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ऑपरेशन सिंदूर और पत्रकारिता की नकली चादर ओढ़े भेड़िए – सुजीत यादव

 

पत्रकारिता कभी एक व्रत हुआ करती थी—सत्य के प्रति निष्ठा का, समाज के प्रति उत्तरदायित्व का, और राष्ट्र की चेतना के साथ खड़े रहने का। किंतु जब इस व्रत की चादर को एक व्यवसाय बना दिया जाए, और उस चादर के नीचे एजेंडा, पूर्वाग्रह और प्रपंच पलने लगें, तब उसे पत्रकारिता नहीं—साजिश कहा जाना चाहिए। दैनिक भास्कर, जो कभी हिंदी पट्टी का विश्वसनीय स्वर हुआ करता था, अब ऐसा प्रतीत होता है मानो उसकी स्याही में निष्पक्षता की जगह ‘राजनीतिक द्वेष’ घोल दिया गया हो। ऑपरेशन सिंदूर जैसे पावन सांस्कृतिक अभियान को जिस प्रकार इस पत्र ने साम्प्रदायिक चश्मे से देखने की चेष्टा की, वह केवल भ्रामक नहीं, बल्कि घोर दुर्भावनापूर्ण है। 

जिस सिंदूर को भारत की नारी अपनी अस्मिता, समर्पण और श्रद्धा का प्रतीक मानती है, उसी सिंदूर को ‘ध्रुवीकरण’ की भाषा में अनुवाद कर देना न केवल मूर्खता है, बल्कि गहरी वैचारिक दुर्बुद्धि का परिचायक भी। सरकार जब इस प्रकार की रिपोर्टिंग पर अपनी संवैधानिक शक्ति का प्रयोग करती है, तो उसे दमन कह देना, स्वतंत्रता की हत्या कह देना—नितांत आत्ममुग्ध और भ्रमित चिंतन का प्रतीक है। क्या संवाद का कोई मापदंड नहीं होना चाहिए? क्या पत्रकार होने का अर्थ यह है कि आप किसी भी सांस्कृतिक भावनाओं को कुचल दें, और फिर जब पलटकर उत्तर मिले, तो उसे 'प्रेस की हत्या' कह दें?

भड़ास 4 मीडिया—जिसका स्वरूप एक स्वतंत्र मीडिया मंच का होना चाहिए था—अब एक वामपंथी मानसिकता के प्रचार-प्रसार का अड्डा बनता जा रहा है। हर उस सरकारी निर्णय के विरुद्ध मुखर हो जाना, जो राष्ट्र की चेतना से जुड़ा हो; हर उस पहल को नीचा दिखाना, जो हिंदू आस्थाओं से जुड़ी हो—क्या यही उद्देश्य है उस मंच का, जिसे कभी मीडिया की अंतरात्मा कहा जाता था? 

आज जब शर्मिष्ठा पनौली जैसी युवा छात्रा को उसके एक सांस्कृतिक विचार के लिए कट्टरपंथी धमकियाँ देते हैं, ‘सर तन से जुदा’ और ‘बलात्कार’ जैसे भयानक शब्द उसके लिए उछाले जाते हैं, तब ये कथित 'नैतिक ठेकेदार' चुप क्यों हैं? कहाँ है तुम्हारी प्रेस की स्वतंत्रता? कहाँ है वो संवेदना, जो एक बेटी के डर, उसकी माफी, और फिर उसकी गिरफ़्तारी में उभरनी चाहिए थी? 

कोलकाता पुलिस 1500 किलोमीटर चलकर गुरुग्राम आती है, लेकिन मुर्शिदाबाद में जिनके घर जला दिए गए, जिनकी आस्था को अपवित्र किया गया, जिनके मंदिर ध्वस्त किए गए—उनकी चीखें आज भी बंगाल की दीवारों में गूंजती हैं। क्यों नहीं वहाँ कोई तेज़ी दिखाई गई? किस नैतिकता से इस चुप्पी को पत्रकारिता कहा जाए? 

आज के दौर में मोहम्मद जुबैर को ‘फैक्ट चेकर’ और शर्मिष्ठा को अपराधी कहा जाता है। माँ काली का अपमान ‘कला’ है, और सिंदूर की पूजा ‘ध्रुवीकरण’। ये है उस दोहरे मापदंड वाली वोक विचारधारा का सच, जिसकी आँच अब हर जागृत भारतीय नागरिक तक पहुँच चुकी है। दैनिक भास्कर और भड़ास जैसे मंचों को यह समझना होगा कि राष्ट्र अब उनींदा नहीं है। भारत अब उस दौर में नहीं है जहाँ तथाकथित पत्रकार अपनी कलम से संस्कृति को रौंद सकें और फिर अपने को 'शहीद' घोषित कर सकें। यह देश अब जवाब माँगता है—और जवाब देगा भी। शब्द से, विवेक से और संविधान से। 

जिस पत्रकारिता में राष्ट्र के प्रति आदर नहीं, संस्कृति के प्रति श्रद्धा नहीं, और समाज के प्रति संवेदना नहीं—वह पत्रकारिता नहीं, वह केवल व्यावसायिक द्वेष का मुखौटा है। और ऐसे मुखौटों को अब उतारने का समय आ चुका है। सिंदूर सिर्फ़ एक रंग नहीं, यह भारत की आत्मा है। उसे धुंधलाने की हर कोशिश अब प्रकाश से पराजित होगी।

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