रिश्वत का खेल: मोहरा बदला, खिलाड़ी वही!
लोगों का कहना है कि यहाँ असली खेल कुछ हजार का नहीं था। बात लाखों की चल रही थी। कुल मिलाकर लगभग 40 लाख के लेनदेन की फुसफुसाहटें हैं। कहते हैं कि कई प्लॉटों का मामला भी इसमें जुड़ा था, संख्या लगभग 27 बताई जा रही है। उनमें से कुछ प्लॉट ऐसे लोगों से जुड़े बताए जा रहे हैं जिनके पद और प्रभाव के कारण कोई खुलकर बोलना नहीं चाहता। बस इशारों में बातें होती हैं, फाइलों के किनारे पर लिखे नोटों की तरह दिखते कम हैं, समझ में ज़्यादा आते हैं।
ऐसे में सवाल उठना तो स्वाभाविक है कि कार्रवाई ठीक उसी व्यक्ति पर क्यों हुई जो सबसे नीचे की पंक्ति में खड़ा था? क्या यह सच में सिर्फ एक छोटी रिश्वत का मामला था, या फिर किसी बड़े लेनदेन को छुपाने के लिए एक आसान निशाना खोजा गया? कई बार बड़े खेल में छोटा मोहरा ही सबसे पहले गिराया जाता है, ताकि असली खिलाड़ी पर किसी का ध्यान न जाए।
जमीन के इंद्राज और दुरुस्ती का मामला अपने आप में बड़ा होता है। इसमें कई लोग जुड़े होते हैं, कागज़ पर नाम बदलने से लेकर अंदर ही अंदर सौदे तय होने तक, हर कदम पर कई हाथ लगते हैं। लेकिन जब बात बाहर आती है, तो अक्सर सबसे कमजोर कड़ी ही पकड़ में आती है। ऊपर बैठे लोग सुरक्षित रहते हैं, क्योंकि उनके नाम बोलना आसान नहीं होता।
इस पूरे मामले में भी ऐसा ही लग रहा है। जिस कार्रवाई को छोटे स्तर का मामला बताया जा रहा है, उसके पीछे कहीं न कहीं बड़ी रकम, बड़े सौदे और बड़े पदों की छाया दिखाई देती है। ऐसा लगता है कि किसी ने सोची-समझी चाल चली जिसमें एक छोटा कर्मचारी मुद्दा बन गया, जबकि असली वजह कुछ और ही रही होगी।
जो कहानी दिख रही है, वह अधूरी है। और जो नहीं दिख रहा, वही शायद असली कहानी है। यह प्रकरण बता रहा है कि दफ्तरों में चलने वाले खेल हमेशा सीधे नहीं होते। कई बार सच को छुपाने के लिए किसी और को आगे कर दिया जाता है। और यह मामला भी शायद उसी प्रकार की बिसात का हिस्सा है जहाँ पत्ते खुले कम, फेंटे ज़्यादा जाते हैं, और सच्चाई पर परतें चढ़ती चली जाती हैं।

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