हमारे परमानंद का साधन



कभी भूत की स्मृतियों का गान 
कभी भविष्य का रम्य भान
इनमें खो जाता है वर्तमान

जो बीत गया कल, कभी नहीं आएगा
उसकी यादों मैं आज भी खो जाएगा

मन जो चला गया उसके लिए रोता है,
जो आया नहीं उसके स्वप्न संजोता है,
परन्तु वर्तमान को गढ़ता नहीं, सोता है
सत्कर्मों की फसल काट दुष्कर्म बोता है

नश्वर में छुपे अनश्वर को जान नहीं पाता है,
देह मरती है, मन कहाँ मर पाता है |
वासनाओं में जकड़ा मृत देह के साथ,
दूसरी देह की रचना में जुट जाता है ||

मन तो है मतवाले हाथी के समान,
रास आती धूलि, कैसा गंगा स्नान |
संत वचन, संत संग निष्प्रभावी प्रभो,
आप ही दें विवेक अंकुश का वरदान ||

प्रभो इस मन को सुमन बनाओ,
मेरे द्वार आओ |
विवेक अंकुश से सधे मन मतंग पर,
सिंहासन सजाओ ||

मेरे मन | तेरी विनय करते करते सब थक जाते हैं, पर तू अपनी चंचलता नहीं छोड़ता, कुचाल नहीं छोड़ता और कुसंग भी नहीं छोड़ता | जितनी द्रढता से, इन सभी को तू गहे है, वह द्रढता - तू प्रभु स्मरण - प्रभु अर्चन में क्यों नहीं लगाता ? तू प्रवृत्ति से ही कुसंगी है क्या ? फिर तू सत्संग की कामना क्यों करता है ? तेरा मूल स्वभाव कुसंग की ओर नहीं है, तू आदत का शिकार हो रहा है | उसे छोड़ और देख - तेरा मूल स्वभाव सत का संग करने का है - तभी तो क्षण मात्र की सत्संग की शीतल वयार, तुझे प्रफुल्लित कर जाती है | अतएव मेरे मन - विनय मान | संत संग कर |
 मेरे मन ! तुझे कैसे मनाऊँ ? तू जानकर भी अनजान बनता है | सोते हुए को तो जगाना संभव है, पर जो जागते हुए भी, सोने का स्वांग किये पड़ा हो, जिसमें सचाई से जी चुराना हो, उसे कैसे जगाया जाए ? तुझे मालुम है मेरा कल्याण - तुम्हें ही साधना है, जीवन रथ को तुमने ही अंतिम गंतव्य तक सुरक्षित ले चलना है - मार्ग से विचलित नहीं होने देना - रथ के घोड़े भले ही, (इन्द्रियाँ) भटकना चाहें - उन्हें संयमित करना है - यह जानते हुए भी तुम जब उन्हें - शिथिल छोड़ देते हो - इतना ही नहीं - उनके साथ, तुम भी - चित्त को उन विषयों में लगा देते हो - तो कल्याण कैसे होगा ? गंतव्य पर यह जीवन रथ सुरक्षित कैसे पहुंचेगा ? विनाश इसका गंतव्य नहीं - प्रभु चरणों में विलय इसका गंतव्य है | मेरे मन -- सावध हो सजग रह - द्रढता से बढाता चल इस रथ को |
 मेरे मन ! तुम बड़े चपल हो | तुमसे कहा सजग रहो, और तुम कहते हो कि, तुमने जग कहाँ छोड़ा, तुम स - जग ही हो, तुम जग के साथ हो | यह अर्थ का अनर्थ क्यों करते हो ? जग का अर्थ सावधान रहने से, जागृत रहने से था और तुमने उसका अर्थ जग के रंग में रंगने से लिया | अरे मेरे मन, इस जग के अजब रंग और गजब ढंग हैं | तुम इनमें कितने ही डुबो, उतराओ - पर तुम पार उतरने बाले नहीं | ये जग तुम्हें लहूलुहान कर छोड़ेगा - और तुम्हारे रोने बिलखने पर हंसेगा | तू जग हंसाई क्यों कराना चाहता है ? जग में अन्यों की पीड़ा देख हँसना बुरा है - मेरे मन | अगर रंगना है तो प्रभु रंग में रंग - उसके प्रेम का रंग एक बार चढ़ा कि, उसपर दूसरा कोई रंग नहीं चढ़ सकता और दुनिया के सारे धोबी लगातार उसे धोएं तो भी वह उतर नहीं सकता - हर घड़ी निखरता ही रहता है | उस रंग का - श्रीरंग का प्रेमी बन | फिर यह जग तेरे साथ भी रहे तू तेरी कथनी के अनुसार सजग भी रहे - तो भी चलेगा | क्योंकि तब जगन्नाथ का हाथ तेरे सर पर होगा |
 मेरे मन ! जग, स्वप्न न देख, सोया शरीर जागता है, पर सोया मन, सोया रहता है, कभी भूत की स्मृतियों में, और कभी भविष्य के मनोरथों में | उसे इन दोनों अवस्थाओं में - एसा लगता है कि, वह जाग रहा है - पर वास्तव में वह जो विद्यमान है, वर्त्तमान है, उसे खो रहा होता है | अतएव मेरे मन, जो जा चुका वह न आएगा, तू उसे कितना ही सजीव बनाकर स्मरण कर - वह जा चुका है, और उसके लिए तू आज को भी खो रहा है | उसे साध - उसे सफल बना - साधना कर - प्रभु आराधना कर | उसे ही जागना कहेंगे - सजग रहना कहेंगे |
 मेरे मन ! जिसने जगत की स्थिति को समझा - उसने प्रभु की माया को समझने का प्रयास किया | जगत, सतत है - जाता रहता है, आता रहता है | जो अभी है, अगले क्षण नहीं होगा - प्रवाहमान, परिवर्तन शील है - इसलिए ही जगत है | जो इस जगत की ईश तत्व में स्थिति, उत्पत्ति, एवं व्याप्ति को जान जाता है, जिसे इस बात का बोध हो जाता है कि इस ईश तत्व की माया ही, क्षण प्रतिक्षण नव नवीन रूपों में उपस्थित होती है - वह - मायापति - ईश्वर - इसमें तथा इसके अंतर वाह्य सर्वत्र ओत प्रोत हुआ - स्थिर, अपरिवर्तित - विद्यमान रहता है - वह स्वयं होने के 'अहंकार' से, स्वयं के कर्ता भाव से मुक्त हुआ - उस प्रभु की लीला में लीन हो जाता है - और उस लीला में तल्लीन होकर - उसकी लीलाओं का वर्णन करता है, उसमें रस लेता है तथा उसी में समा जाने की आस से - इस जगत का विश्वास नहीं करता | जगत से उदास - ईश्वर का दास बनकर रहता है | मेरे मन - जगत से उदास ईश्वर का दास बनकर रह | तुझे निराश नहीं करेगा वह प्रभु - तेरे पास रहेगा |
 मेरे मन ! जगत से उदास होने की बात तुझे रास नहीं आती | जगत से तेरा जुड़ाव, छोड़े नहीं छूटता | यह सच है, क्यों कि तू अभी इस नश्वर जगत में व्याप्त अनश्वर - ईश तत्व को जान नहीं पाया है | उसे जानना हो, तो जिस देहात्म भाव से, तू अभिभूत है, उससे मुक्त होना होगा | देह जन्मती है, और देह मरती है - मेरे मन पर तू मरता है क्या ? देह भाव के कारण - देह की मृत्यु को तू ओढ़ लेता है - और भयभीत रहता है मृत्यु से | जहां देहात्म भाव छूटा - वहां तुझे बोध होगा कि, देह में जो आया था और देह से जो चला गया - तू उस गतिमान चैतन्य का साथी है | देह मरती है - मन नहीं मरता | मन तू वासनाओं से चिपटा - दूसरी देह की रचना में जुट जाता है | यदि तू इन वासनाओं को छोड़ दे - तो तुझे जन्म मरण के चक्र से छुटकारा मिल जाएगा | तब तू शुद्ध चैतन्य - आत्म भाव को प्राप्त होगा | जो न आती है न जाती है - पञ्च - पञ्च तत्वों (पच्चीस) को आश्रय देती है - तथा उनके आश्रय से ही प्रकाशित होती है | जो सनातन, निरंजन, निर्भय है - वही तू है - मेरे मन | यह अनुभव तुझे कब होगा, जब तू अपने इष्टदेव में इसे देखेगा | उसमें विलीन होगा | उससे विभक्त नहीं होगा | उसका भक्त होगा | मेरे मन, भक्त बन | उसी में रम |
 मेरे मन ! भक्त बनने की विनय तू सुनकर छोड़ देता है, उसे स्वीकार नहीं करता | यदि क्षण भर के लिए स्वीकार भी करता है, तो उसपर आचार नहीं करता | 'आचार' करने की चाह तू करता है, जब तू अपने मनोरथ को, तेरी सारी कोशिशों के वाबजूद, ढहते देखता है | तब पछताता है, और लाचार होकर भक्तिमार्ग पर चलने का - आचार - करने का विचार भर कर रह जाता है | पुनः तेरी चंचलता तुझे - इन्द्रिय सुखों के पीछे घसीट लेती है - और तू विसार देता है - अपने इष्टदेव को - उसके प्रति भक्तिभाव को | एसे तो काम बनेगा नहीं | पछतावा बीते की भरपाई नहीं करता | तुझे आगे की सुधी लेनी होगी, मेरे मन | सु - धी - उत्तम बुद्धि - सत संकल्प पर दृढ रहो मेरे मन | तब ही तुम भक्त बन सकोगे | मेरे मन ! सु धी धारण करो | प्रभु चरणों का वरण करो |
 मेरे मन ! सु धी - अच्छी बुद्धि तेरी इच्छा पर निर्भर है | तू ही कु - बुद्धि का आश्रय लेता है, और तू ही आश्रय लेने से कतराता है - सद बुद्धि का | क्योंकि तेरी वासना फल में रहती है | "फल" के लालच में, जिसे तू लुभावना मानता है - दुष्कर्म में प्रवृत्त होता है - सदबुद्धि तुझे वर्जित करती है, तब तू उसे अनसुना कर देता है, और कुबुद्धि से, वर्जित कर्म में प्रवृत्त होता है, अतएव पछताता है - असंतुष्ट रहता है | जब कभी तू 'फल' की लालसा न रखकर, सद्बुद्धि से प्रेरित हो - सत्कर्म करता है - भले ही फल कड़वा हो - उसमें संतोष करता है - तब तुझे एक अपूर्व आनंद का अनुभव होता है | यह तुम जानते हो | अतएव इश्वर भक्त को बहुत कुछ खोकर भी - इश्वर भक्ति का आनंद मिलता है - जो सब कुछ है | और जिसने कुछ पाने के लिए - जगत के सर्वस्व - जगत के अधिष्ठाता - इश्वर की उपेक्षा की - वह सदा उपेक्षित ही रहता है | मेरे मन, इश्वर की निरपेक्ष भक्ति में रमा रह | वह तुम्हें अपने में समा लेगा, भक्त बना लेगा |
 मेरे मन ! एक बार, और बारम्वार, समझाने पर भी, तुझे प्रभु चरणों की सेवा की चाह नहीं जागती | उसकी कृपालुता का विश्वास नहीं होता | पर तू स्वयं पर भी विश्वास कर सकता है क्या ? तेरे किये क्या होता है ? तू अपने आप पर ही नियंत्रण कर देख, नहीं, वह भी तेरे लिए संभव नहीं लगता | तुझे, तुझ पर ही विश्वास नहीं | फिर इस जगत का क्या विश्वास ? क्यों तू इसके सहारे रहकर डूबने चला है ? इस जगत को, और तुझे भी, स्वयं के इंगित पर नचाने बाले, रचाने बाले - और विरचाने बाले - उस प्रभु काही विश्वास किया जा सकता है | डूबना ही है - तो - नश्वर जग में डूबने से अच्छा है - अनश्वर, अनंत, प्रभु में डुबो - उसमें विलीन हो जाओ | मन तुम उसमें विलीन हुए - और सर्वत्र उसीका वास है - यह तुम्हारे अनुभव में आएगा | तुम - इसी में - मेरा और अपना कल्याण जानो | मन मुझे प्रभु भक्ति में डुबो दो, रंग दो, मेरा साथ दो !
 प्रभो ! यह मन बड़ा हठी है | इसे मनाओ - और मनाते ही रहो - यह मानता ही नहीं - अपनी चंचलता - अपनी जगत में लिप्तता - से विमुख ही नहीं होना चाहता | मन स्वयं का मैल धोने के लिए तैयार ही नहीं होता | उसे संत संग - संत वचन - के निर्मल जल से कितनी ही बार नहलाया परन्तु - वह पुनः पुनः मन मन भर मैल इकठ्ठा कर लेता है | गंगा नहाए मतवाले हाथी के समान - धूलि स्नान ही उसे भाता है | प्रभो - मतवाले हाथी के समान इस मतवाले मन को मनाने से काम नहीं चलता | इसे तो विवेक के अंकुश की मार ही - मार्ग पर ला सकती है | प्रभो - आप स्वामी हैं - मुझ दास को आपने - यह मन मैमता की देखभाल करने का काम सोंपा है - उसे काबू करने के साधन भी आप ही दें - विवेक दें | जिससे उसे वश में कर आपकी सवारी के लिए प्रस्तुत कर सकूं | प्रभो - आप उस पर विराजें - तभी वह सीधी चाल चलेगा | प्रभो - मन में आ विराजो | मन तभी मानेगा |
 प्रभो ! तुम ही कहते हो कि, तुम्हारे चरणों में मन लगाना, तुम्हें ही मन में बसाना, और तुम्हें ही मन सुमन समर्पित करना चाहिए | एसा जो करेगा उसकी चिंता तुम करोगे | प्रभो - मन में तुम्हारा ही वास है | तुम ही मनुष्य को - उसके मन में रहते हुए - उसे कर्म करने के लिए विवश करते हो | फिर मनुष्य की ओर कर्ता भाव क्यों सोंपना चाहते हो ? क्यों कहते हो कि - मन तुम्हें सोंपना चाहिए, मन में तुम्हें विराजबाना चाहिए ? कौन सोंपेगा ? कौन विराजबायेगा ? जो कर्ता होगा वही न करेगा ये सब काम ? तुम्ही कर्ता हो - हम तो तुम्हारे उपकरण मात्र हैं | उपकरण की इच्छा नहीं होती - इच्छा कर्ता की होती है - अतएव प्रभु मन में आकर विराजना - आपकी इच्छा पर निर्भर है - उसे निर्मल तथा अविचल बनबाना आपकी इच्छा पर निर्भर है | प्रभु आपकी माया को समेट कर - मन - को सुमन बनाओ - और स्वीकार कर - उसे अनुग्रहीत करो | प्रभु अनुग्रहित करो |
 प्रभो ! तुम कहते हो कि, तुम कोई मुक्ति के सौदागर नहीं हो, जो मुक्ति की पोटरी सर पर रखकर दर दर बेचता, बांटता फिरता है | जिसे मुक्ति चाहिए, उसे अपनी इन्द्रियों को समेटना होगा | मन को संयमित और स्थिर करना होगा | उसे संकल्प विकल्प की चंचलता से अलग करना होगा | विरक्त बनना होगा | जिसने एसा मन को बनाया उसका - समभाव - मन को निर्मलता प्रदान करेगा | यह सब अभ्यास से साधा जा सकता है | उस भक्त की दासी मुक्ति होगी - जिसने सब तरह से भगवान को - तुम्हें - सब कुछ समर्पित कर दिया | एसा भक्त - मुक्ति का नहीं - भक्ति का - भगवत्कृपा का दीवाना होता है - और भगवान तुम भी उसके सर्वस्व होते हो | मुक्ति के सौदागर नहीं - प्रेमाभक्ति के दाता - आदाता - तथा प्राप्ता होते हो | तुम्हारी यह बात मानता हूँ | पर यह सब तभी सम्भव है - जब तुम - यह सब स्वयं - सिखा, दिखाकर करबा लो | मैं तो आपकी उंगली पकड़कर - जगत के पथ पर डगमग डगमग चल पड़ा हूँ | आपका आश्रय ही मेरा श्रेय प्रेय है | प्रभो !
 प्रभो ! तुम ही कहते हो कि, जिसने 'अहंकार' वश तुम्हारी इच्छा के विपरीत चलने का प्रयास किया, वह, दुःख का भागी होगा | उसे तुम स्वयं, उसके मन में वास कर - तुम्हारी इच्छा के अनुकूल व्यवहार करने के लिए - विवश करबाते हो | वह तुम्हारी माया का पार नहीं पा सकता | परन्तु जब वह कर्ता नहीं है - तुम ही करबाने बाले हो - तो उसमें कर्तापन का 'अहं' भाव क्योंकर प्रकट करवाते हो ? तुम चाहो - तो - जीव के मन में - अहं का सर्वथा अभाव भी कर सकते हो | अतएव प्रभो - मैं नहीं हूँ - तुम ही हो - यह दृढ भाव धारण कर विनय है - कि तुम अपनी माया की मय नगरी से पार पाने का मार्ग दिखाओ - पग पग पर, लड़खड़ाकर गिरते उठते - इस तुम्हारे दास को - उदास न करो | उसे अपना सुदास बनाकर - उसकी सेवा स्वीकार करो | प्रभो - उसे अनुग्रहीत करो |
 प्रभो ! तुम अपने दासों के रक्षक हो | यह सच है | तुम्हारे दास तुम्हें प्रिय हैं | तुम्हारे दासों के मल, तुम्हारे वास से पवित्र हो जाते हैं | निर्विकार, निर्मल मन, बनाने के लिए, तुमने अपने नाम जप का अमोघ अस्त्र अपने दासों को सोंपा है | उस अस्त्र से दास - दस इन्द्रियों को साधकर, तुम्हारी सेवा करता है | जिसने नाम स्मरण का अस्त्र छोड़ा - उसे दस इन्द्रियों का घोडा भटका कर ले जाता है | प्रभो ये दस इन्द्रिय - तब मित्र भाव छोड़कर शत्रु बन जाते हैं | उन्हें वश में कर मित्र बनाने का उपाय ही - तुम्हारा नाम स्मरण है | प्रभो, तुम्हारा नाम संकीर्तन - मन में सदा गूंजता रहे | यही प्रार्थना है - प्रभो | तुम्हारी कृपा से ही यह सम्भव है | प्रभो अनुग्रहीत करो | नाम जप रूप में चित्त में विराजित रहो |
 प्रभो ! तुम्हारी मंगलमय इच्छा की पूर्ती का मैं उपकरण बन सकूं, यही विनय है | इस विनय को, तुम अवश्य स्वीकार करो | तुम्हारी कृपा के सिवा - इस कर्तव्य का निर्वाह कठिन हो रहा है | प्रभो - तुम्हारी इच्छा की पूर्ती, से दूर दूर भटका ले जाने का प्रयत्न, इन इन्द्रियों तथा मन का रहता है | उनसे पार पाना - तुम्हारी कृपा के सिवा असंभव है | वे तुम्हारी माया से प्रेरित हैं | उनके पीछे माया का बल है - अतएव मैं अपने आप को निर्बल पाता हूँ | मेरा संबल तो तुम ही हो प्रभो | इनसे पार उबारो | अपनी कृपा का आधार दो प्रभो | आधार दो !
 प्रभो ! तुमसे प्रार्थना न करूं, तो किसके पास जाऊं ? तुम कहते हो कि तुम, वह सभी दे चुके हो जो देना उचित था | माँ के गर्भ में पोषण किया, जन्मते ही आहार हेतु दूध दिया, स्वांस हेतु वायु दी, प्रकाश दिया, भू का आधार दिया | जो भी आवश्यक है सब मिलेगा - इसका विश्वास करूं - और याचना करना बंद कर दूं | यह सच है प्रभू - तुम जीव मात्र की आवश्यकता की पूर्ती करते हो, फिर भी तुमसे याचना करना मनुष्य छोड़ता नहीं है | क्योंकि तुम्हारी माया मन को भरमाती रहती है, उसे तृप्त संतुष्ट होने नहीं देती | इसलिए केवल एक ही याचना है प्रभो - तुम अपनी भक्ति का आधार दो | सभी याचनाओं से मुख मोड़ लेने की शक्ति दो | एक तुम्हारे गुणगान - और दर्शन की आस बनी रहे | उसी आश्रय से तुम हमें अनुग्रहीत करोगे प्रभो | अतएव यही प्रार्थना है - याचना है कि, तुम्हारे सिवा अन्य सब विस्मृत हो जावे | केवल तुम्हारा स्मरण रहे | "मैं" न रहे - तुम और तुम्हारा आनंद रहे | प्रभो ! तुम्हारा आनंद रहे !
 प्रभो ! जहां तुम्हारे आनंद का आधार मिला - वहां और मिलने के लिए रहा ही क्या ? 'आनंद' की भूख ही तो सभी चाहों को जन्म देती है | यदि वह भूख तृप्त हो गयी - 'आनंद' मय जीवन है - इसका विश्वास हो गया | और - प्रभो - तुम स्वयं आनंद स्वरुप हो - इसका ज्ञान हो गया - अनुभूति हो गयी - वहीं भक्त को - जगतमय स्वरुप में साक्षात्कार हो जाता है - वह सर्वत्र तुम्हारा - आनंदमय रूप अनुभव करता है - और स्वयं आनंदमय हो जाता है | अतएव प्रभो - तुमसे वारंवार विनय है कि - अपने आनंदमय रूप में - मुझे समेट लो - विलीन कर लो | एक तुम्हारा ही अस्तित्व सर्वत्र अनुभव हो, स्पंदित हो |
 प्रभो ! सर्वत्र स्पंदित होने बाला जीवन - तुम्हारी लीला का स्पंदन है | प्रातः फूटने बाली उषा की लालिमा - अरुणोदय की आभा, उसके साथ उठने बाली चिड़ियों की चहक, खिलती कलियों की महक, उनपर मंडराती मधुमक्खियों का गुंजन - सूर्योदय के साथ सृजन का सतत चलने बाला क्रम, इस प्रथ्वीतल पर प्रतिक्षण अविरल चलता रहता है - रूप बदलता रहता है | न रजनी में विराम है न दिन में आराम है | अविराम चलती है राम, तुम्हारी यह लीला | उस लीला का रस लेना - तुम्हारी लीला की स्वयं को एक तरंग जानना - इस जीवन को रंगीन बना देता है | अतएव जीवन के इस स्पंदन के साथ एक रसरंग कर हे श्रीरंग - तुम्हारा अंग मैं बन जाऊं - ऐसी कृपा करो | "मैं" मैं न रहूँ - तुम्हारे चरणों की रज बन जाऊं - तुम्हारा दास कहाऊँ - तुम्हारी सेवकाई ही मेरा जीवन हो - मेरे ह्रदय का स्पंदन बने | यही प्रार्थना है प्रभो | अवश्य स्वीकार करो |
 प्रभो ! हर धड़कन गति की वोधक है | जीवन धड़कन के साथ गतिमान होता है | बढ़ता है और विखर जाता है | बनते विखरते जीवन को देखकर भी, इस जीवन के दाता - तुम्हारे प्रति जीव - क्वचित ही उन्मुख होता है | जो चला गया उसके लिए रोता है, और जो आया नहीं उसके स्वप्न संजोता है, परन्तु वर्तमान को गढ़ता नहीं, सोता है | यही जीव की विडम्बना है | उसे इसमें से उबरना है - तो उसे आज जागना होगा - वर्तमान को गढ़ना होगा - तुम्हारे चरणों में उसे सोंपना होगा | न बीते के लिए रोना होगा, न अनागत के लिए तरसना होगा | केवल एक तुम्हारी सेवकाई में ही हर क्षण - हर पल - पलक पांवड़े बिछाकर - जुटना होगा | यही तुम्हारी आज्ञा है, प्रभो | उसका पालन इस देह से होवे यही प्रार्थना है प्रभो | सेवकाई में कोताही न हो - ऐसी बुद्धि दो प्रभो | बुद्धि दो !
 प्रभो ! बुद्धि हमें मिली है, आपने दी है, उस बुद्धि का हम दुरुपयोग करते हैं | इन्द्रिय सुखों की प्राप्ति हेतु, धन संचय करने हेतु, अनुचित उपायों की खोज में बुद्धि खपा देते हैं | अनुचित आचरण को उचित सिद्ध करने में ही बुद्धि विलास एवं कौशल मानते हैं | इस कारण ही, बुद्धि यम धार के समान - हमें यम द्वार तक पहुंचाती है | इसी बुद्धि को तुम्हारे चरणों में बसाने की दृढ इच्छाशक्ति, तथा विवेक दो प्रभो | जिसकी सहायता से - तुम्हारी सेवकाई का निर्वाह, निर्विघ्न पूरी तरह कर सकूं | प्रभू इस हेतु आप विवेक रूप बन, मेरे मन बुद्धि में विराजें | अपने सेवक को नवाजें | उसका निहोरा स्वीकारें | उसकी ओर कृपा दृष्टि से निहारें | प्रभो सभी दुर्गुण निवारिये |
 प्रभो ! तुम पूछते हो कि सभी दुर्गुणों के घर क्यों बनते हो ? उनसे दूर क्यों नहीं रहते ? सद्गुण और दुर्गुण को पहचानने का विवेक तुम्हें है | तुम पहचानते भी हो | और पहचान कर भी - बुद्धि पुरस्सर - लोभ, लालच, भयवश - दुर्गुणों को ही अपनाते हो, तब प्रभु क्या करेंगे ? तुम्हारी स्वतंत्र इच्छा का विवेक पूर्वक - धैर्य और संयम पूर्वक विनियोग क्यों नहीं करते ? प्रभो आपकी यह उदारता - आपके इन दीन खिलौनों को बहुत ही दया की देन हैं | हम अपराधी हैं | अपने अपराधों पर पछताते हैं | आप हमें क्षमा करें | हमारे अपराधों को दूर करें | हम आपकी आराधना में रम सकें, रस ले सकें - ऐसी सुबुद्धि दीजिये भगवन | कृपा कीजिये - शरणागत को शरण लीजिये - अपने खिलौने को आप संवारिये - संभालिये - आपके आनंद का एक विन्दु बना लीजिये | आपके आनंद का साधन बनना ही - हमारे लिए परमानंद का साधन है | प्रभो - आप स्वयं उसके स्त्रोत हैं | अतएव संपूर्णतः आपमें लीन करलें प्रभो - विलीन कर लें
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