लेबल

भैंस चराए या मर्यादा बचाए? – दिवाकर शर्मा

 

शिवपुरी में हुए महिला मिलन समारोह का वीडियो सोशल मीडिया पर जिस तेजी से वायरल हुआ, उसने एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि हमारी सामाजिक संवेदनशीलता आखिर किस दिशा में जा रही है।

जिला पंचायत अध्यक्ष नेहा यादव द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में शहर की नामचीन, समाजसेवी, पत्रकार और राजनीतिक महिलाएं शामिल हुईं यानी यह कोई निजी पारिवारिक आयोजन नहीं था, बल्कि सार्वजनिक स्वरूप वाला कार्यक्रम था।

कार्यक्रम के दौरान अध्यक्ष स्वयं कुछ महिलाओं के साथ एक गाने पर नृत्य करती दिखीं। नृत्य करना बुरा नहीं, पर जब गाने के बोल हों “जिसको डांस नहीं करना वो अपनी भैंस चराए, हमें रोक के दिखाए जिसकी बम में हो दम” तो सवाल उठना स्वाभाविक है। यह सवाल आनंद या उत्सव के विरोध का नहीं, बल्कि मर्यादा और भाषा की शुचिता का है।

लेकिन जैसे ही कुछ लोगों ने इन बोलों पर आपत्ति जताई, तो उन्हें ही “तालिबानी मानसिकता” का तमगा दे दिया गया। यानि जो मर्यादा की बात करे, वह पिछड़ा, जो अभद्रता का समर्थन करे, वही आधुनिक? यह कैसी उलटी व्याख्या है स्वतंत्रता की, जहां संस्कृति की रक्षा करने वाला अपराधी और संस्कृति का अपमान करने वाला उदार कहलाता है?

अब मूल सवाल यह उठता है आखिर वह कौन लोग थे जिन्होंने इस नृत्य के विवादित अंशों को ही सोशल मीडिया पर प्रचारित किया? पूरे कार्यक्रम के कई हिस्से थे सम्मान, स्वागत, संबोधन लेकिन वायरल हुआ सिर्फ वही हिस्सा जिसमें गाने के ये आपत्तिजनक बोल थे।

क्या ये वही लोग नहीं थे जो बाद में “तालिबानी मानसिकता” कहकर विरोध करने वालों पर चढ़ बैठे? क्या यह सब पूर्वनियोजित प्रचार नहीं था पहले विवादित अंश को वायरल कर माहौल बनाना और फिर विरोध करने वालों को “संकीर्ण सोच” बताकर मौन कर देना ? किसी भी दृष्टि से यह संयोग नहीं लगता, बल्कि सोची-समझी रणनीति प्रतीत होती है ताकि “मस्ती” के नाम पर अभद्रता को सामाजिक स्वीकृति दी जा सके।

वास्तविक प्रश्न न तो नृत्य से है, न मनोरंजन से बल्कि उस सोच से है जो सरकारी पद पर बैठे व्यक्ति को भी “व्यक्तिगत स्वतंत्रता” की आड़ में जवाबदेही से मुक्त मानती है। जब एंकर मंच से कार्यक्रम को “सरकारी संस्था का आयोजन” बताता है और उसका लाइव प्रसारण सोशल मीडिया पर होता है, तो वह क्षण मात्र में सार्वजनिक हो जाता है। फिर ऐसे में न केवल बोलों की, बल्कि आयोजक की भी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि कार्यक्रम की गरिमा बनी रहे।

यह अजीब दौर है यहां सभ्यता का समर्थन करने वाला रूढ़िवादी कहा जाता है, और अभद्रता को स्वीकृति देने वाला “प्रगतिशील”। “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” का अर्थ यह नहीं कि भाषा, संस्कृति और शालीनता का गला घोंट दिया जाए।

अगर सरकारी पदों पर बैठे लोग ही इस फर्क को नहीं समझेंगे, तो समाज का नैतिक पतन रोकना असंभव हो जाएगा। राष्ट्रवाद का अर्थ झंडा लहराने या भाषण देने भर से नहीं होता यह अपने आचरण में संस्कृति, मर्यादा और उत्तरदायित्व का निर्वाह करने से सिद्ध होता है। 

जो लोग गंदे बोलों के विरोध को तालिबानियत कहते हैं, दरअसल वही लोग भारतीय संस्कृति की आत्मा को कमजोर कर रहे हैं। मर्यादा का अर्थ किसी की स्वतंत्रता छीनना नहीं, बल्कि स्वतंत्रता को गरिमा के साथ जीना सिखाना है। भैंस चराने वाले बोल भले किसी गाने का हिस्सा हों, लेकिन इस प्रसंग ने समाज के सामने बड़ा प्रश्न खड़ा कर दिया है कि क्या आज का समाज मनोरंजन और मर्यादा के बीच का अंतर भूल चुका है? और क्या अब अभद्रता को ही आधुनिकता का प्रतीक बना दिया गया है?

अब यह जनता को तय करना है कि वह किसके साथ खड़ी है उनके साथ जो भारतीय नारी की गरिमा, समाज की शालीनता और सरकारी पद की मर्यादा की बात करते हैं, या उनके साथ जो इन सबको “तालिबानी मानसिकता” का नाम देकर हंसी में उड़ा देना चाहते हैं। कहने को तो यह एक छोटा-सा वीडियो था, पर इसने एक बड़ा सच उजागर कर दिया कि आज समाज में तालिबानी नहीं, “ताली बजाने वाली” मानसिकता का खतरा ज्यादा है।

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ