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झूठी संतुष्टि, सच्चा मातम: एक बच्ची की बलि और समाज की चुप्पी – दिवाकर शर्मा

 

शहर के सबसे प्रतिष्ठित और कथित रूप से सुरक्षित कहे जाने वाले अपार्टमेंट "संतुष्टि" की हरियाली के नीचे एक नन्ही जिंदगी दम तोड़ गई। रात के अंधेरे में, जब अधिकांश लोग अपने मोबाइल स्क्रीन पर व्यस्त थे या परिवार संग भोजन कर रहे थे, तभी 12 वर्षीय उत्सविका, जीवन के सबसे मासूम पड़ाव में, अकल्पनीय पीड़ा में एक गहराई में समा गई। एक ऐसी गहराई, जिसे छुपा दिया गया था घास की चादर में, सजावट के नाम पर, सुविधा और साज-सज्जा के उस ढकोसले में, जो हमारे समाज की आत्मा को भीतर ही भीतर खोखला कर रहा है।

एक बच्ची, जिसकी दुनिया शायद स्कूल, गुड़िया और सपनों से भरी थी, वह एक क्षण में मिट्टी की तह के नीचे लापता हो गई। घंटों चली खोज के बाद जब उसका निर्जीव शरीर निकाला गया, तब तक समाज, शासन और संवेदना – तीनों अपने-अपने मुखौटे उतार चुके थे।

कौन दोषी है? वह जंग लगा ढक्कन जो बरसों से टूटने की प्रतीक्षा कर रहा था? वह गार्डन जिसकी हरियाली ने टैंक के खतरे को छुपा दिया? वह मेंटिनेंस समिति जो हर महीने पैसे लेकर भी नींद में सोई रही? या फिर हम सब, जिन्होंने उस नन्ही बच्ची की चीख को सुनने से पहले ही सोशल मीडिया पर उसकी मृत्यु की घोषणा कर दी?

"संतुष्टि" – कितना विडंबनापूर्ण नाम है उस जगह के लिए जहाँ असावधानी, लापरवाही और असंवेदनशीलता ने एक मासूम की सांसों का सौदा किया। उस संतोष की कीमत एक मां के क्रंदन, एक पिता की टूटी रीढ़ और समाज की चुप्पी ने चुकाई है।

हर हादसे के बाद हम कुछ दिन आक्रोशित होते हैं। फिर सबकुछ ढक दिया जाता है – जैसे टैंक को ढका गया था। हमारे शहरों की चमक-दमक के नीचे की हकीकत उतनी ही सड़ी हुई है, जितना उस चेंबर का पानी, जिसमें उत्सविका की हँसी डूब गई।

और प्रशासन? वो तो जैसे हादसों के बाद ही जागता है। हादसे की मिट्टी पर बैठकें होती हैं, बयान आते हैं, और फिर वही पुरानी दिनचर्या – अगली मौत तक।

लेकिन सवाल यही है – क्या एक अपार्टमेंट, एक समिति, एक नगर पालिका या एक जिले की असफलता की कीमत एक बच्ची के जीवन से चुकाई जाएगी? क्या अब भी हम केवल मोमबत्ती जुलूसों, व्हाट्सएप श्रद्धांजलियों और फेसबुक पोस्ट्स तक सीमित रहेंगे?

हर बार की तरह, इस बार भी हम देर से जागे। लेकिन इस बार वह देर एक जीवन को लील गई। वह बच्ची लौट कर नहीं आएगी। पर यदि आज भी हमने अपनी संवेदनाएं, जिम्मेदारियां और जागरूकता को फिर से नहीं जगाया, तो अगला हादसा केवल समय की बात है।

उत्सविका अब नहीं है। लेकिन उसकी स्मृति हमें हर बार याद दिलाएगी – कि लापरवाही केवल एक गलती नहीं, कई बार वह हत्या होती है। और हम सब उसके साझेदार।

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