राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आत्मीय नेतृत्व की भूमिका, दिशा, शताब्दी-वर्ष और भविष्य की राह - डॉ. अमरीक सिंह ठाकुर
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भारत बोध और शताब्दी-वर्षराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: जागृति और सांस्कृतिक सुधार की एक सदी “मैंराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक हूँ” यह पंक्ति मात्र प्रतिज्ञा नहीं, बल्कि एक जीवंत विचारधारा की घोषणा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक अर्थात वह व्यक्ति जो संघ की संकल्पना को जीवन में उतारता है; जो केवल अनुशासन का पालन नहीं करता, बल्कि स्वयं एक आदर्श बनकर समाज को दिशा देता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यही विशेषता है – भिन्न विचारों को आत्मीय संवाद से स्थान देना और फिर उन्हें आदर्श में ढालने का सामर्थ्य भी रखना। यही कारण है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज केवल एक संगठन नहीं, बल्कि विचार की ऊर्जा है, जो राष्ट्र को गति देती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत का यह कथन कि "हिन्दू जब तक स्वयं मजबूत नहीं होगा, तब तक अपनी रक्षा नहीं कर सकता", केवल चेतावनी नहीं, अपितु आत्मचिंतन की पुकार है। यह कथन उस हजार वर्षों की ऐतिहासिक पीड़ा से निकला हुआ सत्य है, जिसने हिन्दू समाज को टुकड़ों में बांट दिया। यह पीड़ा मात्र किसी व्यक्ति विशेष की नहीं, बल्कि समूचे हिन्दू समाज की है जो अपने ही देश में कभी बाहरी आक्रांताओं के कारण, तो कभी आंतरिक विघटन के कारण आत्मविस्मृति का शिकार हुआ है।100 वर्षों का सफर और आत्मचिंतन:, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई तबसे लेकर आज तक संगठन ने जो कार्य किए, वह अद्वितीय हैं।
लाखों प्रचारकों का जीवन-समर्पण, हजारों सेवा-प्रकल्प, और समाज के हर वर्ग में पहुँच – यह सब किसी भी संगठन के लिए असाधारण उपलब्धि है। फिर भी यदि आज भागवत जी को यह कहना पड़ता है कि “हिन्दू स्वयं को मजबूत करे”, तो यह आत्मचिंतन का क्षण है।कोई भी संगठन या कोई बड़ा व्यक्ति भी देश की प्रमुख समस्याओं का वैसा समाधान ना निकाल पाए जिससे सबको उल्लास हो और जो दिखता है कि निकल सकता है, फिर भी ना निकल पाए, तो भी अगर वह सदाचारियों का संगठन है और सदा अच्छी बातें करता है, श्रेष्ठ बातें कहता है, देश के प्रति आशा जगाता है और शुभ ही शुभ बोलता है, श्रेयस्कर बातें बोलता है तो यह स्वयं में बहुत अभिनंदन योग्य है। उसके पुरुषार्थ में कोई कमी है तो आप उसे देश का भाग्य मानिए या आप में बहुत ज्यादा पुरुषार्थ है तो स्वयं करके दिखा दीजिए । लेकिन उसका सम्मान न करना और उसकी केवल आलोचना करना तो आपकी क्षुद्रता ही दिखाता है। यथा प्रसंग यदा कदा समीक्षा अलग बात है।यह प्रश्न उठता है कि 115 करोड़ की विशाल आबादी वाला हिन्दू समाज यदि असुरक्षित महसूस करता है, तो क्या यह केवल बाह्य कारणों से है, या आंतरिक दुर्बलताओं से भी? जातिगत भेद, भाषाई संघर्ष, क्षेत्रीय असंतुलन और राजनीतिक स्वार्थों की लड़ाई – यह सब हिन्दू समाज को भीतर से कमजोर कर रहे हैं।
यही वह बिंदु है जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यपद्धति और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आत्मीय नेतृत्व की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघका आत्मीय नेतृत्व और शेषाद्रि जी की परंपरा:, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिखर पुरुषों में श्री हो. वे. शेषाद्रि जी एक विलक्षण प्रचारक और विचारक थे। उन्होंने अपनी विद्वत्ता, लेखनी और संगठन क्षमता से दक्षिण भारत को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघसे जोड़ने में जो भूमिका निभाई, वह अमूल्य है। उनकी रचनाएं –आज भी प्रेरणा स्रोत हैं। उन्होंने विचारों को केवल पुस्तकों में नहीं, जीवन में जिया और प्रचारकों की पूरी परंपरा को तपस्वियों की भांति तैयार किया।शेषाद्रि जी का जीवन इस बात का प्रतीक है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघप्रचारक केवल संगठनकर्ता नहीं, बल्कि समाज के मार्गदर्शक, त्यागी, संयमी और आध्यात्मिक साधक भी होते हैं। यही वह तपश्चर्या है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भीड़ नहीं, बल्कि विचारशील जनसमूह बनाती है। प्रचारक पद्धति: आधुनिक युग की ऋषि परंपरा:, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रचारक पद्धति भारतीय ऋषि परंपरा का आधुनिक अवतरण है। प्रचारक समाज के बीच रहकर समाज का अंग बनता है, उसकी समस्याएं समझता है, और उसका समाधान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों से करता है। यह सेवा, तप और आत्मत्याग की यात्रा है। यह जीवन-निर्माण की प्रक्रिया है – एक प्रचारक जब गांव समाज में प्रवेश करता है, तो लोगों को उसमें दिव्यत्व दिखता है।इस संदर्भ में लक्ष्मण राव भिड़े जी का उदाहरण अद्वितीय है। बिना ऊँची आवाज़, बिना मंचीय चकाचौंध के, मात्र अपनी सादगी और आचरण से लोगों के दिल में स्थान बनाना – यह संघ प्रचारकों की आत्मिक शक्ति है। इस दिव्यता को कोई संस्था कृत्रिम रूप से पैदा नहीं कर सकती। यह तप की अग्नि में जले हुए जीवन से ही उत्पन्न होती है।
आत्मसाक्षात्कार और शक्ति का पुनर्निर्माण:, भागवत जी की बातों को आत्मविश्लेषण के अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए। यदि हिन्दू समाज आज भी आत्मरक्षा में विफल हो रहा है, तो यह केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रश्न नहीं, यह पूरे समाज का दायित्व है।धार्मिक परंपरा और अध्यात्म: हिन्दू धर्म केवल मंदिर और कर्मकांड नहीं, बल्कि जीवन दर्शन है। आत्मा की अमरता, पुनर्जन्म, अहिंसा, सहिष्णुता और सृष्टि के प्रति करुणा – ये हिन्दू विचार हैं। यदि यह विचार केवल ग्रंथों तक सीमित हो गए हैं और आचरण से बाहर हो गए हैं, तो आत्मरक्षा कैसे संभव है?शैक्षिक पुनरुद्धार: हमारे इतिहास, विज्ञान, गणित, दर्शन और साहित्य की विरासत को शिक्षा के माध्यम से पुनर्जीवित करना आवश्यक है। जब तक बच्चों को यह बोध नहीं होगा कि उनका अतीत गौरवशाली था, तब तक उनमें आत्मबल नहीं आएगा।संख्या बल का संगठित स्वरूप: 115 करोड़ की संख्या कोई साधारण बात नहीं। परंतु यदि यह संख्या जातियों, भाषाओं और राजनीतिक हितों में बंट जाए, तो उसका कोई मूल्य नहीं। हिन्दू समाज को समरसता, सह-अस्तित्व और आपसी आत्मीयता के सूत्र में बंधना होगा।राजनीतिक विमर्श में हिन्दू हित:, भारत की राजनीति में हिन्दू शब्द केवल वोट बैंक के रूप में न रह जाए, यह सुनिश्चित करना आवश्यक है। हिन्दू की पहचान किसी के विरोध में नहीं, बल्कि उसके सनातन मूल्यों और जीवनशैली की सार्वभौमिकता में है। यह वैचारिक श्रेष्ठता है, जिसे आत्मगौरव के साथ जीना होगा।
हिन्दू की सुरक्षा, संघ का विस्तार, और राष्ट्र का निर्माण – ये तीनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। जब तक हिन्दू अपनी पहचान पर गर्व नहीं करेगा, जब तक वह आत्मगौरव से नहीं जिएगा, तब तक वह बाह्य हमलों से भी और भीतरी विघटन से भी नहीं बच सकेगा। संघ इस दिशा में कार्यरत है – लेकिन अब उसे और अधिक पारदर्शिता, नवाचार, और सर्वसमावेशी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।मोहन भागवत जी की चिंता हमारी भी चिंता है – पर अब समय भाषणों का नहीं, दिशादर्शन और आचरण का है। हिन्दू को बचाना है तो उसे संगठित करना ही होगा, संस्कारित करना ही होगा और आत्मबल से युक्त बनाना ही होगा।संघ का लक्ष्य केवल स्वयंसेवकों की संख्या बढ़ाना नहीं है, बल्कि ऐसा समाज बनाना है जो आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी और राष्ट्रहित में समर्पित हो। यह कार्य कठिन है, पर असंभव नहीं – क्योंकि “हमें जैसा चाहिए, वैसा उसको बनाने वाली आत्मीयता की कला भी हम रखते हैं। यह हिम्मत और ताकत हम रखते हैं।” यही संघ की आत्मा है – और यही हिन्दू पुनर्जागरण का पथ है।
अब दिशा स्पष्ट होनी चाहिए", राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत के राष्ट्रजीवन में आत्मगौरव और संगठनशीलता का पुनः जागरण। लेकिन जब संघ के वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत यह कहते हैं कि "हिन्दू जब तक स्वयं मजबूत नहीं होगा, अपनी रक्षा नहीं कर सकता", तो यह कथन एक शताब्दी पुराने संगठन के आत्ममंथन का प्रतीक बनकर उभरता है। यह कथन जितना सहज है, उतना ही गंभीर प्रश्न भी खड़ा करता है: क्या 100 वर्षों के कार्य के बावजूद हिन्दू समाज आज भी आत्मरक्षा की स्थिति में नहीं है? और यदि नहीं है, तो इसके लिए उत्तरदायी कौन है? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, संगठन का नहीं, संस्कारों का यज्ञ, यानी संघ कोई व्यक्तिवादी संगठन नहीं, वह एक संस्कार प्रणाली है, एक जीवंत विचार है, जिसमें प्रत्येक स्वयंसेवक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का लघु रूप होता है। यह विचारधारा स्वयं में लचीली भी है और दृढ़ भी। मोहन भागवत का यह कथन कि "व्यक्ति जैसा है, वैसा स्वीकार करना है", केवल उदारता नहीं, संगठन के भीतर मतभिन्नता के प्रति एक परिपक्व दृष्टिकोण है। पर इसके साथ ही वे यह भी कहते हैं कि "हमें जैसा चाहिए, वैसा उसको बनाने वाली आत्मीयता की कला भी हम रखते हैं" — यह आत्मीयता और प्रशिक्षण की वह परंपरा है, जिससे संघ का कार्यकर्ता गढ़ा जाता है।
हिन्दू समाज आज भी असुरक्षित, भ्रमित और बिखरा हुआ अनुभव करता है, तो यह केवल वर्तमान राजनीति की देन नहीं है। यह उस दीर्घकालिक ऐतिहासिक चेतना का परिणाम है जो हमें बार-बार हमारी एकता, संस्कृति और अस्तित्व को भूलने पर मजबूर करती रही। इस्लामी आक्रमणों से लेकर औपनिवेशिक गुलामी तक, हर युग में हिन्दू समाज पर दोहरी चोट हुई — एक बाहरी बल से और दूसरी भीतर से टूटन की।आत्मचिंतन बनाम आत्मप्रदर्शन, संघ की शक्ति इसका अनुशासन और समर्पण है, लेकिन यही शक्ति तब निष्क्रिय प्रतीत होती है जब उसका प्रयोग केवल भाषणों और व्याख्यानों तक सीमित रह जाए। मोहन भागवत जीकी चिंता जायज़ है, लेकिन यह चिंता अब केवल बौद्धिक विमर्श नहीं रहनी चाहिए। आज के भारत में जब जातिवादी राजनीति ने हिन्दू समाज को उपभोग की वस्तु बना दिया है, तब संघ की भूमिका और अधिक गंभीर हो जाती है।देश के राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा, संघ की राजनीतिक सहवर्ती के रूप में सामने आई है। लेकिन राजनीति अपने स्वभाव में अवसरवादी है, जबकि संघ का उद्देश्य मूलतः सांस्कृतिक है।
"सशक्त हिन्दू" का रास्ता क्या है?सशक्त हिन्दू का अर्थ केवल हथियारबंद युवक नहीं है। उसका मतलब है — आत्मबोध से परिपूर्ण, संस्कारशील, वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला, समरसता में विश्वास करने वाला और राष्ट्रहित में अपना योगदान देने वाला नागरिक। इसके लिए पाँच स्तरों पर काम ज़रूरी है:, शिक्षा: धर्म, संस्कृति और इतिहास के साथ वैज्ञानिक, तकनीकी और वैश्विक दृष्टिकोण वाला पाठ्यक्रम।आर्थिक सशक्तिकरण: ग्रामीण भारत में स्वरोजगार, कृषि नवाचार और पारंपरिक उद्योगों को संघ की सेवा गतिविधियों से जोड़ना।समरसता अभियान: जातीय श्रेष्ठता की भावना का अंत और पूर्ण सामाजिक समरसता का सृजन।सांस्कृतिक पुनर्जागरण: मंदिर, तीर्थ, और संस्कारों के माध्यम से जीवन मूल्यों की पुनः स्थापना।सुरक्षा और प्रशिक्षण: युवाओं को आत्मरक्षा, आपदा प्रबंधन और सामूहिक नेतृत्व के लिए प्रशिक्षित करना।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हज़ारों सेवा कार्य, संस्कार केंद्र, बाल संस्कार वर्ग, एकल विद्यालय, वनवासी क्षेत्रों में जागरण और आपदा प्रबंधन में योगदान दिया है। लेकिन यह प्रयास अभी समाज के एक सीमित हिस्से तक पहुंच पाया है। संघ को अब भारत के 6 लाख गाँवों में प्रत्येक गाँव तक एक सक्रिय संरचना तैयार करनी चाहिए। क्योंकि अब समय सिर्फ ज्ञान देने का नहीं, कर्म करने का है।इस सम्पूर्ण विमर्श में श्री एच.वी. शेषाद्रि जी का स्मरण आवश्यक है। वे केवल एक प्रचारक नहीं थे, बल्कि संघ के विचार को साहित्य के माध्यम से प्रत्येक स्वयंसेवक के मानस में उतारने वाले यज्ञपुरुष थे। उनकी लेखनी में प्रखरता थी, तो भाषण में सरलता; उनकी विचारधारा में कठोर आग्रह था, तो कार्यशैली में आत्मीयता। उन्होंने ‘राष्ट्रोत्थान परिषद’ के माध्यम से सैकड़ों पुस्तकों का निर्माण कर हिन्दू चेतना को प्रबुद्ध किया।उनका जीवन एक साधना थी — जिसमें स्वर्ण पदकधारी वैज्ञानिक अपने सारे निजी सपनों को छोड़कर एक विचार की साधना में समर्पित हो गया। आज जब हम हिन्दू समाज को संगठित करने की बात करते हैं, तो हमें शेषाद्रि जी की उस "ग्लोकल दृष्टि" को भी याद रखना चाहिए — जिसमें उन्होंने विदेशों तक जाकर भारतीय संस्कृति की लौ जलाने का साहस दिखाया।
मोहन भागवत जी की चिंता प्रासंगिक है, पर अब केवल भाषण नहीं, कार्यनीति चाहिए। वह कार्यनीति जो हिन्दू समाज को न केवल मानसिक रूप से बल्कि व्यावहारिक रूप से भी सशक्त करे। यह केवल संघ की चुनौती नहीं है, यह पूरे राष्ट्रवाद की परीक्षा है। क्योंकि यदि हिन्दू समाज कमजोर हुआ, तो भारत की आत्मा संकट में आ जाएगी।देश में ‘राष्ट्रवाद’ अब केवल भावनात्मक विषय नहीं रहा — यह एक व्यवहारिक, रणनीतिक और नैतिक चुनौती है। यदि हमें सचमुच हिन्दू को सशक्त करना है, तो उस विचार को व्यवहार में बदलने वाले कार्यकर्ता चाहिए, और उन कार्यकर्ताओं के पीछे वही तपस्वी ऊर्जा होनी चाहिए, जैसी शेषाद्रि जी में थी।हिन्दू तभी बचेगा, जब दिशा स्पष्ट होगी, संघ के 100 वर्षों के कार्य के बाद यह कह देना कि "हिन्दू को स्वयं मजबूत होना पड़ेगा", एक आह्वान है — लेकिन यह अधूरा आह्वान है जब तक कि उसे क्रियान्वयन का रोडमैप न दिया जाए। आज ज़रूरत है विचारों के साथ-साथ व्यवहार का, संगठन के साथ-साथ रणनीति का, और सबसे बढ़कर, नेतृत्व के साथ-साथ अनुयायित्व का।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू समाज को संगठित करने वाला है — पर अब यह संगठन केवल शाखाओं में सीमित न रह जाए, यह भारत के हर ग्राम, हर परिवार, और हर युवा तक पहुंचे। तभी वह दिन आएगा, जब हमें यह कहने की आवश्यकता नहीं होगी कि हिन्दू स्वयं सशक्त हो — क्योंकि तब वह स्वतः सशक्त होगा, संगठित होगा, और आत्मगौरव से पूर्ण होगा।
(लेखक एक सांस्कृतिक विचारक हैं और भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर विशेष रुचि रखतेहैं।यहलेखलेखककेव्यक्तिगतविचारहैं।)
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अमरीक विचार
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