भारत विभाजन की व्यथा-कथा - स्व.श्री कुप.सी. सुदर्शन (भाग 3)




जनवरी 1946 को दस सदस्यीय ब्रिटिश सांसदों का प्रतिनिधि मंडल भारत आया और प्रमुख नेताओं से मिला। जनवरी 25 को वह महात्मा गांधी से मिला और फरवरी 10 को इंग्लैण्ड लौट गया। 17 फरवरी महात्मा गांधी मुम्बई लौटे। उन दिनों भारत में ब्रिटिश विरोधी भावनाएँ अपनी चरम पर थीं। साथ ही भारतीय नौ सेना व वायु सेना में प्रश्न खड़ा हुआ कि-‘‘ब्रिटिश सेनाएँ तो अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए लड़ रहीं है, हम किसके लिए लड़ रहे हैं ? और परिणामस्वरूप भारतीय नौ-सेना दल में मुंबई में और भारतीय वायुसेना दल में दिल्ली में 17-18 फरवरी को विद्रोह की आग भड़क उठी। अँग्र्रेजों ने शाही भारतीय सेना को उन पर गोली चलाने के लिए कहा तो अपने नौ सैनिक भाईयों पर गोली चलाने से उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। अँग्रेजों का भारतीय सेना पर कोई नियंत्रण नहीं रहा। उन्होंने सोचा कि जिस सेना के बलबूते पर आज तक हम इस देश पर राज्य करते आए हैं वही जब हमारे विरुद्ध हो गई तो हमारे दिन कितने बचे हैं ? उन्होंने गुपचुप सेना में एक रायशुमारी ली जिसमें पूछा गया कि आजाद हिन्द फौज के जिन लोगों पर दिल्ली के लाल किले में जो मुकदमा चल रहा है वह चलना चाहिए या नहीं ? 80 फीसदी जवानों ने कहा कि-‘‘नहीं चलना चाहिए, हम भी वहाँ होते तो यही करते।’’ अँग्रेजों ने भारत छोड़ने का मन बना लिया।

दूसरे ही दिन ब्रिटिश सरकार के भारतीय मामलों के सचिव लार्ड पैथिक लारेंस ने घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार तीन लोगों का एक प्रतिनिधि मंडल भारत भेज रही है जो भारतीय नेताओं से प्रत्यक्ष मिलकर वहीं निश्चित करेगी कि वहाँ जो राजनैतिक गतिरोध पैदा हो गया है उसे कैसे दूर किया जाय। प्रतिनिधि मंडल के सदस्य थे-लार्ड पैथिक लारेंस, ए.बी.एलैक्जेण्डर और वे स्वयं। सरदार बल्लभ भाई पटेल तथा जवाहर लाल नेहरू ने सेना के विद्रोहियों को बिना शर्त आत्मसमर्पण कर देने के लिए कहा जो उन्होंने किया। मार्च 3- 1946 के हरिजन में महात्मा गांधी जी ने क्रोध पूर्वक लिखा-‘‘जिन्होंने विद्रोहियों को उकसाया वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं ? उन सबको अंत में समर्पण करना ही होगा। इस कारण ब्रिटिशों का भारत छोड़ना और बिलंबित हो जाएगा।’’ 

मार्च 1946 के मध्य में हुए प्रांतीय चुनाव में काँग्रेस को भारी सफलता मिली जिसने राय सावरकर और अम्बेडकर के दलों को पूरी तरह समाप्त कर दिया। लीग को 507 मुस्लिम विधानसभा क्षेत्रों में से 427 क्षेत्रों में विजय मिली और 74 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। केवल मुस्लिम बहुल पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में खान बन्धुओं के कारण उसे पराजय मिली। कुछ ही दिन बाद काँग्रेस ने 11 प्रांतों मे से आठ में अपना मंत्रिमंडल बना लिया। मुस्लिम लीग ने बंगाल और सिंध में अपना मंत्रिमंडल बनाया। पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी ने काँग्रेस की सहायता से अपना मंत्रिमंडल बनाया। महात्मा गांधी मार्च 11 को पुणे से मुंबई आए और मार्च 12 से 16 तक हुई काँग्रेस कार्यकारी समिति की बैठक में भाग लिया। उस समय आजाद हिन्द फैाज के शहनवाज और सहगल तथा वाइसराय के सचिव उनसे मिले।

मार्च 15 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री सर क्लीमेंट एटली ने ब्रिटिश राष्ट्र मंडल के अंदर या बाहर पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करने के अधिकार की घोषणा कर दी और जोड़ा कि-‘‘ हम अल्पसंख्यकों को निषेधाधिकार का प्रयोग करने नहीं दे सकते।’’ पंडित नेहरू ने एटली की घोषणा के मधुर स्वर का स्वागत किया और मुंबई में गांधी जी ने कहा कि मंत्रिमंडलीय समिति की ईमानदारी पर शक करना एक प्रकार की कमजोरी है। पर जिन्ना ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि गांधी जी की अहिंसा अपने पाखण्ड और कपट को छिपाने तथा दुनियाँ को, विशेषकर विदेशों को छलने के लिए एक आड़ मात्र है।

ब्रिटेन के मजूदर दल तथा उदारतावादी संवाद माध्यमों ने एटली के वक्तव्य का स्वागत किया। ब्रिटेन की मंत्रिमण्डलीय समिति भारत आई और महात्मा गांधी ने मंत्रिमण्डलीय प्रस्तावों के ऊपर उनसे खुलकर चर्चा की। उन्होंने ब्रिटिश मंत्रिमण्डल के नेक इरादों के प्रति अपना आनन्द प्रगट किया। वे भारतीय सेना के उन जवानों से भी मिले जो विद्रोह के कारण कारागृह में थे और कहा कि-‘‘हम लोगों को सेना के जवानों के लिए गर्व होना चाहिए।’’ पर इन्हीं के बारे में उन्होंने पहले क्या कहा था ?

ब्रिटिश मंत्रिमंडलीय मिशन की महात्मा गांधी, मौलाना आजाद, जिन्ना, भोपाल के नबाब, विभिन्न प्रांतों के नेता एवं प्रांतीय सरकारों के प्रमुख, डॉ. अम्बेडकर आदि सबसे चर्चा हुई। जिन्ना मुसलमानों के लिए बोले, मौलाना आजाद हिन्दुओं के लिए, भोपाल के नबाब देशी रियासतों के लिए। दुर्भाग्य से श्री श्रीनिवास शास्त्री की, जिन्होंने सावरकर जी की ‘अविभक्त भारत’ की भूमिका का समर्थन किया था, मृत्यु हो गई। अतः मिशन उनके विचार न जान सकी। हिन्दू महासभा के नेता डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और ल.ब.भोपटकर ने मिशन से कहा कि किसी भी रूप में भारत का विभाजन आर्थिक दृष्टि से अक्षम और विनाशकारी तथा राजनैतिक दृष्टि से आत्मघाती होगा।

जिन्ना ने देश के लिए एक संविधानसभा की स्थापना का विरोध किया और पाकिस्तान के संघर्ष ने एक घातक मोड़ लिया। 5 अप्रैल 1946 को पंडित नेहरू ने दिल्ली में गर्जना की-‘‘मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग को काँग्रेस किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करेगी, भले ही ब्रिटिश सरकार उसे स्वीकार कर ले। जिन्ना अपने 70 वर्ष की उम्र में एक कदम और आगे बढ़े। ‘न्यूज क्राँनिकल’ नामक अखवार के प्रतिनिधि से कहा कि- वे अपने आपको भारतीय नहीं मानते। उनके सिपहसालार गृहयुद्ध की बातें करने लगे। श्री हसन शहीद सुहरावर्दी ने धमकी दी कि यदि ब्रिटिश सरकार ने काँग्रेसी जनता को भारत का भाग्य सौंपा तो मुस्लिम लीग केंद्र सरकार को एक दिन भी चलने न देगी। फिरोजखान नून ने चेतावनी दी कि मुसलमान देश में जो विनाशलीला रचेंगे वह चंगेज खान के अत्याचारों को भी मात कर देगा। जिन्ना ने एक संवाददाता से यह भी कहा कि पाकिस्तान के पश्चिम और पूर्व के खंडों को जोड़ने के लिए हम एक गलियारे की भी माँग करेंगे। इस कारण जिन्ना ने कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना आजाद से मिलने से मना कर दिया।

त्रिपक्षीय सम्मेलन, जिसमें ब्रिटिश मंत्री, वाईसराय और काँग्रेस व मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि सम्मिलित थे, एक सर्वसम्मत हल खोजने के लिए 12 मई 1946 को शिमला में मिले, किन्तु किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके। सरकार की ओर से जो आलेख प्रस्तुत किया गया था उसने जिन्ना की भारत विभाजन की माँग को अस्वीकार कर दिया था और एक केंद्रीय संघ की कल्पना रखी थी जिसको विदेशी मामले, रक्षा एवं संचार के अधिकार थे और प्रांतों को ए,बी और सी गटों में अपने आपको गठित करने की सुविधा एवं पूर्ण स्वायत्तता प्रदान की गई थी। संविधान सभा के निर्वाचन का अधिकार प्रमुख समुदायों के विधायकों, महत्वपूर्ण अल्पसंख्यकों एवं रियासतों को दिया गया था और उन्हें अँग्रेजी प्रभुसत्ता से मुक्त कर दिया गया था।

17 जुलाई 1946 को मुंबई में आयोजित मुस्लिम लीग की परिषद् ने ‘सीधी कार्यवाही’ का ऐलान कर दिया और मंत्रिमण्डलीय योजना को, जिसे उसने पहले स्वीकार कर लिया था, मानने से इन्कार कर दिया । मुस्लिम लीग के सचिव ने घोषणा कर दी कि अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए वे वैधानिक व अवैधानिक सभी प्रकार के हथकण्डे अपना सकते हैं। जिन्ना ने कहा कि मुसलमान ऐसा आंदोलन चलाएँगे जो सन् 1942 के आन्दोलन से हजार गुना भयावह होगा। बंगाल में लीग के मत्रिमंडल ने जानबूझकर 16 अगस्त को छुट्टी घोषित कर दी। पुलिस नरसंहार की मूक दर्शक बनी रही और सेना निष्क्रिय रही। सरकार से कोई सुरक्षा न मिलने के कारण हिन्दुओं ने संगठित होकर जस का तस उत्तर देना प्रारंभ कर दिया।

दंगों में ध्वस्त कलकत्ता की अपनी यात्रा के बाद वैवल ने कहा था कि यदि भविष्य में इसी प्रकार के विनाश की पुनरावृत्ति को रोकना है तो मुस्लिम लीग को सरकार में किसी न किसी प्रकार उलझाना होगा। इस प्रकार उन्होंने कलकत्ते में किये गये लीग के अपराधों पर परदा डालने का काम किया और जता दिया कि यदि लीग को सरकार में साझेदारी नहीं दी गई तो उसे ऐसे हत्याकाण्डों में प्रवृत्त होने का अधिकार होगा।

नेहरू जी ने काँग्रेस की विषय समिति को सूचना दी थी कि-‘‘लीग और वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारियों के बीच मानसिक साँठ-गाँठ थी। वाइसराय धीरे-धीरे गाड़ी से पहियों को अलग निकालते जा रहे थे। इससे स्थिति बड़ी कठिन होती जा रही थी। चर्चिल भी जिन्ना को भड़काए जा रहा था। उनके बीच पत्रों का छद्म नाम से आदान-प्रदान होता था जिसमें चर्चिल अपने लिए ‘जिलियुट’ नाम से हस्ताक्षर किया करता था। खलीकुज्जमाँ ने लिखा है-‘‘यदि काँग्रेस ने अपने अभिलेख पर निर्णय को अंकित कर पूर्ण रूप से कैबिनेट मिशन’’ योजना को स्वीकार नहीं किया तो ब्रिटिश सरकार अनिच्छा से देश के विभाजन के लिए तैयार हो जायेगी।’’

जिन्ना लंदन प्रवास में बकिंघम प्रासाद के मध्यान्ह भोज में सम्मिलित हुए जहाँ उन्हें पता चला कि सम्राट् पाकिस्तान समर्थक हैं और रानी तो उनसे दो कदम आगे हैं- शतप्रतिशत पाकिस्तान की पक्षधर। 20 फरवरी 1947 को ब्रिटिश संसद में प्रधानमंत्री एटली ने घोषणा की कि-‘‘सम्राट् की सरकार यह स्पष्ट कर देना चाहती है कि उसकी यह निश्चित अभिलाषा है कि एक ऐसी तिथि तक, जो जून 1948 के बाद की न हो, उत्तरदायी भारतीय हाथों में सत्ता हस्तांतरण के लिए आवश्यक पग उठाए जाएँ। किन्तु यदि ऐसा दीख पड़े कि समय के पूर्व प्रतिनिधि सभा द्वारा ऐसा संविधान तैयार नहीं किया जा सकेगा तो सम्राट की सरकार को विचार करना पड़ेगा कि निश्चित तिथि को ब्रिटिश भारत में केंद्र सरकार की शक्तियाँ किसे सौंपी जाए- ब्रिटिश भारत के लिए समग्र रूप से किसी को अथवा किन्हीं क्षेत्रों में वर्तमान प्रान्तीय सरकारों को अथवा किसी अन्य रीति से, जो सर्वाधिक समुचित दीख पड़े और भारतीयों का सर्वाधिक हित साधन कर सके।’’

22 मार्च 1947 को माण्टवेटन अपनी पत्नी एडविना और पुत्री पामेला को लेकर भारत पहुँचे। माण्टवेटन और उनकी पत्नी का दाम्पत्य जीवन सुखी नहीं था, किन्तु दोनों एक दूसरे को छोड़ते नहीं थे क्योंकि माउण्टबेटन राज परिवार से संबंधित थे और एडविना के पास धन था। भारत आते ही एडविना ने पंडित नेहरू को अपने मोह जाल में लपेट लिया। माउण्टबेटन को पंडित नेहरू से जो भी कार्य कराना होता था उसे वे एडविना के माध्यम से करवा लेते थे। अँग्रेज जानते थे कि विशाल जनसंख्या व भूखण्ड वाला भारत अपने स्वाभाविक अधिकार के बल पर एक अंतर्राष्ट्रीय शक्ति बन जायगा और ब्रिटेन उसके सामने बौना दिखेगा। अतः उस पर अंकुष रखने के लिए भारत की सीमा पर ब्रिटेन के प्रति कृतज्ञ और निष्ठावान पाकिस्तान बनाना आवश्यक है। तब भारत को न केवल सैनिक दृष्टि से दबाकर रखा जा सकेगा बल्कि उसे ब्रिटेन के प्रति आज्ञाकारी बने रहने के लिए बाध्य किया जा सकेगा। तदर्थ माउण्टवेटन भारत के विभिन्न नेताओं से मिले।

महात्मा गांधी ने माउण्टबेटन ने अपनी प्रथम भेंट में ही भारत के विभाजन का कड़ा विरोध किया। इसके उत्तर में माउण्टबेटन ने कहा कि यदि जिन्ना की इच्छा के विरुद्ध निर्णय लिया गया तो रक्त-रंजित गृहयुद्ध भड़क सकता है। उन्होंने कहा कि सम्राट् की सरकार उन्हें अनुमति नहीं देगी कि मुसलमानों जैसे करोड़ों अल्पसंख्यकों को काँग्रेस के हाथों सौंप दिया जाए। इस पर पाकिस्तान के विकल्प के रूप गांधी जी ने माउण्टबेटन के सामने एक अनोखा प्रस्ताव रखा कि-‘‘आप वर्तमान मंत्रिमंडल को भंग कर डालिए और जिन्ना को अंतरिम सरकार बनाने का अंतिम अवसर दीजिए। सदस्यों का चयन उन पर छोड़ दिया जाए। सभी सदस्य मुसलमान हो या न हों, कोई अंतर नहीं पड़ता। यदि जिन्ना प्रस्ताव मान लेते है तो काँग्रेस उन्हें अपने पूर्ण सहयोग का आश्वासन देगी। केवल एक प्रतिबंध रहेगा कि उनकी नीतियाँ सभी भारतीयों के लिए हितकर होनी चाहिए। जिन्ना को चाहिए कि वे ‘‘मुस्लिम नेशनल गार्डों’’ को भंग कर दें और साम्प्रदायिक सौहार्द लाएँ। ’’

काँग्रेस के नेताओं ने गांधी जी कि इस योजना को मानने से सर्वथा इन्कार कर दिया। नेहरू जी ने कहा कि गांधी जी तीव्रता से केंद्र की घटनाओं से अनभिज्ञ होते जा रहे हैं। गांधी जी ने वाइसराय को सूचित कर दिया कि उनकी योजना से काँग्रेस सहमत नहीं हुई। अतः वह भविष्य की सारी कार्यवाही का भार काँग्रेस कार्यकारिणी को सौंप रहे हैं। जिन्ना ने भी गांधी जी के प्रस्ताव को ‘‘दुष्टतापूर्ण’’ बताया। सरोजनी नायडू ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से कहा कि-‘‘जहाँ तक राजनीति का संबंध है, गांधी जी मर चुके हैं। उनके जीवन की तपस्या भंग हो गयी है। उनके सामने उनके जीवनव्रत का शव पड़ा है।’’37 पंडित नेहरू ने कहा-‘‘हमारे थके हारे नेताओं पर बुढ़ापे का प्रभाव होने लगा था। अतः वे कारागार जाने से कतराने लगे थे। अखण्ड भारत का पक्षधर होने पर तो कारावास का ही संकट मिलने वाला था। यह संकट कौन मोल लेता।’’

पंजाब और बंगाल के हिन्दुओं ने विरोध का झण्डा उठा लिया और माँग की कि यदि विभाजन को स्वीकार किया गया तो उनके प्रान्तों का भी विभाजन करना होगा। हिन्दु महासभा के नेता डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने हिन्दु जागरण का नेतृत्व किया। उनका आग्रह था कि पूर्वी पंजाब और पश्चिमी बंगाल को भारत से अलग न किया जाए। पंजाब को सिखों ने भी भारत में ही रखे जाने का आग्रह किया। 20 अप्रैल को पंडित नेहरू ने एक सार्वजानिक भाषण में घोषणा की कि लीग को पाकिस्तान मिल सकता है यदि वह भारत के उन दूसरे भागों की माँग न करे जो पाकिस्तान में शामिल नहीं होना चाहते। स्वाभाविक ही था कि पंजाब और बंगाल के विभाजन की बल पकड़ती माँग पर जिन्ना बहुत बौखलाते। उन्होंने माँग की कि पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान को जोड़ने वाला 800 मील लंबा गलियारा उन्हें दिया जाएँ पर वे जानते थे कि इस बात के माने जाने की लेशमात्र भी संभावना नहीं है। अपनी सौंदेबाजी को बल प्रदान करने के लिए यह माँग रखी गई थी। इसी समय पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में पख्तूनिस्तान की, पंजाब में खालिस्तान की और बंगाल में ‘स्वाधीन और अखण्ड बंगाल’ की माँगें भी उठीं पर समर्थन के अभाव में वे गर्भ में ही मर गईं।

दिनांक 2 जून की रात्रि को माण्टवेटन ने जिन्ना से भेंट की तो जिन्ना ने कहा कि लीग की अखिल भारतीय परिषद का अनुमोदन प्राप्त करने के लिए एक सप्ताह का समय लगेगा। माउण्टबेटन ने कहा-‘‘देखिए मिस्टर जिन्ना ! मैं नहीं चाहता कि इस समझौते के लिए किए गए परिश्रम पर आपके हाथों पानी फिरवा दूँ । किन्तु एक शर्त है कि जब प्रातःकाल बैठक में कहूँ कि ‘जिन्ना ने मुझे आश्वासन दिए हैं, मैंने उन्हें मना लिया है और मुझे उन पर संतोष है।’ तो किसी भी स्थिति में आप उसका खण्डन नहीं करेंगे और जब मैं आपकी ओर देखूँ तो आप सिर हिलाकर मौन सम्मति दे देंगे।’’

दिनांक 4 जून को प्रातःकाल माउण्टबेटन प्रार्थनासभा के ठीक पूर्व गांधी जी से मिले। उन्होंने गांधी जी से अनुरोध किया कि वह घोषणा को माण्टवेटन-योजना के रूप में न देखें वरन् उसे गांधी योजना के रूप में देखें। गांधी वैसे तो अपनी प्रार्थना सभाओं में तीखे स्वर में विभाजन का विरोध करते थे परन्तु उस दिन उन्होंने प्रार्थना सभा में अपना स्वर बदल दिया, कहा-‘‘ब्रिटिश सरकार विभाजन के लिए उत्तरदायी नहीं है। वाइसराय का इसमें कोई हाथ नहीं है। वास्तव में वे स्वयं काँग्रेस की भाँति विभाजन के विरुद्ध हैं। परन्तु हम दोनों, हिन्दू और मुसलमान यदि किसी और वस्तु के बारे में सहमत नहीं हो सकते तो वाइसराय के पास कोई चारा नहीं है। केवल इसी योजना के आधार पर समझौता किया जा सकता है।’’39 - तभी प्रार्थना सभा में किसी ने उनके प्रसिद्ध कथन का स्मरण कराया-‘‘मातृभूमि के टुकड़े करने के पूर्व मेरे टुकड़े कर डालो।’’ गांधी जी ने उत्तर दिया-‘‘ जब मैंने यह बात कही थी तो मैं जनमत को मुखर कर रहा था। किन्तु अब जनमत मेरे विरुद्ध है तो क्या मैं उसे दबा दूँ ?’’

गांधी जी का यह स्पष्टीकरण आश्चर्यजनक है क्योंकि कुछ दिन पूर्व ही जब माण्टवेटन ने उन पर व्यंग्य कसा था कि-‘‘काँग्रेस मेरे साथ है, आपके साथ नहीं’’ तो उन्होंने नहले पर दहला मारते हुए कहा था-‘‘काँग्रेस भले ही मेरे साथ न हो, किन्तु भारत मेरे साथ है।’’ गांधी जी का यह कथन कि जनमत विभाजन के पक्ष में था, प्रत्यक्ष तथ्यों पर आधारित नहीं था। विभाजन तो एक अपवित्र गठबंधन की उपज था जिसमें लीग के आतंकवादी कारनामे, साम्राज्यवादी ब्रिटिश रणनीति और काँग्रेस के ‘थके-हारे-बूढ़े लोग’ शामिल थे। काँग्रेस ने सदा ही लोगों को इस बारे में अँधेरे में रखा कि उनकी पीठ के पीछे क्या खिचड़ी पक रही थी।

14-15 जून 1947 को अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी की बैठक में जहाँ गोविन्दवल्लभ पंत ने कहा कि-‘3 जून योजना और आत्महत्या’ में से उन्होंने 3 जून को चुना है। मौलाना आजाद ने कहा कि मैंने भी अनुभव किया कि-‘‘तत्काल समझौते की आवश्यकता है किन्तु आशा करता हूँ कि विभाजन अधिक देर नहीं टिकेगा।’’ किन्तु श्री चोइथराम गिडवानी ने आलोचना करते हुए कहा कि प्रस्ताव तो लीग की हिंसावृत्ति के आगे आत्मसमर्पण है। श्री जगत्नारायण ने स्मरण कराया कि मई 1942 में अखिल भारतीय काँग्रेस समिति ने डंके की चोट पर कहा था कि विभाजन की हर योजना का विरोध करेगी- अब वह पीछे नहीं हट सकती। समाजवादी काँग्रेसी विभाजन का बराबर कड़ा विरोध करते रहे थे। डाक्टर राममनोहर लोहिया ने विभाजन की योजना से असहमत होते हुए भी इसीलिए तटस्थता की भूमिका स्वीकार की क्योंकि विभाजन-योजना तथ्य रूप धारण कर चुकी थी। अनोखा तर्क था।

वरिष्ठ काँग्रेसियों में केवल बाबू पुरुषोत्तमदास टंडन ही ऐसे थे जिन्होंने अंत तक प्रस्ताव का ढृढ़ता से विरोध किया। उन्होंने कहा कि नेहरू सरकार मुस्लिम लीग के आतंककारी हथकंडों से हतोत्साह हो गयी है, विभाजन की स्वीकृति देना विश्वासघात और आत्मसमर्पण करना होगा। अपने भाषण के अंत में उन्होंने आवेगपूर्ण भाव से आग्रह किया-‘‘भले ही हमें कुछ और समय तक ब्रिटिश राज्य के अधीन कष्ट उठाने पड़ें पर हमें अखण्ड भारत के चिरपोषित लक्ष्य की बलि नहीं देना चाहिए। आइए, हम युद्ध के लिए कटिबद्ध हों, यदि आवश्यकता पड़े तो अँग्रेजों और लीग दोनों से लोहा लें और देश को खण्डित होने से बचाएँ।’’ समिति के सदस्यों ने तालियों की प्रचण्ड गड़गड़ाहट से टंडन जी के भाषण का समर्थन किया। काँग्रेसी सदस्यों की डूबती हुई आस्था को आधार मिल गया और प्रस्ताव का भविष्य अधर में लटक गया।

इस निर्णायक घड़ी में पुनः गांधी जी कूद पड़े। उनका तर्क यह था कि-‘‘योजना की स्वीकृति में काँग्रेस कार्यकारिणी ही एक मात्र पक्ष नहीं है, दो अन्य पक्ष ब्रिटिश सरकार और मुस्लिम लीग भी संबंधित हैं। ऐसी स्थिति में काँग्रेस समिति अपनी कार्यकारिणी के निर्णय को ठुकरा दे तो संसार क्या सोचेगा ?..... वर्तमान घड़ी में देश में शान्ति-स्थापना का भारी महत्व है। काँग्रेस सदा ही पाकिस्तान का विरोध करती रही है ....पर कभी-कभी हमें बड़े ही अरुचिकर निर्णय करने पड़ते हैं। .... यदि मेरे पास समय होता तो क्या मैं इसका विरोध नहीं करता ? किन्तु मैं काँग्रेस के वर्तमान नेतृत्व को चुनौती नहीं दे सकता और लोगों की उनके प्रति आस्था को नष्ट नहीं कर सकता। ऐसा तभी मैं करुँगा जब मैं उनसे कह सकूंगा, ‘लीजिए, यह रहा वैकल्पिक नेतृत्व’। ऐसे विकल्प के निर्माण के लिए मेरे पास समय नहीं रह गया है। .... आज मुझ में वैसी शक्ति नहीं रह गई है। अन्यथा मैं अकेला ही विद्रोह की घोषणा कर देता।’’

गांधी जी की उपर्युक्त टिप्पणी के प्रसंग में यह जान लेना उपयुक्त रहेगा कि पंडित नेहरू ने लियोनार्ड मोसले से क्या कहा था ? विभाजन की स्वीकृति के कारणों पर प्रकाश डालने के बाद नेहरू ने कहा था कि-‘‘गांधी जी हमसे कहते कि विभाजन स्वीकार न किया जाए तो हम लड़ाई चालू रखते, प्रतीक्षा करते।’’ गांधी के हस्तक्षेप के कारण प्रस्ताव के पक्ष में 157 मत पड़े, विपक्ष में 29 और तटस्थ रहे 32। इस प्रकार राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के सर्वाधिक मूल और महत्वपूर्ण प्रश्न पर काँग्रेस की सर्वोच्च संस्था ने आत्मसमर्पण कर दिया और विभाजन के दुःखान्त नाटक के अंतिम दृष्य का पटाक्षेप हुआ।

महात्मा गांधी की कृपा से खंडित भारत के पहले प्रधानमंत्री बने पं.जवाहरलाल नेहरू और जिन सरदार वल्लभभाई पटेल का दावा महात्मा गांधी ने अपने नेहरू प्रेम में खारिज कर दिया था, वे बने देश के गृहमंत्री। प्रधानमंत्री नेहरू को औपचारिक बधाई देने के लिए तीनों सेनाओं के तत्कालीन प्रमुख पहुंचे और अगले 10 वर्ष की सेना की आवश्यकताओं के बारे में उन्हें अवगत कराया तो उनका उत्तर था-‘‘हमें सेनाओं की जरूरत ही क्या है ? हम जब किसी पर आक्रमण करने वाले नहीं हैं तो कोई हम पर आक्रमण क्यों करेगा ? सेनाओं को बर्खास्त कर दीजिए। जहाँ तक आंतरिक कानून और व्यवस्था का प्रश्न है उसे हम पुलिस की सहायता से सम्भाल लेंगे।’’ सुनकर सेनानायक अवाक् रह गए कि इस संघर्षशील दुनिया में देश का प्रधानमंत्री क्या कह रहा है ? वास्तव में पाकिस्तान को धन्यवाद देना चाहिए कि उसकी सेनाएँ कश्मीर पर बलात् कब्जा करने के लिए कबाइलियों के वेश में श्रीनगर के निकट तक आ पहुँचीं।

तब तक कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने कश्मीर का विलय भारत के साथ नहीं किया था और माउण्टबेटन के कहने से नेहरू जी ने कश्मीर का मामला अपने हाथ में रखा था, जो वास्तव में गृहमंत्री के हाथों में होना चाहिए था। आगे चलकर माण्टवेटन ने अपने संस्मरणों में लिखा कि-‘‘पाकिस्तान मैंने बनवाया था। मेरी इच्छा थी कि उसके साथ कश्मीर जोड़कर उसे और अधिक मजबूत बनाया जाय।’’ इसलिए उसने नेहरू की कश्मीरियत उभारकर कश्मीर का मामला स्वयं के हाथों में रखने के लिए प्रेरित किया। अन्य सारी देशी रियासतों को अँग्रेजों ने उनकी स्वायत्तता वापिस कर दी और उन्हें स्वतंत्रता दे दी कि हिन्दुस्थान में मिले, पाकिस्तान के साथ जाएँ अथवा स्वतंत्र रहें। अँग्रेज भारत को सदैव दुर्बल बनाए रखने की अपनी दुर्नीति के अंतर्गत उसे सदैव आंतरिक संघर्षों में उलझाए रखना चाहते थे। उन्हें विश्वास था कि भारतीय लोग देश के प्रशासन को सम्भाल नहीं पाएँगे और अँग्रेजों की शरण में आएँगे और इस प्रकार उनके वापस आने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।

पर सरदार पटेल ने उनकी आशाओं पर तुषारापात कर दिया। सरदार पटेल ने अपनी सूझबूझ, कूटनीतिज्ञता, कुशलता और दृढता का परिचय देते हुए भारत में विद्यमान चार सौ से अधिक रियासतों का भारतीय संघ में विलीनीकरण करवा दिया। जिन जूनागढ़, भोपाल और हैदराबाद के नबाबों ने नानुकुर की उन्हें उँगली टेढ़ी कर सीधे रास्ते पर आने के लिए बाध्य कर दिया। एकमात्र जम्मू-कश्मीर का मामला ऐसा रहा है कि वह आज तक लटका हुआ है। वह हाथ से पूरी तरह निकल ही गया होता यदि सरदार पटेल ने संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी को कश्मीर भेजकर उन्हें जम्मू-कश्मीर को भारत में विलीन करा देने के लिए राजी न कर लिया होता। दिनाँक 17 अक्टूबर को सरदार पटेल द्वारा उपलब्ध कराए गए एक विशेष विमान से वे श्रीनगर पहुँचे, 18 अक्टूबर को महाराजा से मिलकर उन्हें राजी किया और 23 अक्टूबर को अपना विशेष प्रतिनिधि भेजकर महाराज ने विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए।

उन दिनों जम्मू-कश्मीर जाने का रास्ता रावलपिंडी होकर ही जाता था जो उन दिनों पाकिस्तान में चला गया था। अतः विमान के अतिरिक्त श्रीनगर पहुँचने का और कोई मार्ग नहीं था। किन्तु सेना के विमानों के उतरने के लायक श्रीनगर के हवाई अड्डे की पट्टी नहीं थी। अतः संघ के स्वयंसेवकों ने रात-दिन जूझकर हवाई पट्टी की लंबाई और चौड़ाई बढ़ाकर उसे सेना के विमानों के उतरने लायक बनाया। सेना आई और पाकिस्तानी सेनाओं को खदेड़ना चालू कर दिया । जब वे सिर पर पैर रखकर भाग रहे थे तभी माण्टवेटन के कहने में आकर पं. नेहरू ने सरदार पटेल को केवल दूरभाष पर सूचित कर बिना उनसे चर्चा किए ही युद्ध विराम की घोषणा कर दी। सेनानायकों ने कहा कि हमें 48 घंटे का समय दे दीजिए।’’ नहीं माना,‘चौबीस घंटे का समय दे दीजिए’, नहीं माना और आज तक कश्मीर का 2/5 हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में कराह रहा है। अब तो अमेरिका आदि पश्चिमी शक्तियों के दबाव में उसे अंतिम रूप से पाकिस्तान को दे देने की बात भी चल रही है ।

5 अक्टूबर 1945 के अपने पत्र में महात्मा गांधी ने लिखा था -‘‘अब शीघ्र ही हमारा देश स्वतंत्र होने वाला है। मैं तुमसे जानना चाहता हूँ कि उसे कौन से विकास पथ पर ले चलोगे। जहाँ तक मेरा प्रश्न है मैंने अपने हिन्द स्वराज में पहले ही लिख दिया था कि भारत की 87 प्रतिशत जनता ग्रामों में रहती है, अतः ग्रामों को अपनी विकास-योजना का बिन्दू बनाना चाहिए क्योंकि गाँवों का विकास होगा तो सारे देश का विकास होगा। अगर यह नहीं किया तो गाँव वाले असत्य और हिंसा का आश्रय लेंगे’’। इस पर नेहरू जी ने दो दिन बाद भेजे अपने उत्तर में कहा-‘‘आपके ये विचार मैंने बीस साल पहले हिंदस्वराज में पढ़े थे। तब भी उन पर मेरा विश्वास नहीं था आज तो लगता है कि यदि हम उस विकास पथ पर बढेंगे तो प्रगति की दौड़ में दुनियाँ में पिछड़ जाएँगे। अतः शहरों को ही विकास का केंद्र-बिन्दु बनाना होगा और गाँवों को भी शहरी साँचे में ढालना होगा। जहाँ तक असत्य और हिंसा का प्रश्न है वह तो ग्रामीणों के दिमाग में पलता है क्योंकि वे बौद्धिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यन्त पिछड़े रहते हैं।’’ इसी मानसिकता ने उन्हें रोजगार प्रदायक और पर्यावरण सुसंगत पथ को तिलांजलि देने के लिए बाध्य किया जिसके दुष्परिणाम आज हमारे सामने हैं। अमीर और अधिक अमीर तथा गरीब और अधिक गरीब होते जा रहे हैं, किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। सम्पन्न लोग ‘पब कल्चर’ अपनाकर पाश्चात्य धुनों पर अधनंगी अवस्था में थिरकते और ग्रामीणों को हिकारत की नजर में देखते हुए गुलछर्रे उड़ा रहे हैं।

यहाँ इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि देश में चुनाव की जो पद्धति लागू की गई वह इंग्लैण्ड की -‘वेस्टमिन्स्टर’ पद्धति थी जिसमें वही जीता माना जाता है जिसे सर्वाधिक मत मिलें। इंग्लैण्ड ने यह व्यवस्था उनके अपने देश में यह व्यवस्था पिछले डेढ़ सौ वर्षों में विकसित की थी जो यहाँ इसलिए हुई कि उस छोटे से देश में अधिक विविधता थी ही नहीं। किन्तु उसी व्यवस्था को भारत जैसे विशाल देश में जिसमें 25-30 इंग्लैण्ड समा जाएँ और जो जाति-पाँति, पंथ-उपपंथ, भाषा-उपभाषा व क्षेत्र-उपक्षेत्र की अनगिनत विविधताओं से युक्त है, इस पद्धति ने आपसी वैमनस्य और संघर्ष को ही बढ़ाया है। इस पद्धति में केवल बीस प्रतिशत मत प्राप्त करके भी कोई व्यक्ति चुनकर आ जाता है और दावा करता है कि वह अपने निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधि है जबकि अस्सी प्रतिशत मत उसके विपक्ष में पड़े हैं और उसे भी चिंता उस बीस फीसदी की ही रहती है जिसने उसे चुना है। परिणाम यह है कि किसी भी अभिनिवेष को उभाड़कर ढेर सारा पैसा खर्च कर अपने आठ-दस साथियों को चुनवा लाता है और फिर सौदेबाजी कर मंत्रिपद हथियाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है और न होने पर छोड़कर चला जाता है। आज अपने देश में राजनैतिक अस्थिरता, वैमनस्य, संघर्ष और भ्रष्टाचार का यही कारण है

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