बड़बोले अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प का नया शिगूफा - मुझे मिले नोबल शांति पुरष्कार।
अपने बेहूदे और बेतुके बयानों से पूरे विश्व को लगातार झकझोरने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अब तो सारी सीमाएं ही लाँघ दी हैं। हाल ही में उन्होंने दावा किया है कि कि वे नोबेल शांति पुरस्कार के हकदार हैं और इसके लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान में युद्ध विराम से लेकर रवांडा, कांगो, सर्बिया और कोसोवो में अपनी भूमिका का उल्लेख किया है। पाकिस्तान तो जैसे तैयार ही बैठा था, उसने तुरंत दोनों हाथ उठाकर उनके बयान का समर्थन कर दिया।
गनीमत है कि उन्होंने ईरान के खिलाफ इजरायल के युद्ध में अपनी भूमिका का हवाला नहीं दिया - या ईरान से बिना शर्त आत्मसमर्पण करने या संभावित अमेरिकी हमले का सामना करने के अपने आह्वान का हवाला नहीं दिया।
कोई अचम्भा नहीं कि ट्रम्प को नोबेल शांति पुरस्कार मिल भी जाए, आखिर पूर्व में भी तो 2009 में तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा नोबेल शांति पुरस्कार मिल भी चुका है।
स्मरणीय है कि नोबेल शांति पुरस्कार हाल के दिनों में कुछ ज्यादा ही विवादास्पद हो गया है। एक प्रसिद्ध लेखक ने तो इसे "दुनिया का सबसे निंदनीय पुरस्कार" तक कह दिया है ।
अगर उनके कथन को सही माना जाए तो ट्रंप वास्तव में इसके लिए एकदम सही हकदार हो सकते हैं।
आईये सिलसिलेवार समझते हैं कि ट्रम्प द्वारा उल्लेखित स्थानों पर अमरीका की क्या भूमिका रही थी।
रवांडा (Rwanda) – 1994 का नरसंहार
रवांडा में 1994 में हूतु बहुसंख्यक सरकार द्वारा टुटसी अल्पसंख्यकों का व्यापक नरसंहार किया गया, जिसमें करीब 8 लाख लोग मारे गए। अमरीका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन थे, ट्रम्प नहीं। इतना ही नहीं तो अमेरिका ने उसमें कोई हस्तक्षेप भी नहीं किया, जिसके कारण क्लिंटन प्रशासन की काफी आलोचना भी हुई और इसे उनकी एक बड़ी विफलता माना गया।
विवश होकर बिल क्लिंटन ने बाद में माफी भी मांगी और रवांडा जाकर स्वीकार किया कि अमेरिका को समय पर हस्तक्षेप करना चाहिए था।
जो भी है रवांडा में ट्रम्प की तो कहीं कोई भूमिका रही ही नहीं थी।
2. कांगो (Democratic Republic of the Congo)
रवांडा नरसंहार के बाद टुटसी विद्रोही समूहों और हूतु मिलिशिया के कारण कांगो में अस्थिरता फैल गई। इसमें अफ्रीका के कई देश शामिल हुए, और इसे "अफ्रीका का विश्व युद्ध" कहा गया।
अमेरिका ने यहाँ भी कोई कोई प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप नहीं किया, हाँ संघर्ष को शांत करने और मानवीय सहायता के प्रयासों में सहयोग दिया।
जहाँ तक ट्रम्प का सवाल है, उनके प्रथम कार्यकाल में भी रवांडा और कांगो में अमेरिका की सीधी सैन्य या कूटनीतिक पहल बहुत सीमित रही। जो रही भी उसका उद्देश्य चीन के प्रभाव को संतुलित करना था, न कि शांति स्थापना से संबंधित।
3. सर्बिया और कोसोवो (1998–99)
सर्बिया और कोसोवो के बीच जातीय संघर्ष बढ़ गया, जिसमें सर्बियाई बलों ने कोसोवो के अल्बानियाई नागरिकों पर अत्याचार किए। तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के नेतृत्व में नाटो (NATO) ने 1999 में सर्बिया पर बमबारी की ताकि कोसोवो में जातीय हिंसा रोकी जा सके। यह बमबारी संयुक्त राष्ट्र की अनुमति के बिना की गई थी, लेकिन इसका उद्देश्य मानवीय सहायता और नरसंहार को रोकना बताया गया। इस हस्तक्षेप को क्लिंटन प्रशासन द्वारा एक "नैतिक दायित्व" बताया गया। लेकिन आलोचक इन हस्तक्षेपों को "मानवाधिकार की आड़ में राजनीतिक दबाव" ही मानते हैं।
किन्तु यही वह क्षेत्र है जहाँ ट्रम्प प्रशासन ने सकारात्मक राजनयिक पहल की। सितंबर 2020 में ट्रम्प प्रशासन की मध्यस्थता से वाशिंगटन में सर्बिया और कोसोवो के बीच आर्थिक सामान्यीकरण समझौता हुआ।, जिसमें दोनों पक्षों ने आर्थिक सहयोग और कूटनीतिक संबंधों को सुधारने पर सहमति दी।
इसे एक डिप्लोमैटिक सफलता माना गया क्योंकि कोसोवो और सर्बिया के बीच तनाव 1999 से चला आ रहा था। इस समझौते में इजराइल को भी शामिल किया गया, क्योंकि कोसोवो ने इजराइल को मान्यता दी और अपना दूतावास यरुशलम में खोलने पर सहमत हुआ — ट्रम्प के लिए यह एक और "बड़ी जीत" के रूप में प्रस्तुत किया गया।
डोनाल्ड ट्रम्प ने 2020 में भी सर्बिया-कोसोवो समझौते और इजराइल-अरब देशों (UAE, बहरीन, सूडान, मोरक्को) के साथ अब्राहम समझौतों के चलते स्वयं को नोबेल शांति पुरस्कार के योग्य बताया था। उस समय उन्होंने कहा था :
“मैंने कोसोवो और सर्बिया के बीच 21 वर्षों से चले आ रहे संघर्ष को सुलझाया और किसी ने इसकी तारीफ भी नहीं की।” लेकिन "उन्हें प्रेस द्वारा नजरअंदाज किया गया।"
जहाँ तक भारत और पाकिस्तान का सम्बन्ध है, भारत द्वारा लगातार स्पष्ट किया गया था कि उसका सिन्दूर अभियान पाकिस्तान के खिलाफ नहीं, बल्कि पाकिस्तान में चल रहे आतंकी ठिकानों के विरुद्ध है। आतंकी ठिकाने नष्ट हो गए, भारत का बदला पूरा हो गया। लम्बे युद्ध की भारत ने कभी बात ही नहीं की। जबरन बड़बोले ट्रम्प दाल भात में मूसरचंद बन रहे हैं।
ईश्वर अमरीका की रक्षा करे। ऐसा लगता है कि यह बुजुर्ग धनिक नेता अमरीका की चौधराहट की खुजली हमेशा हमेशा के लिए समाप्त करके ही मानेगा।
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