टर्की को धूल चटाने वाले भारतीय सैनिक और आज की परिस्थितियां - हरिहर शर्मा
आपमें से कुछ सोच रहे होंगे कि कहाँ भारत और कहाँ टर्की, भारतीय सैनिक कब टर्की से लड़ लिए ? हरिहर भी कभी कभी दून की दे देता है। तो वन्धु इस सचाई का जीता जागता प्रमाण आज भी दिल्ली में मौजूद है। आप में से जो भी दिल्ली गए होंगे, उन्होंने तीन मूर्ती भवन के बाहर तीन मूर्ती चौक पर स्थित तीन भारतीय सैनिकों की मूर्तियां अवश्य देखी होंगी। लेकिन क्या इन तीन मूर्तियों का इतिहास भी जानते हैं ? जो नहीं जानते, वे आज जान लें -
इजरायल की राजधानी से 90 किलोमीटर दूर स्थित है एक समुद्री बंदरगाह वाला शहर हाफिया | हाफिया का अर्थ होता है नाजुक। मगर इससे जुड़ी कहानी बेहद कठोर है। बात उस समय की है, जब ना तो भारत आजाद हुआ था और ना ही इजराईल अस्तित्व में आया था |
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान 1918 में कुछ भारतीय सैनिक अंग्रेजों की ओर से लड़ने के लिए फिलिस्तीन की हाफिया पोस्ट पर पहुंचे ये सैनिक ब्रिटिश भारतीय सेना के सिपाही न होकर तीन रियायतों हैदराबाद, जोधपुर व मैसूर लांसर के सिपाही थे। जोधपुर की सैनिक टुकड़ी में पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह के पिता ठाकुर सरदार सिंह राठोड़ भी शामिल थे।
वहां इन लोगों का मुकाबला टर्की की आटोमन साम्राज्य की सेनाओं से हुआ जिनको जर्मन व आस्ट्रिया की सेनाओं की भी मदद हासिल थी। उन्होंने युद्ध में बड़ी वीरता दिखाई और 12 सितंबर 1918 को हाफिया पर जीत हासिल की। इस युद्ध में उन्होंने दुश्मन के 700 सैनिको को बंदी बनाया। उसकी 17 तोपे व 11 मशीनगन छीनने में सफल हुए। इसमें 8 भारतीय सैनिक मारे गए 23 घायल हुए। इस घुड़सवार ब्रिगेड के 60 घोड़े मारे गए व 83 बुरी तरह से जख्मी हो गए।
हाफिया के युद्ध की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि जहां तुर्की सैनिको के पास मशीनगन व तोपे थे वहीं भारतीय सैनिको के पास केवल भाले व तलवारें थी। उनकी जीत की बड़ी वजह उन लोगों का घोड़ों पर सवार होना था। इस युद्ध में जोधपुर लांसर्स का नेतृत्व कर रहे मेजर दलपत सिंह शेखावत शहीद हो गए थे। उन्हें बाद में ब्रिटिश सरकार ने मिल्टिरी क्रास प्रदान किया।
तब से लेकर आज तक भारतीय सेना 23 सितंबर को हर साल हाफिया दिवस मनाती है। आजादी के पहले तीन मूर्ति भवन का नाम फ्लैग स्टाफ हाउस था। वहां ब्रिटिश भारतीय सेना के प्रमुख रहा करते थे। जब इस भवन के सामने यह स्मारक बनाया गया तो इसको इंपीरियल सर्विस कैवेलरी ब्रिगेड मैमोरियल के नाम से जाना जाता था। तीन सैनिको की मूर्तिया तीन राज्यों के सैनिको का प्रतिनिधित्व करती थी।
इसे देश का दुर्भाग्य नहीं तो क्या कहा जाए कि अल्पसंख्यक वोट बैंक कहीं नाराज न हो जाए, इस भय से देश के दस्तावेजों में भी कहीं भी हाफिया के युद्ध व उसमें शाहदत देने वाले भारतीय जवानों का जिक्र नहीं किया गया। अंग्रेंजो ने अवश्य हाफिया के युद्ध में वीरता दिखाने वाले सैनिको की याद में तीन मूर्तियां स्थापित की।
आपमें से कुछ सोच रहे होंगे कि मैं आज इस घटना का उल्लेख क्यों कर रहा हूँ। आईये इसे भी स्पष्ट किये देता हूँ। आपको स्मरण होगा कि 2022 में भारत के अदानी समूह ने इज़रायल के हायफ़ा बंदरगाह की दो-तिहाई हिस्सेदारी खरीद ली थी। पहले विश्वयुद्ध में 23 सितंबर 1918 को भारतीय सैनिकों ने जिस हायफ़ा को तुर्कों के कब्ज़े से छुड़ाया था, उसी हायफ़ा बंदरगाह से भारत को व्यापार के लिए मध्यपूर्व एशिया और यूरोप के लिए बढ़िया और निर्बाध मार्ग मिलने के साथ साथ आपातस्थिति में यही मार्ग भारतीय नौसेना के काम आएगा जहां किसी तरह की घेरेबंदी का खतरा नहीं होगा।जरा विचार कर बताईये कि उसी अडानी को निशाना बनाने वाले विपक्षी नेताओं को क्या कहा जाना चाहिए ?
पप्पू की ठस्स बुध्दि जहाँ काम करना बंद करती है, वहां से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की रणनीति प्रारम्भ होती है। इसे भारत का सौभाग्य और भारतीय जनता की समझदारी ही कहना होगा, जिसने योग्य नैतृत्व के हाथों में देश की बागडोर सौंपी है।
याद रहे कि वोट बैंक के लालच में कांग्रेस सरकारों ने 1947 में इज़रायल बनाने के संयुक्त राष्ट्र संघ के मतदान में विपक्ष में वोट दिया था और इज़रायल को स्वीकार करने में तीन साल लगा दिए। इज़रायल के साथ पूर्ण संबंध अटल जी के प्रधानमंत्री रहते 1992 में स्थापित हुए और भारत ने अपना दूतावास तेलअवीव में खोला। लेकिन बिना किसी संबंध के भी इज़रायल ने हर युद्ध में भारत को सलाह, सूचना और सहायता दी।
1999 में कारगिल युद्ध के दौरान इज़रायल ने अपनी सेना से रिज़र्व स्टोर से 155 मिमी की तोपों को गोले भारत को दिए थे जिसकी बहुत सख्त ज़रूरत थी। 2014 के बाद भारत और इज़रायल के संबंध और प्रगाढ़ होने प्रारंभ हुए और 2017 आते आते भारत इज़रायल से रक्षा उपकरण खरीदने वाला प्रमुख देश बन गया। 2018 में नरेन्द्र मोदी भारत के पहले प्रधानमंत्री थे जो इज़रायल गए। अगर खबरों पर भरोसा किया जाए ऑपरेशन सिंदूर में पाकिस्तानी ठिकानों को तबाह करने वाली रैम्पेज(Rampage) मिसाइल इज़रायल से ही खरीदी गई है। इसी तरह 2019 में बालाकोट में आतंकवादी अड्डों को तबाह करने वाला स्पाइस(SPICE) 2000 बम भी इज़रायल से ही आया है। एयर डिफेंस के लिए महत्वपूर्ण QRSAM भारत और इज़रायल का साझा उत्पादन है। इसके अलावा चौकसी के काम में आने वाले कई महत्वपूर्ण सिस्टम इज़रायल के साथ मिलकर भारत ने बनाए हैं। भारतीय सेना की स्पेशल फोर्सेज़ इज़रायल की नेगेव हल्की मशीनगन और टवोर राइफलें प्रयोग करती हैं।
लेकिन भारतीय विदेश नीति / कूटनीति की असली परीक्षा अब होना बाक़ी है। भारत ने जहाँ इजराईल से प्रगाढ़ सम्बन्ध कायम कर लिए हैं, वहीं ईरान का महत्व भी उसके लिए कम नहीं है। 2024 के आम चुनाव के बीच ही भारत और ईरान के मध्य चाबहार के शाहिद बेहश्ती बंदरगाह को 10 साल के लिए पट्टे पर लेने का समझौता संपन्न हुआ था, यह भी अमेरिका की भारी नाराज़गी के बीच। चाबहार चीनी प्रभुत्व वाले ग्वादार बंदरगाह से केवल 170 किमी दूर है और यहां से भारत अपनी व्यापारिक गतिविधियां चलाता है। यहीं से बिना पाकिस्तान से होकर जाए अफ़ग़ानिस्तान का रास्ता निकलता है। यहां से भारतीय व्यापार के लिए रेल और सड़क मार्ग से मध्य एशिया, रूस से यूरोप तक को जोड़ने की योजना है।
इस समय जब ईरान और इजराईल के मध्य युद्ध चल रहा है, भारत के लिए दोनों को साधना तलवार की धार पर चलने जैसा है। हम भारतीयों को सरकार के हर फैसले का समर्थन करते हुए, उस पर पूर्ण भरोसा रखना चाहिए। नेतृत्व जो भी करेगा, देश हित में करेगा।
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