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शिवपुरी: चार दिशाएँ, चार पहचानें… फिर भी शिवपुरी किसका?

 


दिवाकर की दुनाली से ✍️

नक्शे पर शिवपुरी पूरी स्पष्टता से दर्ज है। यह कोई सीमांत कस्बा नहीं, बल्कि मध्यप्रदेश का एक स्थापित जिला मुख्यालय है। सड़कें यहाँ तक आती हैं, ट्रेनें यहाँ रुकती हैं, प्रशासन यहीं बैठता है फिर भी पहचान के नक्शे में शिवपुरी आज भी धुंध, संशय और उपेक्षा की परतों में ढका हुआ है। हैरानी की बात यह है कि जिन स्थानों से उसकी तुलना होती है, उनमें से कुछ दूसरे राज्यों में स्थित हैं, फिर भी उनकी पहचान निर्विवाद है, जबकि मध्यप्रदेश में स्थित शिवपुरी स्वयं को परिभाषित नहीं कर पाया।

लगभग सौ किलोमीटर दूर झांसी उत्तरप्रदेश में स्थित होकर भी गर्व से स्वयं को बुंदेलखंड कहता है और उसी पहचान के आधार पर विशेष पैकेज, सूखा राहत योजनाएँ, पलायन रोकने के कार्यक्रम और ऐतिहासिक पर्यटन का लाभ उठाता है। मात्र चालीस किलोमीटर दूर कस्बाथाना राजस्थान में स्थित है, फिर भी वह पूरी तरह हाड़ौती की सांस्कृतिक पहचान में रचा-बसा है। राज्य बदल जाता है, पर क्षेत्रीय पहचान नहीं बदलती। ग्वालियर चंबल कहलाकर प्रशासनिक और संसाधन केंद्र बन जाता है और गुना मालवा कहकर कृषि व विकास की मुख्यधारा में शामिल हो जाता है।

इन सबके बीच शिवपुरी खड़ा है। मध्यप्रदेश में होकर भी पहचान के संकट से जूझता हुआ। यहाँ सबसे विरोधाभासी सत्य यह है कि शिवपुरी में हाड़ौती, बुंदेलखंड, मालवा और चंबल चारों का प्रभाव साफ दिखाई देता है। बोली में कहीं बुंदेली की झलक है, कहीं ग्वालियरी और ब्रज का असर, तो कहीं मालवी और हाड़ौती संस्कारों की छाया। खान-पान, परंपराएँ और लोकजीवन भी किसी एक रंग में नहीं बंधे, बल्कि मिश्रित हैं। फिर भी शिवपुरी पूरी तरह से इनमें से किसी का भाग नहीं कहलाता। न वह बुंदेलखंड है, न चंबल, न मालवा, न हाड़ौती और दुर्भाग्य यह है कि उसकी अपनी कोई स्वतंत्र, स्वीकृत पहचान भी नहीं बन पाई।

यही मिश्रित स्वरूप शिवपुरी की ताकत बन सकता था, लेकिन पहचान की राजनीति में यही उसका सबसे बड़ा अभिशाप बन गया। जहाँ स्पष्ट परिभाषा होती है, वहीं योजनाएँ बनती हैं। जहाँ मिश्रण होता है, वहाँ भ्रम पैदा किया जाता है। शिवपुरी चारों दिशाओं से पहचानों से घिरा हुआ वह चौराहा बन गया है, जहाँ से हर संस्कृति गुजरती है, पर कोई ठहरती नहीं। बुंदेलखंड के नाम पर सूखा और पलायन चर्चा में आते हैं, तो कहा जाता है कि शिवपुरी “पूरी तरह” बुंदेलखंड नहीं है। चंबल के नाम पर योजनाएँ बनती हैं, तो कहा जाता है कि यहाँ चंबल नदी नहीं बहती। मालवा की समृद्धि की बात होती है, तो शिवपुरी दूरी और प्राथमिकता के अभाव का बहाना बन जाता है। हाड़ौती की संस्कृति और पर्यटन की चर्चा होती है, तो शिवपुरी सिर्फ पड़ोसी जिला मान लिया जाता है।

शिवपुरी की पीड़ा इसलिए और गहरी है क्योंकि उसका अतीत अत्यंत गौरवशाली रहा है। सिंधिया राजघराने की ग्रीष्मकालीन राजधानी, माधव नेशनल पार्क, ऐतिहासिक छत्रियाँ, महल, वन संपदा और रणनीतिक स्थिति ये सभी प्रमाण हैं कि शिवपुरी कभी हाशिये पर नहीं था। लेकिन आज पहचान के अभाव ने इस विरासत को भी धीरे-धीरे खामोश कर दिया है। धरोहरें संरक्षण के अभाव में जर्जर हो रही हैं और संभावनाएँ योजनाओं के अभाव में दम तोड़ रही हैं।

यह स्थिति अब संयोग नहीं लगती। यह एक ऐसा रहस्य बन चुकी है, जिसमें प्रशासनिक सुविधा, राजनीतिक गणित और क्षेत्रीय लेबल आपस में उलझकर शिवपुरी को बीच में छोड़ देते हैं। शिवपुरी का सबसे बड़ा दोष यही प्रतीत होता है कि वह किसी एक खांचे में फिट नहीं बैठता। और हमारी योजनागत व्यवस्था में वही क्षेत्र सबसे अधिक उपेक्षित होता है, जिसे किसी एक नाम में बाँधा न जा सके।

आज शिवपुरी पहचान के लिए तरसता हुआ अपनी ही विरासत को खोने की कगार पर खड़ा है। यह जिला नक्शे पर मौजूद होकर भी नीति और नीयत दोनों में अदृश्य होता जा रहा है। और अब शिवपुरी विकास से पहले एक ऐसा सवाल पूछ रहा है, जो केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि ऐतिहासिक और नीतिगत भी है “जब मेरे आसपास के जिले, यहाँ तक कि दूसरे राज्यों के जिले भी अपनी पहचान के साथ आगे बढ़ सकते हैं, तो मध्यप्रदेश का शिवपुरी क्यों नहीं?” जब तक इस प्रश्न का स्पष्ट, ईमानदार और आधिकारिक उत्तर नहीं मिलेगा, तब तक शिवपुरी सीमाओं के बीच फंसा हुआ वह रहस्य बना रहेगा जिसमें सबका प्रभाव है, पर जो सच में किसी का नहीं।

इसी तुलना से शिवपुरी का प्रश्न और भी गहरा, और भी बेचैन करने वाला हो जाता है कि गुना मालवा है, झांसी बुंदेलखंड है, ग्वालियर चंबल है… तो शिवपुरी आखिर क्या है?

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