
शिवपुरी की राजनीति इन दिनों एक अजीब मोड़ पर खड़ी है। सोशल मीडिया पर धड़ाधड़ वायरल हो रहे ऑडियो क्लिप्स ने राजनीतिक विमर्श को बुनियादी मुद्दों से हटाकर सनसनीखेज घटनाओं की ओर मोड़ दिया है। ऐसा प्रतीत होता है मानो अब राजनीति संवाद, सिद्धांत और नीतियों की नहीं, बल्कि रिकॉर्डिंग और वायरल होने की होड़ बन चुकी है।
ऑडियो लीक होना कोई नई बात नहीं, लेकिन इसकी प्रवृत्ति जिस गति से बढ़ रही है, वह निश्चित रूप से चिंताजनक है। एक ओर जनता को लगता है कि उन्हें नेताओं की असली सोच और चालें समझ में आ रही हैं, तो दूसरी ओर यह भी सवाल उठता है कि क्या ये ऑडियो सम्पूर्ण और असंपादित हैं? क्या ये सिर्फ एक पक्ष को बदनाम करने का माध्यम नहीं बनते जा रहे?
बिना अनुमति के किसी की बातचीत रिकॉर्ड करना, भले ही वह किसी जनप्रतिनिधि की हो, निजता के अधिकार का उल्लंघन है। और यदि वह रिकॉर्डिंग खुद कॉल करने वाले व्यक्ति द्वारा की गई है, तो भी उसे सार्वजनिक रूप से फैलाना, विशेषकर किसी को नीचा दिखाने या बदनाम करने के उद्देश्य से, नैतिक और कानूनी रूप से उचित नहीं ठहराया जा सकता।
वायरल ऑडियो की यह राजनीति धीरे-धीरे संवाद की जगह अविश्वास पैदा कर रही है। अब नेता एक-दूसरे से संवाद करने से कतराने लगे हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं उनकी हर बात रिकॉर्ड न हो रही हो। ऐसे वातावरण में स्वस्थ राजनीति और लोकतांत्रिक संवाद का दम घुटने लगता है।
सोचने की बात यह है कि क्या अब राजनीतिक विमर्श का स्तर इतना नीचे चला गया है कि हम ऑडियो क्लिप्स को ही प्रमाण मानने लगे हैं? क्या हम यह भूल रहे हैं कि किसी भी संवाद का संदर्भ, भावना और परिस्थिति उतनी ही अहम होती है जितनी शब्द स्वयं? केवल शब्दों को सुनकर पूरे चरित्र का मूल्यांकन कर लेना तर्क की नहीं, तात्कालिक सनसनी की राजनीति है।
शिवपुरी की जनता को भी अब समझदारी से काम लेने की आवश्यकता है। हर वायरल ऑडियो को अंतिम सत्य मानना उचित नहीं है। यह जरूरी है कि हम सवाल पूछें—कौन रिकॉर्ड कर रहा है, क्यों कर रहा है, और इसे अब सार्वजनिक करने की मंशा क्या है?
राजनीति में पारदर्शिता आवश्यक है, लेकिन पारदर्शिता के नाम पर दूसरों की निजता को रौंद देना लोकतंत्र नहीं, डिजिटल भीड़तंत्र है। हमें यह तय करना होगा कि हम किस प्रकार की राजनीति को बढ़ावा देना चाहते हैं—नीतियों और विकास की, या फिर ऑडियो और षड्यंत्रों की?
अब समय है कि शिवपुरी की राजनीति में शब्दों का नहीं, कर्मों का मूल्यांकन हो। संवाद रिकॉर्डिंग नहीं, आमने-सामने की बहस से आगे बढ़े। तभी लोकतंत्र बचेगा और जनता का भरोसा भी।
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