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श्रद्धेय के.एस. सुदर्शन जी: राष्ट्र, स्वदेशी और समरसता की युगदृष्टा चेतना – डॉ. अमरीक सिंह ठाकुर

 


यहाँ प्रस्तुत है एक सशक्त, भावनात्मक और वैचारिक लेख जो राष्ट्र सेवक, चिंतक एवं संगठन पुरुष परम पूजनीय श्रद्धेय कुप्पाहल्ली सीतारामैया सुदर्शन जी की स्मृतियों, व्यक्तित्व, कार्यशैली और वैचारिक धरोहर को सम्मानपूर्वक उजागर करता है। यह लेख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा, उनके योगदान और भारत के सामाजिक-आध्यात्मिक पुनर्जागरण में उनकी भूमिका को केंद्र में रखकर रचा गया है। भारत के राष्ट्रीय पुनर्जागरण के युग में यदि संगठन, विचार और कर्म को एक सूत्र में पिरोने वाले व्यक्तित्वों की चर्चा की जाए, तो श्रद्धेय कुप्पाहल्ली सीतारामैया सुदर्शन जी का नाम आदरपूर्वक स्मरण किया जाता है। वे न केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पाँचवें सरसंघचालक (2000–2009) थे, बल्कि एक संत विचारक, वैज्ञानिक मस्तिष्क वाले समाज-चिंतक और भारत के आत्मा के सच्चे साधक भी थे। उनके नेतृत्व में संघ ने अपने वैचारिक क्षितिज को विस्तृत किया और सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय तथा आर्थिक क्षेत्रों में एक समरस, आत्मनिर्भर और आत्मगौरव से परिपूर्ण भारत की दिशा में कदम बढ़ाए।
संस्कारों की भूमि से वैचारिक साधना तक, 18 जून 1931 को रायपुर (तत्कालीन मध्यप्रदेश) में जन्मे सुदर्शन जी ने नौ वर्ष की आयु में ही संघ की शाखा में प्रवेश कर लिया था। बचपन से ही उनमें अनुशासन, अध्ययनशीलता और सेवा का भाव प्रबल था। उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से टेलीकम्युनिकेशन इंजीनियरिंग में ऑनर्स के साथ स्नातक की उपाधि प्राप्त की। तकनीकी दृष्टि, तर्कशीलता और भारतीय परंपरा की समझ ने उन्हें एक अद्वितीय चिंतक बनाया। 1954 में उन्होंने जीवन को राष्ट्रसेवा के लिए समर्पित करते हुए पूर्णकालिक प्रचारक बनने का निर्णय लिया। रायगढ़ में प्रचारक के रूप में उनका प्रारंभिक कार्यक्षेत्र सीमित था, परंतु दृष्टि अत्यंत व्यापक। मात्र 33 वर्ष की आयु में वे मध्यभारत प्रांत प्रचारक बने, और 1969 में 38 वर्ष की आयु में उन्हें अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख की जिम्मेदारी सौंपी गई — जो इस बात का प्रमाण है कि वे संघ में केवल वैचारिक नहीं, बल्कि शारीरिक, अनुशासनात्मक और संगठनात्मक दृष्टि से भी अत्यंत दक्ष थे।


वैचारिकता और संगठनात्मक ऊर्जा का संगम, सुदर्शन जी उन विरले संघ कार्यकर्ताओं में से थे जिन्होंने शारीरिक और बौद्धिक दोनों शाखाओं की अखिल भारतीय जिम्मेदारी संभाली। 1977 में वे उत्तर-पूर्व भारत भेजे गए, जहाँ उन्होंने सीमांत क्षेत्रों में राष्ट्रवाद की चेतना का संचार किया। बाद में उन्होंने अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख के रूप में संगठन को वैचारिक गहराई प्रदान की। 1990 में उन्हें सह-सरकार्यवाह नियुक्त किया गया और वर्ष 2000 में वे संघ के पाँचवें सरसंघचालक बने। यह वह दौर था जब भारत में वैश्वीकरण, बाज़ारीकरण और सांस्कृतिक संक्रमण का नया युग आरंभ हो रहा था। ऐसे समय में सुदर्शन जी ने स्वदेशी, संस्कृति संरक्षण और सामाजिक समरसता के मुद्दों पर राष्ट्र को वैचारिक दिशा प्रदान की। स्वदेशी और आत्मनिर्भर भारत के प्रणेता, सुदर्शन जी स्वदेशी आंदोलन के दृढ़ समर्थक थे। वे मानते थे कि भारत का उत्थान तभी संभव है जब उसकी आर्थिक नीतियाँ उसके सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों के अनुरूप हों। वे कहते थे –“स्वदेशी केवल आर्थिक नीति नहीं, यह हमारी आत्मा की अभिव्यक्ति है।” उन्होंने भारतीय चर्चों, उद्योगों, शिक्षा संस्थानों और तकनीकी विकास में आत्मनिर्भरता का आग्रह किया। 2001 में उनके “स्वदेशी चर्च” संबंधी वक्तव्य ने समाज में व्यापक विमर्श को जन्म दिया — यह केवल धार्मिक टिप्पणी नहीं थी, बल्कि भारत में किसी भी संस्था पर विदेशी प्रभाव से मुक्ति की एक व्यापक अवधारणा थी।


सरल जीवन, ऊँचे विचार, श्रद्धेय सुदर्शन जी का जीवन अत्यंत सादगीपूर्ण था। वे सादगी, अनुशासन और पर्यावरणीय संतुलन के जीते-जागते उदाहरण थे। संघ कार्यालयों में उन्होंने एक “अलिखित नियम” लागू किया — “गिलास में उतना ही पानी भरें जितना आप पी सकते हैं, पानी पवित्र है, इसे व्यर्थ न करें।” यह उनकी जीवन-दर्शन की झलक थी — प्रकृति के प्रति संवेदना, संसाधनों के प्रति कृतज्ञता। वे दिखावे वाले विवाह समारोहों के विरोधी थे। उनका मानना था कि अपव्यय और आडंबर भारत के गरीबों का अपमान है। उन्होंने कन्या भ्रूण हत्या के विरुद्ध भी गहरा अभियान चलाया और कहा – “हम लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती की मूर्तियों की पूजा करते हैं, पर गर्भ में उनकी हत्या करते हैं — यह समाज का सबसे बड़ा पाप है।” ज्ञान, संवाद और राष्ट्रदृष्टि के सेतु, सुदर्शन जी के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता थी उनकी अथाह ज्ञान-पिपासा। विज्ञान, अर्थशास्त्र, धर्म, पर्यावरण, विदेशी नीति — हर विषय पर उनकी पकड़ गहरी थी। वे अक्सर पाञ्चजन्य और ऑर्गेनाइज़र जैसी पत्रिकाओं के संपादकों से समसामयिक मुद्दों पर चर्चा करते थे। उनके मित्रों में राजनयिक, वैज्ञानिक, वैदिक विद्वान, पर्यावरणविद् और स्वदेशी अर्थशास्त्री शामिल थे। उनकी भाषण शैली संयमित, तार्किक और प्रेरणादायक होती थी। वे अटल बिहारी वाजपेयी जी की कविताओं के प्रशंसक थे और उन्हें सार्वजनिक मंचों पर भावनात्मक रूप से उद्धृत करते थे। जब एक अख़बार में उनके साक्षात्कार को लेकर कुछ गलतफ़हमियाँ हुईं, तो दोनों नेताओं ने आपसी परिपक्वता से उन्हें दूर किया — यह उनके लोकतांत्रिक और उदार स्वभाव का परिचायक है।
संवाद और सद्भाव का सेतु, श्रद्धेय सुदर्शन जी का अध्ययन केवल हिंदू धर्म तक सीमित नहीं था। उन्होंने इस्लाम, ईसाईयत और अन्य मतों का गहराई से अध्ययन किया। यही कारण था कि वे इस्लामी जगत में भी सम्मानित व्यक्तित्व माने जाते थे। जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द ने उनके निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया और लिखा –“हम यह नहीं जानते कि संघ परिवार कितना दुखी हुआ, पर मुस्लिम समाज उनके निधन से अत्यंत व्यथित हुआ।” यह उदाहरण सुदर्शन जी की संपूर्ण मानवता के प्रति दृष्टि को दर्शाता है। उन्होंने सदैव कहा कि धर्म विभाजन का नहीं, समरसता का माध्यम होना चाहिए। समकालीन भारत में उनके विचारों की प्रासंगिकता, सुदर्शन जी का विचार आज के नए भारत के लिए पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है। जब प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी “आत्मनिर्भर भारत” और “विकसित भारत @2047” की बात करते हैं, तो उसमें सुदर्शन जी की वैचारिक प्रेरणा स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी दृष्टि में राष्ट्र केवल भौगोलिक इकाई नहीं था, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक चेतना थी। वे मानते थे कि भारत का पुनरुत्थान तभी संभव है जब उसकी शिक्षा नीति, उद्योग नीति और सामाजिक नीति उसकी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ी हो। आज की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP-2020), स्वदेशी उद्यमिता और सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स की दिशा में चल रहा प्रयास — इन सबमें सुदर्शन जी के विचारों की गूंज सुनाई देती है।


समाज और मानवता के लिए उनका दृष्टिकोण, सुदर्शन जी का जीवन वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से प्रेरित था। वे कहते थे — “भारत की आत्मा संसार को केवल भौतिकता नहीं, बल्कि आत्मीयता देना चाहती है।” उनकी दृष्टि में भारत की शक्ति उसके गाँवों, संस्कृतियों और परिवारों में निहित है। वे सशक्त नारी – सशक्त समाज के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने संघ की शाखाओं में महिलाओं की भूमिका पर गहन विचार किया और समाज में नारी-गरिमा के सम्मान की संस्कृति स्थापित करने की बात की। जीवन का अंतिम चरण और अमर प्रेरणा, 15 सितंबर 2012 को रायपुर में सुदर्शन जी का देहांत हुआ। वे सादगीपूर्ण जीवन और गहन वैचारिक चेतना के साथ इस संसार से विदा हुए। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी, जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे, ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था —“वे तेजस्वी बुद्धि के धनी, विनोदी स्वभाव के व्यक्ति और अत्यंत सरल एवं अनुशासित जीवन जीने वाले व्यक्तित्व थे।” उनके निधन के बाद भी उनके विचार संघ और समाज में निरंतर प्रवाहित हैं — एक ऐसी ऊर्जा बनकर, जो भारत को आत्मनिर्भरता, समरसता और आध्यात्मिकता की दिशा में आगे बढ़ाती है।


सुदर्शन जी, विचार का प्रवाह, कर्म का अनुशासन, सुदर्शन जी के जीवन का सार तीन शब्दों में निहित है — ज्ञान, साधना और सेवा। वे विचारक थे, पर केवल शब्दों के नहीं; वे साधक थे, पर केवल ध्यान के नहीं; वे कर्मयोगी थे, जो राष्ट्र के प्रत्येक कण में भारतमाता की दिव्यता देखते थे। उनकी वाणी और कर्म दोनों में संघ का ध्येय वाक्य प्रतिबिंबित होता था “निज पर हित स्वार्थ भूले, राष्ट्र का करे उत्थान।” आज जब भारत आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ रहा है, जब “स्वदेशी”, “सांस्कृतिक आत्मविश्वास” और “सामाजिक समरसता” जैसे विचार फिर से केंद्र में हैं — तब श्रद्धेय सुदर्शन जी की शिक्षाएँ और अधिक प्रासंगिक हो जाती हैं। युगदृष्टा की अनन्त प्रेरणा, श्रद्धेय कुप्पाहल्ली सीतारामैया सुदर्शन जी ने हमें सिखाया कि संगठन केवल ढांचा नहीं, बल्कि संस्कारों का प्रवाह है। उन्होंने दिखाया कि राष्ट्रभक्ति का अर्थ केवल नारे नहीं, बल्कि कर्म के माध्यम से समाज निर्माण है। उनकी दृष्टि में संघ केवल स्वयंसेवकों का संगठन नहीं, बल्कि भारत के आत्मा की चेतना है — जो हर युग में नवनिर्माण की प्रेरणा देती है। उनकी स्मृति आज भी एक दीप शिखा की तरह हमें आलोकित करती है — यह याद दिलाते हुए कि जब तक भारत अपने मूल स्वभाव — संस्कार, स्वदेशी, समरसता और सेवा — को जीवित रखेगा, तब तक उसका भविष्य उज्ज्वल रहेगा। “श्रद्धेय सुदर्शन जी का जीवन, राष्ट्र के लिए समर्पित साधना की अखंड ज्योति है — जो आज भी प्रत्येक स्वयंसेवक, प्रत्येक नागरिक और प्रत्येक भारतीय के अंतर्मन में प्रेरणा का प्रकाश बनकर जल रही है।”

डॉ. अमरीक सिंह ठाकुर

निदेशक

तिब्बत अध्ययन केंद्र

हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय।
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