करैरा: अपराध, भ्रष्टाचार और प्रशासनिक चुप्पी का खतरनाक केंद्र
एक ऐसा युवक, जो हत्या के मामले में सात साल सात महीने तक जेल में बंद रहा, उसके नाम पर ढाई लाख रुपये का बिजनेस लोन और 58 हजार रुपये की बाइक फाइनेंस, यह खबर केवल धोखाधड़ी नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम पर करारा तमाचा है। सवाल सिर्फ यह नहीं है कि लोन कैसे पास हुआ, सवाल यह भी है कि बैंकिंग तंत्र, केवाईसी, सत्यापन और निगरानी जैसी व्यवस्थाएँ आखिर किस गहरी नींद में सोई रहीं। जेल से बाहर आने के बाद जब युवक को अपने नाम पर चल रहे कर्ज़ का पता चलता है, तो यह घटना किसी रहस्यमयी उपन्यास से कम नहीं लगती जहाँ पात्र बेखबर होता है और उसके नाम पर पूरी पटकथा लिख दी जाती है।
दूसरी ओर, बनगवां बीट में फॉरेस्ट टीम पर हमला और पुलिस द्वारा एफआईआर न लिखना, करैरा की प्रशासनिक सुस्ती और दबंगई के गठजोड़ को उजागर करता है। लकड़ी काटने जैसे अपराध में जब्त साइकिल और कुल्हाड़ी को छुड़ाकर ले जाना, थाने जा रहे चौकीदार और उसकी बेटी पर हमला, और फिर डिप्टी रेंजर का यह कहना कि दरोगा ने कहां “कायमी मत कराओ, माफी मंगवा देंगे”, यह सब किसी अपराध-नियंत्रण व्यवस्था की कहानी नहीं, बल्कि अपराध-प्रबंधन की पटकथा प्रतीत होती है। यहाँ कानून डरता हुआ दिखता है और अपराधी बेखौफ।
तीसरी घटना में पहले कार सवार युवक की पिटाई, फिर उसी पर एफआईआर और अंततः उसके घर पर फायरिंग, यह करैरा में न्याय की उलटी गंगा का प्रमाण है। पीड़ित ही आरोपी बन जाता है और आरोपी ही कानून का संरक्षित चेहरा ओढ़ लेता है। यह स्थिति केवल व्यक्तिगत रंजिश या स्थानीय विवाद नहीं, बल्कि एक ऐसे माहौल की ओर इशारा करती है जहाँ सच और झूठ के बीच की रेखा सत्ता, रसूख और भय के आधार पर तय होती है।
चौथी खबर, सिल्लारपुरा तिराहे से करैरा आ रहे दंपत्ति से मंगलसूत्र लूट, यह बताती है कि अपराध अब केवल सीमावर्ती इलाकों या रात के अंधेरे तक सीमित नहीं रहा। दिनदहाड़े, सड़क पर, सामान्य नागरिकों को निशाना बनाना यह दर्शाता है कि अपराधियों के मन में न पुलिस का भय है, न प्रशासन का।
यदि यह सब केवल एक दिन की खबरें हैं, तो प्रतिदिन सामने आने वाली लूट, बलात्कार, हत्या, धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार और अवैध कारोबारों की श्रृंखला करैरा को धीरे-धीरे एक ऐसे क्षेत्र में बदल रही है, जहाँ अपराध असामान्य नहीं बल्कि सामान्य घटना बन चुका है। यह सामान्यीकरण ही सबसे बड़ा खतरा है, क्योंकि जब समाज अपराध को स्वीकार करने लगता है, तब व्यवस्था की आत्मा मरने लगती है।
भौगोलिक दृष्टि से करैरा की स्थिति अपने आप में रहस्यमयी है। शिवपुरी से लगभग 40 किलोमीटर दूर, लोकसभा की दृष्टि से ग्वालियर से जुड़ा हुआ, दतिया और उत्तर प्रदेश के झांसी से सटा हुआ यह क्षेत्र बुंदेलखंड का प्रमुख केंद्र है। सीमावर्ती स्थिति, आवागमन के कई रास्ते, वन क्षेत्र और प्रशासनिक निगरानी की कमी, ये सभी तत्व अपराधियों के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करते हैं। अपराध करके सीमा पार करना यहाँ कोई कठिन काम नहीं लगता।
विडंबना यह है कि इस विधानसभा से अनेक प्रतिष्ठित राजनीतिक व्यक्तित्व आते रहे हैं। इसके बावजूद स्थानीय नेताओं की भूमिका आज प्रश्नों के घेरे में है। जनप्रतिनिधि, जो जनता की आवाज़ बनने चाहिए थे, वे शासन-प्रशासन के आगे नतमस्तक दिखाई देते हैं। न तीखे सवाल, न सख्त निगरानी, न ही अपराध और भ्रष्टाचार के विरुद्ध कोई निर्णायक पहल, यह चुप्पी ही अपराधियों का सबसे बड़ा संबल बनती जा रही है।
करैरा की समस्या केवल कानून-व्यवस्था की नहीं है, यह उस नैतिक और प्रशासनिक क्षरण की कहानी है, जहाँ भ्रष्टाचार धीरे-धीरे व्यवस्था की नसों में ज़हर की तरह फैल चुका है। जब एफआईआर माफी से टल जाए, जब लोन जेल में बंद व्यक्ति के नाम पर निकल जाए, जब पीड़ित ही अपराधी बना दिया जाए तो यह मान लेना कठिन नहीं कि करैरा किसी अदृश्य गिरोह के लिए प्रयोगशाला बन चुका है।
आज आवश्यकता है कि करैरा को केवल एक विधानसभा नहीं, बल्कि एक चेतावनी के रूप में देखा जाए। यदि समय रहते कठोर प्रशासनिक कार्रवाई, राजनीतिक इच्छाशक्ति और सामाजिक जागरूकता नहीं आई, तो करैरा का नाम केवल भौगोलिक पहचान नहीं, बल्कि अपराध और भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में दर्ज हो जाएगा। और तब यह प्रश्न केवल करैरा का नहीं रहेगा, यह पूरे बुंदेलखंड और मध्यप्रदेश की व्यवस्था पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न बन जाएगा।

प्रशासनिक तंत्र को गंभीरता से विचार कर कठोर कार्यवाही की जानी चाहिए, राजनेताओं को भी गंभीरता से विचार करना चाहिए, यही पक्षपाती आचरण भविष्य में उन्हें आईना दिखा सकता है!!
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