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राजा साहब की नई चाल: कांग्रेस से दूरी, राजनीति में नया संकेत

 


राजनीति की शतरंज पर कभी-कभी कोई चाल ऐसी चल दी जाती है, जो मोहरों से ज़्यादा चेहरों को बेचैन कर देती है। दो दिन पहले राजा दिग्विजय सिंह का एक बयान भी कुछ ऐसा ही साबित हुआ। समय, मंच और संदर्भ तीनों ऐसे थे कि कांग्रेस के भीतर खलबली मचना तय थी। पार्टी अपनी 140वीं वर्षगांठ मना रही थी, कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक चल रही थी और उसी दौरान संघ व बीजेपी को लेकर राजा साहब की सकारात्मक टिप्पणी… मानो सन्नाटे में अचानक घंटी बज गई हो।

यह वही नेता हैं, जिन्हें कभी संघ और बीजेपी का सबसे मुखर आलोचक माना जाता रहा है। उधर राहुल गांधी देश-विदेश में संघ को लेकर चेतावनी देते घूम रहे हैं और इधर पार्टी के ही वरिष्ठतम चेहरों में से एक अलग सुर में बोल रहा है। यह सिर्फ़ तारीफ नहीं थी, यह एक संकेत था और राजनीति में संकेत कभी बेवजह नहीं होते।

पार्टी की प्रवक्ता की तीखी प्रतिक्रिया आई, बयान को असहज बताया गया, पर कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। राजा साहब ने न तो सफाई दी, न ही कदम पीछे खींचे। उन्होंने वही बात दोहराई, उसी आत्मविश्वास के साथ। और यहीं से सवालों की कतार लग गई कि क्या यह महज़ व्यक्तिगत राय थी या किसी लंबी यात्रा का इशारा?

मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव का बयान, जिसमें उन्होंने राजा साहब के बीजेपी में स्वागत की बात कही, आग में घी जैसा साबित हुआ। राजनीतिक गलियारों में फुसफुसाहट तेज़ हो गई क्या अस्सी के करीब पहुंच चुके राजा अब उस मोड़ पर हैं, जहाँ से कांग्रेस दफ्तर की राह पीछे छूटती दिख रही है?

हकीकत यह है कि बीजेपी में औपचारिक प्रवेश की संभावना फिलहाल कम ही दिखती है। इतने लंबे राजनीतिक जीवन के बाद कोई भी अनुभवी नेता अंतिम पड़ाव पर विवाद या दाग अपने नाम नहीं करना चाहेगा। उधर राज्यसभा को लेकर खुद का इनकार भी कांग्रेस से दूरी का एक और संकेत माना जा रहा है। दरवाज़े पूरी तरह बंद न सही, पर अधखुले भी नहीं कहे जा सकते।

कहानी का एक अहम सिरा परिवार से जुड़ता है। जयवर्धन सिंह जो कभी प्रदेश अध्यक्ष और भविष्य के मुख्यमंत्री के संभावित चेहरे के रूप में देखे गए और आज ज़िला राजनीति के दायरे में सिमटे नज़र आते हैं। यह सिमटना क्या संयोग है या रणनीति का हिस्सा? पिता के मन में कहीं यह टीस तो नहीं कि बेटे का कद जानबूझकर छोटा किया गया? और अगर ऐसा है, तो अगला कदम भी स्वाभाविक ही होगा कि अपने बेटे और भाई के राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित करना।

जयवर्धन सिंह की हालिया वृंदावन यात्रा, सपरिवार गोवर्धन परिक्रमा और उसका सार्वजनिक होना भी यूँ ही नहीं देखा जा रहा। यह एक नई छवि गढ़ने की कोशिश है एक ‘सॉफ्ट हिंदू’ नेता की, जो आज की राजनीति में अक्सर सुरक्षित और स्वीकार्य मानी जाती है।

राजा साहब के बीजेपी में मजबूत निजी संबंधों की चर्चा कोई नई नहीं है। राघौगढ़ राजपरिवार के लिए सियासी रास्ते अनजाने नहीं रहे, उन्हें दिशा पूछने के लिए किसी नक्शे की ज़रूरत भी नहीं पड़ती। इसलिए इस संभावना को पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता कि पर्दे के पीछे कुछ समीकरण बन रहे हों।

हालाँकि यह सब अचानक होने वाला नहीं है। राजनीति में करवटें धीरे ली जाती हैं। 2028 के चुनाव से पहले कई चेहरे इधर-उधर होंगे कुछ जो हाल ही में पाला बदले थे, उनकी बेचैनी वापसी का इशारा कर रही है, और कुछ नए नाम बीजेपी के दरवाज़े खटखटाने की तैयारी में दिख सकते हैं।

फिलहाल तस्वीर धुंधली है, रहस्य बना हुआ है। लेकिन इतना तय है कि राजा दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस दफ्तर से सिर्फ़ भौतिक दूरी नहीं बनाई है, बल्कि राजनीतिक रूप से भी वह काफी आगे निकल आए हैं। अब देखना यह है कि यह दूरी ठहराव बनती है या किसी नए सफ़र की शुरुआत। राजनीति है यहाँ हर ख़ामोशी भी एक बयान होती है।