भारत के अतीत को भुलाने और झुठलाने का बामपंथी षडयंत्र - ए.एल. चावडा

श्री ए.एल. चावडा

प्रख्यात इतिहासकार व भू वैज्ञानिक 

भारतीय-आर्यों की उत्पत्ति का सवाल सदैव से भारत में विरोधाभासी रहा है।

आर्य आक्रमण सिद्धांत हो या आर्य प्रवासी सिद्धांत दोनों में ही भारतीय आर्यों को घनघोर असहिष्णु, जातिवादी, रूढ़िवादी व पाखंडी दर्शाया गया है | द्रविड़ और "दलित" समाज के बीच इस के कारण अलगाववाद और हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति के प्रति नफ़रत पनपती दिखाई देती है । जबकि आम भारतीय इसे आर्य वंश के पूर्वजों का अपमान मानता है और गहरा असंतोष व्यक्त करता है |
दरअसल आर्य आक्रमण सिद्धांत वामपंथीयों और 'धर्मनिरपेक्ष' राजनेताओं के हाथ का जबरदस्त हथियार है, जिसके माध्यम से वे द्रविड़ राष्ट्रवाद को उभार कर अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकते हैं | इसी प्रकार दलित समाज में आर्य आक्रमण सिद्धांत को प्रचारित कर मिशनरीज शेष समाज के प्रति अलगाववाद व नफ़रत पैदा कर अपना धर्मांतरण का कुचक्र चलाते हैं | लंबे समय से भारत को उत्तरी और दक्षिणी, आर्य और द्रविड़, गोरे और काले, 'उच्च जाति' और दलित, जैसी दो श्रेणियों में विभाजित करने का यह षडयंत्र चलता रहा है।

यह आर्य आक्रमण सिद्धांत ही है, जिसने भारत मीन बामपंथ की जड़ें जमाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | इसलिए स्वाभाविक ही बामपंथी और धर्मनिरपेक्ष ताकतें अपनी पूरी शक्ति से इसी सिद्धांत को अतिरंजित कर प्रतिपादित करते दिखाई देते हैं | पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय से ही उन्हें भारतीय शिक्षा क्षेत्र में अपने पैर जमाने का अवसर भी मिल गया था, जिसके चलते उनकी ताकत और शक्ति बहुत अधिक बढ़ गई । आज तो स्थिति यह है कि वामपंथी ही शिक्षाविदों के रूप में भारत के अधिकांश मानविकी विभागों को नियंत्रित करते हैं। वामपंथी इतिहासकारों और शिक्षाविदों ने भारत में शैक्षणिक पर एकाधिकार सा कर लिया है और असंतोष की आवाजों को आगे बढ़ाया है । वामपंथीयों ने यह सुनिश्चित किया है कि हर स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय की पाठ्यपुस्तकों में आर्य आक्रमण सिद्धांत ही पढाया जाए ।

भारत की शिक्षा प्रणाली में छात्रों को स्वविवेक से निर्णय करने का अवसर ही नहीं है । वे जो पढाया जा रहा है, उसे ही यथावत स्वीकार करने को विवश हैं । नतीजतन, यही गलत सलत इतिहास पढ़ते पढ़ते भारतीयों की कई पीढ़ियां निकल चुकी हैं और अब तो स्थिति यह है कि वे अपने आप से नफरत करते हैं, या दूसरे शब्दों में कहें तो आत्म गौरव शून्य होकर वे अपनी ही संस्कृति और विरासत से स्वयं को शर्मिंदा महसूस करते हैं।

आर्य आक्रमण सिद्धांत ने वामपंथी शिक्षाविदों को भारतीय संस्कृति की निंदा करने का आदर्श तर्क दिया, जिसके माध्यम से वे 'निम्न जाति' के  छात्रों में हिंदू धर्म और सभ्यता के खिलाफ विद्रोह भड़काने में मशगूल रहते हैं | वे  महिला विद्यार्थियों को बताते हैं कि हिंदुत्व पितृसत्तात्मक विचारधारा होने के कारण अस्वीकार योग्य है और नारी स्वातंत्र्य के नाम पर उन्हें उकसाते हैं | शैक्षणिक संस्थानों में पैठ बनाए बामपंथी बुद्धिजीवियों के कारण ही भारत में राष्ट्रवाद विरोधी और अलगाववादी आंदोलनों का बोलबाला रहा है । यही उनकी कार्यप्रणाली है जिसके द्वारा छात्रों की कई पीढ़ियों उनके दुष्प्रभाव में आकर भारत में वामपंथी आंदोलन को बल देने में जुट गईं ।

इस प्रकार आर्य आक्रमण सिद्धांत भारत बिखंडित करने वाली शक्तियों का एक प्रकार से शैक्षणिक आधार है, जिसके माध्यम से वे भारत की संस्कृति पर हमला करने और भारत की अखंडता को कमजोर करने के का कुत्सित षडयंत्र रचते रहते हैं । यही उनके तुरुप का इक्का है, एक बार इसे समाप्त कर दिया जाए, तो फिर उनके पास कुछ नहीं बचने वाला |

बामपंथी भी इस बात को भली प्रकार से जानते समझते हैं, इसी कारण वे हर हथकंडा अपना कर स्वदेशी आर्य सिद्धांत की सत्यता जांचने के स्थान पर यथास्थिति बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं | समय समय पर भारत में भगवाकरण का जो हल्ला मचता दिखाई देता है, वह भी वामपंथी इतिहासकारों और शिक्षाविदों द्वारा अपनी जमीन खिसकती देखकर किया जाता है | दशकों से "हिंदुत्व" को उन्होंने भारतीय शिक्षा जगत से खारिज किया हुआ है। इसे समझकर इतिहास की पाठ्यपुस्तकों के आधुनिकीकरण की अविलम्ब आवश्यकता है | बामपंथी इतिहासकारों ने "फ़ैसिज़्म" और "ऐतिहासिक संशोधनवाद" के आरोप लगाकर अभी तक वदलाव की हर कोशिश का विरोध किया है | यहाँ तक कि जानेमाने पुरातत्त्ववेत्ता बी.बी. लाल जैसे भारतीय विद्वान को भी पाठ्यपुस्तकों में स्थान नहीं दिया गया |

इसलिए मुझे पूरी उम्मीद है कि भारत के "प्रख्यात" वामपंथी इतिहासकार इस शोध पत्र और यहां दिए गए अध्ययनों के परिणामों को अनदेखा कर देंगे (जैसा कि वे बड़े पैमाने पर अब तक करते रहे है), या फिर इसके आंकड़ों को त्रुटिपूर्ण बताकर तर्कों से दूर भागेंगे, क्योंकि लंबे समय से वे इसके ही अभ्यस्त रहे हैं।

आनुवांशिक अध्ययन की वैधता के बारे में सवाल उठाने के कुछ प्रयास पहले भी हो चुके हैं। जैसे कि रोमिला थापर ने कहा था कि –

आनुवांशिकी और डीएनए विश्लेषण से "सामाजिक इतिहासकारों को कुछ ज्यादा मदद नहीं मिलने वाली" | उनके अनुसार, "आर्यन एक सामाजिक निर्माण है और इसलिए आनुवांशिक जानकारी उपयोगी साबित होने की संभावना नहीं है जब तक कि पुनर्विचार के लिए विश्लेषण के लिए समूह के पैरामीटर परिभाषित नहीं किये जाते "[11]

[11] Thapar R. Can Genetics Help Us Understand Indian Social History? Cold Spring Harbor Perspectives in Biology. 2014;6(11):a008599. doi:10.1101/cshperspect.a008599.

लेकिन "आर्य" शब्द (जिसे "आर्यन" के रूप में वर्गीकृत किया गया है) एक जातीय स्व-पदनाम है, न कि "सामाजिक निर्माण" । यह एक ऐसा शब्द है जिसे प्राचीन भारतीय और फारसी दोनों खुद के लिए इस्तेमाल करते थे। जातीयता आदर्श आनुवंशिक जांच के लिए अनुकूल हैं यदि इस पद के अर्थ के बारे में कोई भ्रम है, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि थापर जैसी पूर्वाग्रही विचारधारा ने अपने शैक्षणिक हैसियत का इस्तेमाल कर अर्थ का अनर्थ कर इसे राजनीतिक और वैचारिक रंग देने का प्रयत्न किया है।

थापर का उक्त लेख भारत के वामपंथी शिक्षाविदों की पुरानी विशिष्टता है: जिसमें अन्य लोगों के शोधपूर्ण कार्य के मूल अनुसंधान को दरकिनार कर, परिणामों की बजाय एक व्यक्तिपरक राय प्रस्तुत की जाती रही है, और पक्षपाती ढंग से, बेमतलब के तर्कों का उपयोग करते हुए वैज्ञानिक सबूतों को नकारा जाता है ।

अब भारत को स्वयं अनुसंधान का दायित्व लेना चाहिए

यह अच्छी तरह से स्थापित तथ्य है कि भारत की आबादी आनुवंशिक रूप से अनूठी है और अफ्रीका के बाद दूसरी सबसे बड़ी आनुवंशिक विविधता को अभिव्यक्त करती है। भारत में अभी तक आनुवांशिकी के अनुसंधान को बहुत महत्व नहीं दिया गया है और अब भी वह अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही है | जो कुछ कार्य हुआ भी है, उसमें से ज्यादातर भारत से बाहर के विदेशी लेखकों द्वारा किया गया है । इस स्थिति को बदलना होगा और भारत को स्वयं अपने अतीत के शोध का दायित्व लेना होगा, वैसे ही जैसे चीन ने खुद के लिए किया है | इसके लिए भारत को निम्नलिखित कार्य करना चाहिए -

सबसे पहले, भारत को एक बड़े पैमाने पर प्रोजेक्ट शुरू करना चाहिए, जिसका लक्ष्य हो :

भारत की आबादी में आनुवांशिक विविधता की एक विस्तृत सूची तैयार करना
यूरेशिया के अन्य क्षेत्रों के लोगों के साथ भारतीय आनुवंशिकी का संबंध खोजना
भारत में और बाहर प्रवासन पैटर्न का नक्शा बनाना 
ऐसा करने के लिए, भारत में विश्वस्तरीय आनुवंशिकी अनुसंधान समूहों को विकसित करना और अत्याधुनिक आनुवंशिक परीक्षण प्रयोगशालाओं को स्थापित करने की आवश्यकता है। वर्तमान में, भारतीय शोधकर्ताओं को परीक्षण के लिए विदेशों में आनुवंशिक सामग्री भेजनी होगी।

साथ ही सिंधु-सरस्वती सभ्यता में पाए गए कंकाल के डीएनए परीक्षण से उनके वंश और आनुवांशिकी को निर्धारित करने के लिए, राखीगढ़ी का विश्लेषण किया जाना चाहिए। यद्यपि इस बात के निर्विवाद प्रमाण है कि सिंधु-सरस्वती सभ्यता और वैदिक सभ्यता एक ही है,  फिर भी इसकी आनुवंशिकी एक पहेली है, जिसे हल करना चाहिए । यदि इन कंकालों में आर 11 ए हैपलोग्राम का पता चलता है, तो सभ्यता के मूल और भाषा को लेकर चलने वाली सभी बहसें स्वतः समाप्त हो जायेंगी ।

इस तरह के चार कंकाल से 2015 में डीएनए निकालकर परीक्षण के लिए सामग्री को दक्षिण कोरिया भेजा गया था। परिणाम 2016 में प्रकाशित होने की उम्मीद थी, लेकिन आज दिनांक तक निष्कर्षों का कोई अतापता नहीं है । अतः इस तरह के अनुसंधान को प्राथमिकता के आधार पर तेजी से किया जाना चाहिए।

तीसरा, फॉरेंसिक चेहरे के पुनर्निर्माण की प्रसिद्ध तकनीक को उन व्यक्तियों के चेहरों को फिर से बनाने के लिए नियोजित किया जाना चाहिए जिनके कंकाल विभिन्न सिंधु-सरस्वती सभ्यता स्थलों में पाए गए, ताकि हम जान सकें कि हमारे पूर्वज कैसे दिखते थे । इनमें से कई कंकाल पूरे देश में विभिन्न संग्रहालयों में रखे हुए हैं। फोरेंसिक चेहरे का पुनर्निर्माण एक नियमित, सरल और सस्ती तकनीक है जो दशकों से अस्तित्व में है, और जिसका उपयोग कर हाल ही में इंग्लैंड के रिचर्ड तृतीय के चेहरे का पुनर्निर्माण किया गया है । यह समझ में नहीं आता कि आखिर एएसआई ने अभी तक इस दिशा में कोई विचार क्यों नहीं किया ।

चौथा, भारतीय पाठ्यपुस्तकों का आधुनिकीकरण होना चाहिए। उसे निर्दयी वामपंथीयों के चंगुल निकाला जाना चाहिए, जिन्होंने दशकों से उसे बिद्रूप और विकृत किया है । इतिहास की पाठ्यपुस्तकों को विशेष रूप से पुनर्लेखन की आवश्यकता है | शिक्षा को केवल तथ्यों और वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित होना चाहिए | इसे एक राजनीतिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए |

आखिरकार विचार तो हो कि भारतीय शिक्षा जगत को वामपंथीयों ने दिया क्या ? वामपंथी योजनाकारों ने सफलता पूर्वक जो बुद्धिजीवी जमात भारत में गढ़ी, उसे दूसरे शब्दों में भारत की युवा पीढी का ब्रेन वाश कहा जा सकता है । भारत की शिक्षण संस्थाओं से निकले अनगिनत छात्र आज कश्मीर, तिब्बत और अरुणाचल प्रदेश पर पाकिस्तान या चीन के पक्ष में राग अलापते दिखाई दे रहे हैं, अलगाववादियों और अराजकतावादी आंदोलनों के समर्थन में खड़े दिखाई दे रहे हैं | एक राष्ट्र राज्य के रूप में भारत के अस्तित्व को चुनौती देने वाली इस फ़ौज को खड़ा किसने किया है, किसने इन्हें प्रेरित किया है ?

शिक्षा और शिक्षा जगत का आधार है ज्ञान । ज्ञान शुद्ध रहना चाहिए, इसे विचारधारा और राजनीति से प्रभावित होने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। इसके लिए बड़े पैमाने पर प्रणालीगत सुधारों की आवश्यकता है

निष्कर्ष -

अब तो हमारे पास वैज्ञानिक प्रमाणों का पूरा पहाड़ उपलब्ध है जो साबित करता है कि आर्यन आक्रमण सिद्धांत या उसके प्रवासन संस्करण एक मिथक है, कल्पनालोक से लिखा गया एक उपन्यास है |  यह बैसा ही है, जैसे कि फ्लैट पृथ्वी सिद्धांत।

सबूत बताते हैं कि भारत एक राष्ट्र से कहीं ज्यादा है, यह दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता है | भारत का जन्म 1 9 47 में नहीं हुआ था। पुरातत्व के साक्ष्य के अनुसार हमारी महान सभ्यता का जन्म कम से कम नौ हजार पांच सौ साल पहले हुआ था, और आनुवांशिक सबूत के अनुसार तो यह कालखंड पन्द्रह हजार साल से भी पहले का आता है । हमारे महान पूर्वजों के कर्मों के रिकॉर्ड खो सकते हैं, आग में नष्ट हो सकते हैं और पिछले सहस्त्राब्दी में विलोपित हुए भी हैं । कम से कम हम अपने पूर्वजों का सम्मान करने के लिए उनके बारे में सच्चाई जानने का प्रयास तो करें ।

पहले भारतीय कौन थे? वे पहली बार भारत में कब आए? कहाँ से आये ? उनका जीवन कैसा था ? उनका समाज कैसा था? प्राचीन भारतीय सभ्यता कैसे विकसित हुई? उनका ज्ञान विज्ञान कैसा था ? उन्होंने क्या खोजों की? कैसी प्रौद्योगिकियों को विकसित किया? उन्होंने दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे प्राचीन शहरी सभ्यता का निर्माण कैसे किया? वे अपने महान शहरों को क्या कहते थे? उनकी भाषा कौनसी थी ? क्या वास्तव में उन्होंने यूनानियों से भी हजारों साल पहले एक आद्य-लोकतंत्र का विकास किया था ? उनके मनो मस्तिष्क में भारत के भविष्य की कैसी परिकल्पना थी? हम उनसे क्या सबक सीख सकते हैं?

ये वे सवाल हैं, जिन्हें हमारे तथाकथित "प्रतिष्ठित" इतिहासकारों ने पिछले सात दशकों में जनाने का कोई प्रयत्न नहीं किया | हमारी जड़ों का पता लगाने और जानने समझने में उनकी कोई दिलचस्पी थी ही नहीं | उनकी दिलचस्पी तो महज अपनी राजनीति चमकाने में थी | किन्तु आज देश जानना चाहता है, इस बात का उत्तर चाहता है कि हम वास्तव में कौन हैं ?

सच काफी कुछ बाहर आ चुका है। इसका यथार्थ हमारी भाषाओं और हमारे साहित्य में छिपा हुआ है, और हमारे डीएनए में तो यह है ही । विज्ञान ही वह कुंजी है, जिसकी तकनीक का उपयोग कर हम अपने गौरवशाली अतीत के रहस्य को जानने और समझने में समर्थ हो सकते हैं और वह समय आ गया है |

भारत ने अपने अतीत की पुनरीक्षा शुरू कर दी है, आने वाला समय सचमुच रोमांचक होगा |

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