तिब्बत की अनूठी विरासत को बचाएं - ब्रह्म चेलानी

आज भी चीन के लिए दलाई लामा संस्था पर कब्जा, एक प्राथमिकता है, उसके द्वारा वह अपने तिब्बत अधिग्रहण के अधूरे काम को पूरा करना चाहता है ।

वृद्ध 14 वें दलाई लामा ने अपने खराब स्वास्थ्य के कारण, पुनर्जन्म की मान्य परंपरा से हटकर अपना उत्तराधिकारी एक महिला को अथवा अपने जीवित रहते ही किसी को नामित करने की संभावनाओं पर सार्वजनिक रूप से चर्चा की ।
पंचेन लामा के अपहरण की संभावना को टालने के लिए उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि उन्हें अंतिम दलाई लामा मान लिया जाए अथवा 15 वें दलाई लामा की खोज "मुक्त दुनिया" में की जाये – जैसे निर्वासित तिब्बती बंधुओं के बीच में या भारत में लद्दाख और तवांग के तिब्बती बौद्ध मठों में । हालांकि अभी भी उन्होंने पुनर्जन्म पर कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी नहीं किया है, केवल सवाल उठाये हैं – हो सकता है यह उनकी सोची समझी रणनीति हो, अथवा संभावित जोखिम पर उनकी झिझक |
फिर भी, चीन के मंसूबे कामयाब होना और अगले दलाई लामा के रूप में किसी कठपुतली को स्थापित करना कठिन है | अधिकाँश तिब्बती चीन द्वारा नियुक्त पंचेन लामा को नकली मानकर घृणा से देखते हैं | इसे देखते हुए बीजिंग को अपने द्वारा नियुक्त दलाई लामा स्वीकार्य बनाना उतना आसान नहीं होगा। यह उनकी बड़ी समस्या है, हालांकि संभावना कुछ भी हो सकती है ।
वर्तमान दलाई लामा की नीति अहिंसा व मध्यमार्ग की रही है | उन्होंने हमेशा बातचीत के जरिए समाधान खोजा व तिब्बत की स्वायत्तता की मांग उठाई | इसी कारण चीनी शासन को शांतिपूर्ण तिब्बती प्रतिरोध का ही सामना करना पड़ा । लेकिन यह आंदोलन हमेशा शांतिपूर्ण रहेगा या केवल स्वायत्तता की मांग रहेगी, यह नहीं कहा जा सकता । दलाई लामा की मृत्यु के बाद तिब्बत मुद्दे को हल करने के लिए उनका यह "मध्यम मार्ग" दृष्टिकोण और सार्थक स्वायत्तता मानने और सुलह की प्रक्रिया का अवसर समाप्त हो जाने की संभावना है।
बिना पतवार के तिब्बती प्रतिरोध आंदोलन क्षेत्र में अधिक से अधिक अशांति फैलाएगा | चीन द्वारा उसे शांत करने की कोशिश उलटे ईंधन का काम करेगी ।
तिब्बतियों द्वारा चुना जाने वाला 15 वां दलाई लामा एक छोटा सा बच्चा होगा जो बीजिंग द्वारा नियुक्त कठपुतली का स्थान लेगा । यह लगभग बैसी ही नेतृत्व शून्यता की स्थिति होगी जैसी कि 1933 में 13 वें दलाई लामा के निधन के बाद बनी थी, जब वर्तमान दलाई लामा सिर्फ 15 वर्ष के थे और 1950 में चीन ने तिब्बत पर आक्रमण कर कब्जा किया व उसका शोषण किया ।
तिब्बती पदानुक्रम में भावी सत्ता निर्वात संभवतः दलाई लामा वंश के भाग्य, तिब्बत की नियति को आकार देने और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण दूरगामी प्रभाव वाला हो सकता है।
तिब्बत में चीन की कार्रवाई से किसी भी अन्य देश की तुलना में भारत के सम्मुख ज्यादा बड़ी चुनौती खड़ी होगी, नई दिल्ली को केवल मात्र दर्शक नहीं रह जाना चाहिए। भारत दलाई लामा सहित निर्वासित तिब्बती सरकार और एक बड़े निर्वासित तिब्बती समुदाय का घर भी है | इतना ही नहीं तो तिब्बती पठार पर होने वाली चीन की गतिविधियों का सीधा प्रभाव भारत पर होता है | भारत और तिब्बत का भविष्य परस्पर जुड़ा हुआ है।
चीन के खिलाफ भारत के लिए तिब्बत बैसा ही है जैसा भारत के खिलाफ चीन के लिए पाकिस्तान । लेकिन तिब्बत कार्ड खेलने को लेकर भारत हिचकिचाता रहा जबकि इसके विपरीत बीजिंग ने भारत के खिलाफ पाकिस्तान कार्ड खेलने में कोई कोताही नहीं की | उसने उपमहाद्वीप में सैन्य और परमाणु संतुलन के रूप में पाकिस्तान को खड़ा कर दिया, बीजिंग का कश्मीर कार्ड भी भारत को अत्यधिक बचाव की मुद्रा में ले आता है।
चीन राजनीतिक रूप से भारत के खिलाफ पाकिस्तानी आतंकवाद की ढाल भी बन जाता है | उदाहरण के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में नामित आतंकवादी जकी उर रहमान लखवी की रिहाई को लेकर उसने पाकिस्तान के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र की कार्रवाई ब्लॉक कर दी | भारत के उत्तर पूर्व में उग्रवादी समूहों के साथ तो उसका स्वयं का सीधा सम्बन्ध है | वह म्यांमार के मार्ग से उन्हें हथियार देकर संगठित भी करता है और प्रोत्साहित भी ।
केवल तिब्बत ही भारत के लिए एक महत्वपूर्ण शस्त्र है, जिसके माध्यम से वह सबल चीन से पार पा सकता है | म्यांमार, बांग्लादेश, तिब्बत और भूटान के बीच सेंडबिच बना भारत का उत्तरपूर्वी भू भाग अगर आतंकवाद प्रादेशिक, नदी-जल और भू राजनीतिक यथास्थिति में फेरबदल, और भड़काऊ चीनी गतिविधियों पर लगाम तभी लगेगी, जब भारत तिब्बत को लेकर अपनी रणनीति पुनर्नियोजित करेगा । अभी तो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने बीजिंग के साथ संयुक्त बयान में चीन के हिस्से के रूप में तिब्बत का जिक्र किया है | यह दुर्भाग्य नहीं तो क्या है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वह शुरू कर दिया है जो उनके पूर्ववर्ती तथाकथित "कमज़ोर" मनमोहन सिंह ने 2010 के बाद से रोक दिया था ।
भारत के साथ बफर स्टेट के रूप में तिब्बत की समाप्ति के बाद दिलों में चीन-भारत विभाजन हो गया है। जब तक बीजिंग वहाँ सुलह और मरहम के कार्य नहीं करेगा, तब तक यह ऐसा ही रहेगा।
मोदी की विदेश नीति गतिशील भी है, दूरंदेशी भी | यह देखते हुए आशा की जानी चाहिए कि वे धीरे-धीरे पर खुले तौर पर तिब्बत के मुद्दे को ताकत से उठायेंगे व वहां चीनी कब्जे को चुनौती देंगे, जैसा कि चीन भारत के इलाके अपने बताकर भारत की संप्रभुता व क्षेत्रीय अखंडता को लगातार चुनौती देता आ रहा है | भारत को चाहिए कि वह तिब्बत के लोगों की आवाज बने | तिब्बत पर विस्तारवादी चीन द्वारा 1950 के दशक में किये गये कब्जे व चीनी आधिपत्य को भारत की ढीठ स्वीकृति से प्रोत्साहन मिलता है।
दलाई लामा भारत की रणनीतिक पूंजी ही नहीं, बल्कि तुरुप का इक्का है। यदि भारत स्वयं की सुरक्षा की दृष्टि से तिब्बत का लाभ उठाना चाहता है तो उसे अगले दलाई लामा की खोज और उसकी नियुक्ति की तिब्बती प्रक्रिया की धुरी बनकर कार्य करने की योजना बनानी चाहिए।


तिब्बत में बने चीन के विशाल बांध, खदानें और सैन्य गतिविधियां तेजी से एशिया के पर्यावरण और सुरक्षा को प्रभावित कर रही हैं, दुनिया के प्रमुख लोकतांत्रिक देश होने के नाते भारत को विलुप्त होने के कगार पर पहुंचे तिब्बती पठार की अनूठी विरासत को बचाने में मदद करना ही चाहिए और उसके लिए विचार पूर्वक अपनी भूमिका सुनिश्चित करना चाहिए।

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