शिवपुरी मेडिकल कॉलेज: इलाज नहीं, विवादों की फैक्ट्री
इस घटना से भी अधिक चिंताजनक वह दृश्य है, जो इसके बाद सामने आया। जब एक पत्रकार, अपने पेशेगत दायित्व का निर्वहन करते हुए, कॉलेज परिसर में सच्चाई को कैमरे में कैद करने पहुंचा, तो उसे सहयोग की जगह धमकियां मिलीं, मारपीट का सामना करना पड़ा और वीडियो डिलीट कराने का कथित षड्यंत्र रचा गया। यह सवाल केवल एक पत्रकार पर हमले का नहीं है, बल्कि यह सवाल है कि क्या शिवपुरी मेडिकल कॉलेज सच को दबाने की फैक्ट्री बन चुका है? क्या यहां घटनाओं का समाधान नहीं, बल्कि उनका दमन प्राथमिकता है? और क्या इस दमन में केवल कुछ छात्र ही नहीं, बल्कि प्रबंधन और स्टाफ की मौन या सक्रिय भूमिका भी शामिल है?
यह पहला मौका नहीं है जब मेडिकल कॉलेज सवालों के घेरे में आया हो। इससे पहले एक नर्स द्वारा आत्महत्या का प्रयास, पार्किंग विवाद में तोड़फोड़, शीशे फोड़ना, कुर्सी–टेबल तोड़ना, जनप्रतिनिधियों से टकराव, और अब लगातार सामने आती अव्यवस्थाएं ये सब किसी एक संयोग की ओर नहीं, बल्कि एक स्थायी अराजकता की ओर इशारा करती हैं। जब पूर्व विधायक जैसे जनप्रतिनिधि को भी यहां के स्टाफ और छात्रों की हठधर्मिता के आगे पीछे हटना पड़ा हो, तो आम मरीज और उनके परिजन किस हैसियत में गिने जाते होंगे, इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं है।
भ्रष्टाचार के आरोपों ने इस संस्थान की साख को और गहरा धक्का दिया है। आयुष्मान कार्ड के इंसेंटिव की राशि को लेकर डीन और वरिष्ठ अधिकारियों पर लोकायुक्त में शिकायत दर्ज होना केवल कानूनी मामला नहीं, बल्कि नैतिक पतन का प्रमाण है। जिन हाथों में जनता की सेहत और सरकारी योजनाओं की ईमानदारी सौंपी गई थी, वही हाथ यदि लाभ की गणना में उलझे मिलें, तो भरोसा कैसे बचे?
मरीजों की पीड़ा की कहानियां भी कम भयावह नहीं हैं। सामान्य प्रसव के दौरान नवजात की मौत और यह आरोप कि ड्यूटी पर तैनात डॉक्टर कमरे में सोती रहीं, जबकि नर्सों के भरोसे डिलीवरी कराई गई। यह लापरवाही नहीं, बल्कि अपराध की श्रेणी में आती है। SNCU जैसे संवेदनशील वार्ड में नवजात शिशुओं के बीच चूहे का दिखना और उसका वीडियो वायरल होना किसी भी सभ्य स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए शर्मनाक होना चाहिए। लेकिन यहां शर्म भी जैसे नियमित मेहमान बन चुकी है।
अब जनता यह सवाल पूछ रही है कि जिस संस्थान में पत्रकार और पुलिस के सामने डॉक्टरों और छात्रों का व्यवहार इतना असंवेदनशील और आक्रामक है, वहां भर्ती एक असहाय मरीज के साथ व्यवहार कैसा होता होगा? क्या सफेद कोट के भीतर संवेदना बची है, या केवल सत्ता का अहंकार और संरक्षण का भरोसा रह गया है?
इस पूरे घटनाक्रम में तथाकथित पत्रकार संगठनों की चुप्पी भी कम सवालों के घेरे में नहीं है। जो संगठन खुद को पत्रकार हितैषी बताते हैं, जो हर मंच पर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, वे इस मामले में क्यों नदारद हैं? क्या इसलिए कि यहां न लिफाफा है, न प्रेस कॉन्फ्रेंस, न चाय–नाश्ते की औपचारिकता? अगर पत्रकारिता का साथ केवल सुविधाओं और लाभों तक सीमित है, तो फिर सच के साथ खड़े होने का दावा किस आधार पर किया जाता है?
शिवपुरी मेडिकल कॉलेज आज केवल एक संस्थान नहीं, बल्कि एक चेतावनी बन चुका है उस व्यवस्था के लिए जो जवाबदेही से भागती है, उस प्रशासन के लिए जो आंखें मूंदे बैठा है, और उस समाज के लिए जो हर घटना को कुछ दिन की सनसनी मानकर भूल जाता है। आत्महत्या के प्रयास बार-बार क्यों हो रहे हैं? मानसिक दबाव, आंतरिक माहौल, प्रबंधन की भूमिका इन सवालों से कब तक बचा जाएगा? कठघरे में केवल एक कॉलेज नहीं, बल्कि पूरी निगरानी प्रणाली खड़ी है।
अब जरूरत आरोप–प्रत्यारोप की नहीं, बल्कि ईमानदार जांच, पारदर्शिता और जवाबदेही की है। वरना जिस मेडिकल कॉलेज को जीवन बचाने का केंद्र होना था, वह शिवपुरी के लिए केवल एक ऐसा अभिशाप बनकर रह जाएगा, जहां हर कुछ समय बाद कोई नया विवाद, कोई नई पीड़ा और कोई नई शर्मिंदगी जन्म लेती रहेगी और जनता पूछती रहेगी, सुनने वाला कोई नहीं होगा।

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