रेट कार्ड पत्रकारिता: किसानों की पीड़ा पर सौदेबाज़ी का खुलासा
पत्रकारिता को कभी समाज की आँख, कान और आवाज़ कहा जाता था। आज वही पत्रकारिता कई जगहों पर रेट कार्ड में तब्दील होती दिख रही है। यह कोई आरोप नहीं, बल्कि ज़मीनी हकीकत से टकराकर सामने आया एक कड़वा अनुभव है, जिसने वर्तमान पत्रकारिता के चेहरे से नकाब उतार दिया।
किसानों से जुड़ी एक ठगी की खबर सामने आई। मामला छोटा नहीं था लाखों की गाढ़ी कमाई, मेहनत की फसल और भरोसे की जड़ें उजड़ चुकी थीं। किसान चाहते थे कि उनकी पीड़ा सुनी जाए, उनकी आवाज़ शासन-प्रशासन तक पहुंचे। उन्होंने आग्रह किया कि कुछ पत्रकार गांव आकर स्थिति देखें। गांव शहर से लगभग 25–30 किलोमीटर दूर था, कोई दुर्गम पहाड़ नहीं, कोई युद्ध क्षेत्र नहीं बस एक साधारण सा गांव, जहां लोग आज भी पत्रकार को उम्मीद की तरह देखते हैं।
लेकिन जैसे ही कुछ पत्रकारों से संपर्क किया गया, असली कहानी शुरू हुई। खबर की गंभीरता नहीं पूछी गई, किसानों की हालत नहीं जानी गई, सवाल यह था कि “मामला कितने का है?” जवाब मिला—करीब 9 लाख की ठगी। इसके बाद जो कहा गया, वह पत्रकारिता के मुंह पर तमाचा था। प्रतिव्यक्ति कम से कम 10 हजार रुपये, चार पहिया वाहन से आना-जाना अलग। मानो यह कोई सामाजिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि इवेंट मैनेजमेंट या पेड टूर पैकेज हो।
यह वही पत्रकारिता है जो मंचों से नैतिकता का प्रवचन देती है, सोशल मीडिया पर क्रांतिकारी स्टेटस लगाती है और लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का दावा करती है। लेकिन ज़मीन पर पहुंचते ही उसका चरित्र बदल जाता है। यहां खबर की सच्चाई नहीं, सौदे की रकम मायने रखती है। जितना बड़ा मामला, उतनी बड़ी डिमांड। दुख यह नहीं कि पैसे मांगे गए, दुख यह है कि यह सब बिना किसी शर्म, बिना किसी झिझक के “नॉर्मल” की तरह कहा गया।
यह स्थिति केवल किसानों की नहीं, यह पूरे समाज के साथ ठगी है। जिन लोगों को आवाज़ देना था, वही आवाज़ को गिरवी रख चुके हैं। जिनके हाथ में कलम थी, वही कलम को तराजू पर तौल रहे हैं। यह वही दौर है जहां पत्रकार सवाल पूछने से पहले हिसाब-किताब करता है और कैमरा ऑन होने से पहले रेट फाइनल करता है।
सबसे भयावह पहलू यह है कि ऐसे तथाकथित पत्रकारों के कारण असली पत्रकार भी शक के घेरे में आ जाते हैं। जो बिना किसी लालच के, बिना किसी सुविधा के, केवल सच के लिए काम करते हैं, उनकी मेहनत भी इन दलालों की वजह से संदिग्ध लगने लगती है। यह पत्रकारिता की हत्या नहीं तो और क्या है?
किसान आज भी ठगा गया है। एक बार व्यापारी से, दूसरी बार व्यवस्था से और अब तीसरी बार उन लोगों से, जिन्हें उसकी आवाज़ बनना था। सवाल यह नहीं है कि पत्रकार गांव क्यों नहीं गया, सवाल यह है कि क्या आज पत्रकारिता इतनी कमजोर हो चुकी है कि 25 किलोमीटर की दूरी भी बिना भुगतान तय नहीं की जा सकती?
यह लेख किसी एक व्यक्ति या समूह पर हमला नहीं है, यह उस मानसिकता का खुलासा है जिसने पत्रकारिता को पेशा नहीं, धंधा बना दिया है। यह आईना है, जिसमें देखकर शायद कुछ चेहरे शर्म से झुक जाएं और अगर न झुकें, तो समझ लेना चाहिए कि समस्या कितनी गहरी है।

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