एक नाचती हुई तस्वीर और समाज की संवेदना – दिवाकर शर्मा
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रात के सन्नाटे में जब शहर सो रहा होता है, तब कोई अगर बीच सड़क पर मोबाइल कैमरे के सामने थिरकता है, तो यह सिर्फ एक रील नहीं होती – यह समाज की मर्यादा, कानून की गरिमा और व्यक्तिगत विवेक की परीक्षा होती है। शिवपुरी की सड़कों पर हाल ही में जो दृश्य वायरल हुआ, उसमें एक नाबालिग युवती हाइवे की पटरियों पर नाचती हुई दिखी। यह दृश्य सिर्फ हैरानी नहीं, चिंता का विषय भी बना। और अफसोस की बात यह रही कि इस घटना को महज सोशल मीडिया की उड़ान मानकर प्रशासन और अभिभावक दोनों ही मौन रह गए।
अब वही बालिका, जो कानूनन संरक्षण की पात्र है, सोशल मीडिया पर यह कहती दिखती है कि उसके पिता नहीं हैं, इसलिए उसे समर्थन मिलना चाहिए। भावनात्मक अपील का सहारा लेकर वह स्वयं को आलोचना से ऊपर रखने की चेष्टा कर रही है। लेकिन क्या सामाजिक जिम्मेदारियों से इस प्रकार का पलायन स्वीकार्य है? क्या किसी की व्यक्तिगत पीड़ा उसे सार्वजनिक मर्यादाओं को लांघने का अधिकार देती है?
इस पूरे प्रकरण में सबसे दुखद पहलू यह है कि बालिका अब स्वयं को मीडिया की साजिश का शिकार बता रही है। जबकि पत्रकारिता का कर्तव्य है समाज के सामने सत्य को रखना, चाहे वह किसी भी चेहरे के पीछे छुपा हो – भोली मासूमियत हो या जान-बूझकर की गई उच्छृंखलता।
यह युवती सोशल मीडिया पर पुलिस के विरुद्ध भी आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग कर चुकी है। इस कृत्य पर अनेक कानूनी धाराओं के अंतर्गत आपराधिक मामला बनता है। यदि प्रशासन चाहे तो इन धाराओं के तहत प्राथमिकी दर्ज कर बाल संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत उसकी काउंसलिंग और निगरानी की व्यवस्था कर सकता है। यह उसका दंड नहीं, बल्कि भविष्य को संवारने की चेतावनी होगी।
समाज में हम नेताओं, कलाकारों और प्रभावशाली लोगों की आलोचना करते हैं जब वे अनुचित आचरण करते हैं, पर क्या हम उसी गलती को दोहराने वालों को इसलिए माफ़ कर दें कि वे 'नाबालिग' हैं या 'अनाथ'? नहीं। संस्कार और अनुशासन का बीजारोपण तभी किया जा सकता है जब हम हर स्तर पर सही-गलत की स्पष्ट रेखा खींचें।
प्रशासन से अपेक्षा है कि वह इस घटना को केवल 'वीडियो वायरल' की नजर से न देखे, बल्कि एक सामाजिक विकृति की तरह समझे। सड़कें प्रदर्शन की नहीं, संयम की प्रतीक होनी चाहिए। इस लड़की को उचित समझाइश के साथ चेतावनी देना आवश्यक है ताकि वह स्वयं की सुरक्षा और समाज की मर्यादा – दोनों का मूल्य समझ सके।
और अंत में –
समाज जब ताली बजाता है, तो सिर उठाकर चलने की प्रेरणा देता है। पर जब समाज प्रश्न करता है, तो वह गिरने से पहले थामने का प्रयास करता है। यह लेख, यह प्रतिक्रिया – उसी थामने की कोशिश है। अब यह जिम्मेदारों पर है कि वे इस मासूम भटकी हुई ऊर्जा को सही दिशा दें, न कि उसे उन्मुक्त उड़ान के नाम पर अंधेरे की ओर जाने दें।
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शिवपुरी
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