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धमकी, ज़मीन और सत्ता: शिवपुरी का रहस्यमय नेटवर्क

 


शिवपुरी में बीते दिनों सामने आया एक प्रकरण केवल एक फोन कॉल तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उस सड़े-गले तंत्र की झलक देता है जो लंबे समय से परदे के पीछे सक्रिय है। एक व्यक्ति द्वारा खुलेआम एक जनप्रतिनिधि को धमकी देना कोई सामान्य घटना नहीं हो सकती। सवाल यह है कि इतनी हिम्मत आखिर आई कहां से? क्या यह केवल एक व्यक्ति की सनक थी या फिर किसी बड़े खेल का छोटा सा मोहरा?

यह और भी हैरान करता है कि जब धमकी सीधे एक विधायक को दी गई, तब तत्काल पुलिस को सूचना क्यों नहीं दी गई? यदि मामला इतना गंभीर था कि बाद में विधानसभा अध्यक्ष तक पहुंचा, तो फिर एक दिन का मौन क्यों? और शिकायत भी तब दर्ज हुई जब पुलिस ने स्वयं विधायक को बुलाया, यह पहल किस दबाव में हुई? क्या यह देरी किसी रणनीति का हिस्सा थी या फिर किसी को संभलने का समय देने की कोशिश?

जब धमकी देने वाले व्यक्ति की सोशल मीडिया गतिविधियों पर नजर डाली गई तो तस्वीर और भी धुंधली होते हुए डरावनी हो गई। उसके फोटो उन चेहरों के साथ दिखे, जिनके पास आम आदमी पहुंचने की कल्पना भी नहीं कर सकता। सवाल उठता है कि क्या यह केवल दिखावा था या वास्तव में उसे सत्ता और प्रशासन का संरक्षण प्राप्त था? यदि नहीं, तो ऐसे लोगों के साथ उसकी नजदीकियां कैसे संभव हुईं?

कहा जा रहा है कि पूरा विवाद जमीनों के सौदों से जुड़ा है। शिवपुरी में यह कोई नया विषय नहीं है। यहां वर्षों से जमीन एक व्यापार नहीं, बल्कि सत्ता का हथियार रही है। समाजसेवी का मुखौटा ओढ़े कुछ लोग खुलेआम जमीनों के खेल में सक्रिय हैं। बाहर से वे मददगार दिखते हैं, भीतर से सौदागर। और आश्चर्य यह कि ऐसे लोगों के साथ नेताओं और अधिकारियों की तस्वीरें, उनकी मौजूदगी, उनका सानिध्य बार-बार सामने आता है। क्या यह केवल संयोग है?

इस तंत्र का तरीका भी बड़ा चौंकाने वाला है। जब तक मामला दबा रहता है, तब तक सब ठीक। जैसे ही कोई सौदा, कोई धमकी, कोई विवाद सार्वजनिक होता है, एक चेहरा सामने कर दिया जाता है। वही आरोपी बनता है, वही कानून का सामना करता है। उसके तथाकथित आका चुपचाप पीछे हट जाते हैं, मानो उनका उससे कभी कोई संबंध ही न रहा हो। लेकिन क्या खेल वहीं खत्म हो जाता है? नहीं। कुछ समय बाद वही जगह कोई नया चेहरा ले लेता है, वही नेटवर्क, वही तरीका, वही संरक्षण।

तो असली दोषी कौन है? वह व्यक्ति जिसने फोन किया, या वह व्यवस्था जिसने उसे इतना निडर बना दिया? क्या केवल एक गिरफ्तारी से शिवपुरी की दूषित राजनीति और अधिकारी तंत्र की भूमिका समाप्त हो जाती है? या फिर यह भी एक नियंत्रित कार्रवाई थी ताकि असली किरदारों तक आंच न पहुंचे?

यह मामला केवल एक धमकी का नहीं है, यह उस सवाल का है कि शिवपुरी में सत्ता, प्रशासन और जमीन के खेल के बीच की रेखा आखिर कहां खत्म होती है। जब जनप्रतिनिधि भी देर से बोलें, अधिकारी मौन साधे रहें और आरोपी खुलेआम रसूखदारों के साथ घूमते नजर आएं तो भरोसा किस पर किया जाए?

शायद सबसे बड़ा प्रश्न यही है: क्या यह सच सामने लाने की ईमानदार कोशिश है, या फिर एक और परदा, ताकि असली खेल हमेशा की तरह अंधेरे में ही चलता रहे?

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