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ट्रंप का H1B वीज़ा शुल्क बढ़ोतरी: भारत और वैश्विक अर्थव्यवस्था पर असर – दुर्गेश गौड़

 

विगत 6 माह से टैरिफ पर चल रही उठापटक के बीच अमेरिका के राष्ट्रपति व wwf के पूर्व पहलवान डोनाल्ड ट्रंप ने एच- 1 बी वीज़ा पर नया दाव खेला है। भारत में बहुचर्चित एच- 1 बी वीज़ा पर लगने वाली फीस को बढ़ाकर 100000 डॉलर या भारतीय मुद्रा में 8800000 रुपए कर दिया है। अमेरिका को पुनः ग्रेट बनाने वाले ट्रंप विजन में इस नए दाव के क्या निहितार्थ हैं। व वर्क वीजा पर बड़े हुए नवीन शुल्क वर्तमान रस्साकसी में भारत पर क्या असर डाल सकते हैं। यह समझना लाजमी है।

डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में रिपब्लिकन पार्टी का मानना है कि विगत दशकों में अमेरिका की उदार नीतियों के चलते विदेश से आ रही सस्ती लेबर  अमेरिकी लेबर को चुनौतियों पेश करती रही है। अमेरिकी वर्क फॉर्स को उचित पारिश्रमिक नहीं मिल पा रहा है। साथ ही रोजगार की दौड़ में सस्ते श्रमिकों के साथ प्रतियोगिता में वह पिछड़ रहे हैं। आर्थिक थिंक टैंक (जीटीआरआई) की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में 5 वर्ष अनुभवी लोकल आईटी कर्मचारी को 120000 से 150000 डॉलर तक वेतन मिलता है। वहीं एच 1बी कर्मचारी को 40% कम व भारत में काम करने वाले कर्मचारी को 80% तक कम वेतन मिलता है। अर्थात विदेशी श्रमिक लोकल अमेरिकी श्रम शक्ति को छती पहुंचा रहे हैं। व स्थानीय बेरोजगारी बढ़ाकर जनसांख्यिकीय संतुलन को लंबे समय में बिगाड़ रहे हैं।

साथ ही विदेशी श्रमिक अमेरिकी पूंजी, इंफ्रास्ट्रक्चर, दक्षता, ब्रांड इमेज का दोहन रहे हैं। जिसके बदले वीज़ा फीस का भुगतान अमेरिका को मिलना चाहिए ताकि उक्त संसाधन का पुनः निवेश लोकल अमेरिकी के उत्थान में किया जा सके। अमेरिका को पुनः महान बनाने वाली रिपब्लिकन अमेरिकी सोच के लिहाज से यह ठीक भी नजर आता है। 

भारत के लिहाज से, अमेरिका को होने वाले निर्यात पर 50% फ्लेट टैरिफ लगाने के उपरांत एच- 1बी वीजा पर शुल्क वृद्धि एक नई छती की तरह से है। क्योंकि एच- 1बी वीजा के कुल लाभार्थियों में भारतीयों की संख्या दो तिहाई से भी अधिक है। साथ ही भारतीय आई टी कंपनियों के लिए अमेरिका एक आदर्श स्थान है। जहां वह सस्ती भारतीय कार्यकुशलता को नियुक्त कर तमाम दुनियां से गुणवत्तापूर्ण प्रतियोगी लाभ ले रहे हैं। गौरतलब है कि भारतीय सेवा क्षेत्र निर्यात सरप्लस है व विदेश से भारतीयों द्वारा भेजा जाने वाला रेमिटेंस कैपिटल अकाउंट पर स्थाई पूंजी उपलब्ध कराने वाला मजबूत स्रोत है।

ट्रंप अपने नजरिए से सही भी हो सकते थे। अगर यह 70 के दशक वाली वैश्विक स्थिति रही होती। लेकिन 21वीं सदी में वैश्विक आवो हवा काफी बदल चुकी है। 70 के दशक में सीमांत रहे एशिया के देश आज कई क्षेत्रों में वैश्विक नेतृत्व कर रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां दुनियां में नई आपूर्ति श्रृंखलाओं का निर्माण कर रही हैं। 

अमेरिका में एच 1बी बीजा प्राप्त करने वाली 10 शीर्ष कंपनियों में भारत की सिर्फ एक कंपनी TCS है। वहीं अमेजन, गूगल, मेटा, जे पी मॉर्गन, एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट, वॉलमार्ट समेत अधिकतर कंपनियां अमेरिकी हैं। जोकि अपने ऑपरेटिंग मार्जिन बढ़ाने में सस्ती भारतीय लेवर का इस्तेमाल करती हैं। अतः इस मिले जुले अनुपात में एक तरफ तो भारतीय प्रतिभाओं के लिए अमेरिका बसना महंगा नजर आता है। वहीं अमेरिकी कैपिटल का रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट भी कम होना संभावित है। ए आई स्टार्टअप्स के लिए भी अब अमेरिका में दिमाग जुटाना महंगा हो जाएगा, व रिवर्स ब्रेन ड्रेन का माहौल बनेगा। साथ ही दुनियां के उभरते देश इस अवसर को भुनाने की पुरजोर कोशिश करेंगे व नई आपूर्ति श्रृंखला का निर्माण करने में वैश्विक पूंजी के सहायक बनेंगे। यहां ट्रंप और साथी रिपब्लिकन्स को ध्यान रखना होगा कि कहीं सुस्त कारोबारी सेंटीमेंट  2008 की सबप्राइम क्राइसिस की तरह कोई नया माहौल न बना दे जो अमेरिका को लेने के देने वाली स्थिति में खड़ा कर दे।

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