, इतिहास में पानीपत के प्रथम युद्ध के नाम से जो विद्यार्थियों को रटाया जाता है, वह इन दोनों की मुस्लिम सेनाओं के बीच ही हुआ था। देश भर में कई हिन्दू राजा भी थे, तो कई अन्य छोटी बड़ी मुस्लिम रियासतें भी अस्तित्व में आ चुकी थीं। राजस्थान में सबसे प्रबल राजपूत राजा थे, राणा सांगा, जिन्होंने दिल्ली, मांडू और गुजरात के मुस्लिम शासकों को नाकों चने चबबा दिए थे, कोई ऐसा नहीं था, जिसे उन्होंने पराजित न किया हो। बैसे तो भारत कभी पूरी तरह गुलाम हुआ ही नहीं, उस समय तो लगभग स्वतंत्र ही था। किन्तु भारत के स्वनामधन्य इतिहासकार तो दिल्लीश्वर को ही सब कुछ मानते हैं, अतः चूंकि दिल्ली पर मुहम्मद गौरी के बाद से ही कोई न कोई मुसलमान ही राज कर रहा था, तो उनकी नजर में सारा भारत ही मुसलमानों के अधीन था। 
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