लेबल

मिट्टी की खुशबू का मेला या उधार का शोर

 

हर साल ठंड के आते ही शहर में एक खास किस्म का उत्साह जन्म लेता है। चौराहों पर नए पोस्टर उग आते हैं, भाषणों में आत्मनिर्भरता झिलमिलाने लगती है और एक ऐसा आयोजन आकार लेने लगता है, जिसका नाम सुनते ही देशज गंध, मिट्टी का स्पर्श और स्वावलंबन की तस्वीर उभरनी चाहिए। लेकिन क्या सचमुच वैसा ही होता है, या हम बस शब्दों की आरती उतारकर अपने कर्तव्य से मुक्त हो जाते हैं?

पिछले वर्ष भी वही हुआ था। एक ऐसे व्यक्ति को समाजसेवा का प्रतीक बनाकर मंच पर बैठा दिया गया, जिसका अतीत अभी दीवारों से पूरी तरह उतरा भी नहीं था। सवाल उठे क्या समाज सेवा अब पद मिलने के बाद निभाई जाती है, या छूट का प्रमाण पत्र मिलते ही चरित्र भी बदल जाता है। मंच पर लगे बड़े-बड़े चित्र जवाब नहीं देते, वे बस देखते रहते हैं।

देशज सोच के नाम पर गूंजे नारे, लेकिन दुकानों पर आवाजें बाहर की थीं। स्थानीय हाथों को स्टॉल तो मिले, पर आंखों में जो सपने भरे गए थे, वे रोज सुबह यही कहते थे कि आज भीड़ उमड़ेगी। शाम तक सपने भी थक जाते थे और स्टॉल वाले अपने ही खालीपन को देखते रहते थे। अव्यवस्थाएं हर मोड़ पर दिखती थीं, लेकिन उन्हें प्रश्न मानने की जगह अनुभव कहा गया।

जहां ऐसी मिट्टी की खुशबू होनी चाहिए थी, वहां कान फाड़ने वाली मशीनें दहाड़ रही थीं। देशज वाद्य यंत्रों की थाप कहीं नहीं थी, न ढोल की मिट्टी बोलती थी न मंजीरे की सादगी सुनाई देती थी। उनकी जगह तेज़ आवाज़ वाले डीजे थे, ऐसी आधुनिक चीखें जो संस्कृति नहीं, सिर्फ शोर रचती हैं। प्रश्न यह नहीं कि तकनीक बुरी है, प्रश्न यह है कि क्या अपनी पहचान इतनी कमज़ोर हो गई है कि उसे एक स्पीकर से उधार लेना पड़े। क्या इस वर्ष भी वही कानफाड़ू शोर लौटेगा, उसी नाम से, उसी जोश के साथ?

सांस्कृतिक प्रस्तुतियों में भी वही कहानी दोहराई गई। बाहर से आए चेहरे रौशनी में नहाए और अपने शहर की प्रतिभाएं परदे के पीछे खड़ी रहीं। क्या अपनी ही मिट्टी के कलाकार अब पराए लगने लगे हैं, या मंच सिर्फ उन लोगों के लिए है जो दूर से आते हैं?

देसी स्वाद की बात हुई, लेकिन तेल में तैरते विदेशी नाम प्लेटों में उतरते रहे। शब्द देसी थे, स्वाद भटके हुए। और जिन लोगों की ज़िम्मेदारी थी यह सब देखना, लिखना और दिखाना, वे एक दावत में अपने सवाल छोड़ आए। कलम रुक गई, शब्द मौन हो गए।

अब फिर वही आयोजन दस्तक देने वाला है। जगह बदल गई है, चेहरे बदलने की तैयारी है, लेकिन आईने में झांकने वाला चेहरा वही दिखाई देता है। क्या इस बार शोर कम होगा और सुर बोलेंगे? क्या देसी वाद्य अपनी जगह लौट पाएंगे? क्या स्वदेशी सिर्फ बैनर पर नहीं, व्यवहार में भी उतरेगा? या फिर हर साल की तरह हम तालियों, पोस्टरों और तेज़ आवाज़ों के बीच यह सवाल भी अनसुना कर देंगे कि आखिर हमारी जड़ों से इतना डर क्यों लगता है।

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें