ग्वालियर विवाद: जब शब्द बने हथियार और विवेक बना सवाल
जब समाज का आईना धुँधला कर दिया जाए तो सच्चाई को साफ़ बोलना अपराध नहीं—कर्तव्य बन जाता हैं। ग्वालियर की धरती पर डॉ. भीमराव अंबेडकर की मूर्ति को लेकर जो विवाद शुरू हुआ, वह केवल एक मूर्ति का नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक सोच और सहनशीलता की परीक्षा का मामला बन गया। विडंबना देखिए, इस पूरे प्रकरण में विचारों से अधिक विवाद चमकाया गया, तर्क से अधिक तकरार पाली गई, और संवेदनशीलता से अधिक सस्ती सनसनी को तवज्जो दी गई।
फिर सोशल मीडिया पर एक वाक्य आया — "CSP हिना खान ने ऐसा जूता मारा फर्जी के मुँह पर कि अब कभी हिन्दू–मुस्लिम नहीं करेगा! जय श्री राम!"
अब सोचिए — क्या यह वाक्य सभ्यता की निशानी है? क्या यह संवाद का तरीका है या समाज को और भड़काने की चाल? “जूता मारा” जैसी भाषा क्या किसी शिक्षित समाज को शोभा देती है? क्या यह वही भारत है जहाँ शब्दों की मर्यादा को वाणी का आभूषण कहा गया था?
जब मैंने यही प्रश्न उठाया — "भाई साहब, शब्दों का प्रयोग सोच-समझकर कीजिए", तो उत्तर आया – “काश ये विचार तब होते जब अंबेडकर को झूठा और गंदा कहा गया था…” यानी बात मुद्दे से हटकर व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों की ओर मुड़ गई।
सवाल है — क्या किसी की गलती के जवाब में हमें भी वैसा ही व्यवहार अपनाना चाहिए? क्या दो गलत मिलकर एक सही बना सकते हैं? क्या सभ्य समाज में संवाद की जगह अब सिर्फ बदले की भाषा रह गई है?
मैंने कहा — मेरा काम है समाज में सकारात्मक वातावरण का निर्माण करना, न कि आग में घी डालना। जब मामला कानून और जनभावना दोनों से जुड़ा हो, तब सबसे बड़ी बहादुरी चुप रह जाना होती है। क्योंकि चुप्पी कभी-कभी शांति की जननी होती है।
परंतु इस विवाद के बीच एक और सच्चाई उभर आई — जो लोग स्वयं को पत्रकार, बुद्धिजीवी, समाजसेवी या नेता कहते हैं, वे भी इस विषैले संवाद पर तालियाँ बजा रहे हैं।
क्यों? क्या इसलिए कि यह पोस्ट उनके जातीय या वैचारिक चश्मे से मेल खाती है? या इसलिए कि किसी की भड़काऊ टिप्पणी पर लाइक और शेयर की गिनती बढ़ती है?
अगर यही पत्रकारिता है, अगर यही समाजसेवा है, अगर यही बुद्धिजीविता है — तो फिर सवाल उठना ही चाहिए — क्या हमने संवाद की जगह दंगल को स्वीकार कर लिया है? क्या अब विचारों का आदान-प्रदान नहीं, केवल आरोपों का आदान-प्रदान बचा है?
जातिवाद की बात करने वाले लोग खुद जाति के चश्मे से ही दुनिया क्यों देखते हैं? हिन्दू-मुस्लिम, ऊँच-नीच, ब्राह्मण-दलित, सवर्ण-पिछड़ा — आखिर ये विभाजन रुक क्यों नहीं रहे? क्योंकि कुछ लोग जानते हैं — जब समाज बँटा रहेगा, तब उनकी राजनीति चलती रहेगी।
यह देश महात्मा बुद्ध की करुणा, रामकृष्ण परमहंस की समरसता और स्वामी विवेकानंद की राष्ट्रीय चेतना से बना है। यहाँ “जय श्री राम” किसी पर जूता मारने की भाषा नहीं, बल्कि मर्यादा पुरुषोत्तम की मर्यादा का उद्घोष है। यहाँ “जय भीम” किसी को नीचा दिखाने का नारा नहीं, बल्कि समानता और आत्मसम्मान का प्रतीक है। पर अफसोस! इन पवित्र नारों को कुछ लोगों ने निजी एजेंडे की ढाल बना लिया है। और सबसे खतरनाक यह है कि इस खेल में अब सोशल मीडिया सबसे बड़ा मैदान बन गया है — जहाँ शब्द तलवार हैं और टिप्पणियाँ बारूद।
आज आवश्यकता है इस पागलपन के विरुद्ध संयम की आवाज़ उठाने की। क्योंकि जो आग एक पोस्ट से भड़कती है, वह कई बार पूरे समाज को राख कर देती है। जातिवाद, धर्मवाद या द्वेष की राजनीति से किसी का कल्याण नहीं हो सकता।
आखिर हम कब समझेंगे कि भारत की असली शक्ति एकता में है, न कि विरोध के शोर में? कब हम फिर से संवाद की भाषा सीखेंगे? कब हम यह महसूस करेंगे कि एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने से किसी का चेहरा साफ नहीं होता?
हमें याद रखना होगा —कलम जब स्याही नहीं, ज़हर उगलने लगे तो समाज अंधकार में डूब जाता है। और वही कलम जब मर्यादा, विवेक और सच्चाई के साथ चले — तो वही समाज को प्रकाश देती है।
इसलिए आज आवश्यकता है नारे की नहीं, विवेक की। गुस्से की नहीं, संयम की। और सबसे अधिक — भारत की आत्मा को समझने की। क्योंकि यह देश “जूता मारने” से नहीं, “विचार जगाने” से महान हुआ है । जय हिंद।

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