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सांस्कृतिक पुनर्जागरण भारतीय परंपराओं की वैश्विक प्रासंगिकता - डॉ. अमरीक सिंह ठाकुर

 

वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में जब संपूर्ण विश्व नैतिक मूल्यहीनता, मानसिक तनाव, पर्यावरणीय असंतुलन, सांस्कृतिक विघटन तथा सामाजिक असमानता जैसी गम्भीर चुनौतियों से जूझ रहा है, तब भारतीय दर्शन, संस्कृति एवं परंपराओं की प्राचीन ज्ञान परंपरा एवं समग्र दृष्टि, सांस्कृतिक पुनर्जागरण के एक मार्गदर्शक शक्ति के रूप में उभर कर सामने आ रही है।

भारतीय जीवन दृष्टि की उन मूलभूत अवधारणाओं की समकालीन प्रासंगिकता जिनमें ‘वसुधैव कुटुंबकम्’, ‘धर्म’, ‘अहिंसा’, ‘संतुलन’ तथा ‘सत्य की साधना’ जैसे शाश्वत सिद्धांत समाहित हैं। भारतीय ज्ञान पद्धति का प्रयोग करते हुए वैदिक, उपनिषदिक, बौद्ध, जैन, तथा भक्ति परंपराओं के साथ-साथ आयुर्वेद, योग, वास्तु, नाट्य शास्त्र एवं ग्राम्य जीवन की जीवन शैली को आधुनिक संदर्भों में पुनर्परिभाषित कर सामुदायिक सशक्तिकरण में भी सहायक सिद्ध हो रहा है कि कैसे योग एवं आयुर्वेद जैसी परंपराएं आज वैश्विक स्वास्थ्य एवं मानसिक संतुलन के लिए प्रभावशाली विकल्प के रूप में उभर रही हैं, परंतु भारतीय ज्ञान परंपरा की दार्शनिक नींव को अभी भी समुचित पहचान नहीं मिली है।

अतीत की धरोहर, वर्तमान की आवश्यकता" भारतीय जीवन दृष्टि में भारतीय त्योहारों, लोकपरंपराओं, पारंपरिक कुटीर उद्योगों, मंदिर स्थापत्य, शास्त्रीय संगीत एवं नृत्य, और ‘सेवा’ की अवधारणा को सामाजिक एकता, ग्राम्य पर्यटन, सांस्कृतिक पुनर्जागरण, और आजीविका के साधन के रूप में पहचान मिली है। भारत के ग्रामीण अंचलों एवं प्रवासी भारतीय समुदायों में किए गए कार्यक्रम के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय परंपराओं का पुनर्जागरण न केवल सांस्कृतिक गर्व का माध्यम बन रहा है बल्कि आत्मनिर्भरता, स्थानीय रोजगार, एवं सामुदायिक सशक्तिकरण में भी सहायक सिद्ध हो रहा है।

वर्तमान वैश्विक परिदृश्य अनुभव यह भी दर्शाता है कि भारतीय ज्ञान परंपरा, सांस्कृतिक धरोहर को आज बाजारवाद, विकृतिकरण, एवं डिजिटल युग की एकांगी प्रस्तुति से खतरा है। ऐसे में, एक समुदाय-आधारित, मूल्यों पर आधारित और शैक्षणिक दृष्टिकोण से पुनर्संरचित सांस्कृतिक नीति की आवश्यकता है, जो भारतीय ज्ञान परंपरा को न केवल देश के भीतर बल्कि वैश्विक स्तर पर भी प्रभावशाली स्वरूप दे सके।

अंततः भारत को केवल एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में नहीं, बल्कि एक ‘सभ्यतागत राष्ट्र’ के रूप में प्रस्तुत करता है, जिसकी मूलधारा में दर्शन, संस्कृति और जीवनशैली की समग्रता निहित है। भारतीय परंपराएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी वे प्राचीन काल में थीं — केवल आवश्यकता है उन्हें समझने, सहेजने और नवाचार के साथ आगे बढ़ाने की।

भारतवर्ष की सांस्कृतिक विरासत और दार्शनिक परंपराएं हजारों वर्षों से मानव सभ्यता के लिए दिशा-दर्शन का कार्य करती आई हैं। जब विश्व औद्योगिक क्रांति के प्रभाव में केवल भौतिकता की ओर उन्मुख हो रहा था, भारत तब भी अध्यात्म, संतुलन और समग्र जीवन दृष्टि की बात करता था। आज जब तकनीकी प्रगति के बावजूद मानवता कई आंतरिक संकटों से जूझ रही है, तब भारतीय दृष्टिकोण की प्रासंगिकता पुनः केंद्र में आ गई है।

भारतीय दर्शन का मूल आधार ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति’, ‘अहिंसा परमो धर्मः’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ जैसी विचारधाराएं रही हैं। वैदिक साहित्य, उपनिषद, गीता, बौद्ध, जैन, सिख तथा भक्ति परंपराओं में वर्णित नैतिक सिद्धांत आज वैश्विक नीति और मानव अधिकारों की चर्चा के केंद्र में हैं। यह मूल्य समाज में समरसता, शांति और परस्पर सहयोग को बढ़ावा देते हैं। भारतीय संस्कृति महज धार्मिक अनुष्ठानों या रीति-रिवाजों का संकलन नहीं है, बल्कि यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संतुलन, सौहार्द और संयम का संदेश देती है।

पर्व-त्योहार, नृत्य-संगीत, वास्तुकला, ग्राम्य जीवन, लोककलाएं, और कुटीर उद्योग न केवल सांस्कृतिक अस्मिता को संरक्षित करते हैं, बल्कि आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में भी सहायक बनते हैं। आज सम्पूर्ण विश्व में योग, आयुर्वेद: स्वास्थ्य, संतुलन की वैश्विक स्वीकार्यता मिली है। सम्पूर्ण विश्व योग को एक वैज्ञानिक पद्धति के रूप में स्वीकार कर चुका है। मानसिक तनाव, अवसाद, जीवनशैली जनित बीमारियों के समाधान में योग एवं आयुर्वेद प्रमुख उपचार पद्धति के रूप में स्थापित हो चुके हैं। यह भारत की दार्शनिक परंपरा की व्यावहारिक उपयोगिता का जीवंत प्रमाण है।

वैश्वीकरण, बाजारीकरण और सांस्कृतिक चुनौतियां डिजिटल मीडिया और उपभोक्तावादी संस्कृति ने भारतीय परंपराओं को एकांगी ढंग से प्रस्तुत किया है। विज्ञापन, फिल्म और सोशल मीडिया के माध्यम से मूल्यों को विकृत किया जा रहा है। इस विकृति के विरुद्ध भारतीय परंपरा की मूल आत्मा को समझने और प्रस्तुत करने की आवश्यकता है।

भारतीय परंपराओं के पुनरुत्थान में शिक्षा और मीडिया की भूमिका सांस्कृतिक पुनर्जागरण के एक मार्गदर्शक शक्ति के रूप में उभर कर सामने आ रही है। शिक्षा प्रणाली में भारतीय ज्ञान परंपरा, शास्त्र, विज्ञान, एवं कला को समुचित स्थान देकर नई पीढ़ी को मूल्य आधारित सोच दी जा सकती है। साथ ही, मीडिया, सिनेमा एवं डिजिटल मंचों को भारत की सांस्कृतिक विरासत के संवाहक के रूप में विकसित करना आवश्यक है।

ग्राम्य भारत और सांस्कृतिक पुनर्जागरण, गांवों में आज भी भारतीय परंपराएं जीवंत हैं। पर्यटन, हस्तशिल्प, स्थानीय खानपान, लोकगीत-नृत्य के माध्यम से ग्राम्य भारत को सांस्कृतिक केंद्र बनाकर न केवल स्थानीय अर्थव्यवस्था को बल दिया जा सकता है बल्कि 'भारत की आत्मा' को पुनः स्थापित किया जा सकता है।

भारतीय दर्शन, संस्कृति एवं परंपराएं आज की दुनिया को स्थिरता, संतुलन और नैतिक दृष्टिकोण प्रदान कर सकती हैं। वर्तमान वैश्विक परिदृश्य इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि भारतीय परंपराएं केवल अतीत का गौरव नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य की दिशा हैं। विश्व को भारत की समग्र दृष्टि की अत्यधिक आवश्यकता है। COVID-19 जैसी वैश्विक आपदाओं ने भारतीय जीवन दृष्टि के “न्यूनतम संसाधनों में संतुलनपूर्ण जीवन” की अवधारणा को विश्वव्यापी मान्यता दिलाई है।

भारत को केवल एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में नहीं, बल्कि एक ‘सभ्यतागत राष्ट्र’ के रूप में समझने, सहेजने और नवाचार के साथ आगे बढ़ाने की है, जिसकी मूलधारा में दर्शन, संस्कृति और जीवनशैली की समग्रता निहित है। भारतीय दर्शन, महाकाव्यों में न केवल सांस्कृतिक, धार्मिक और नैतिक शिक्षा समाहित है, बल्कि इनमें विज्ञान और तकनीकी के कई पहलुओं का भी समावेश किया गया है। इनमें गणितीय और भौतिकी के सिद्धांतों को धनुर्विद्या के भी नियम, माप और संमिश्रण के विज्ञान को उजागर करती है।

भारतीय संस्कृति, जो हजारों वर्षों की ज्ञान परंपरा को समेटे हुए है, में रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों का अति महत्वपूर्ण स्थान है। ये महाकाव्य न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व रखते हैं, बल्कि इनमें विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अनेक अद्भुत उदाहरण भी देखने को मिलते हैं। रामायण और महाभारत में वर्णित तकनीकी और वैज्ञानिक विकास हमें यह बताते हैं कि प्राचीन भारतीय समाज में विज्ञान का सामर्थ्य और तकनीकी नवीनता कितनी प्रगति कर चुकी थी।

रामायण में कई तकनीकी और वैज्ञानिक आविष्कारों का उल्लेख मिलता है। सबसे प्रमुख है "गर्ग संहिता" जो समुद्र की गहराई, ग्रहों की स्थिति और अन्य ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर युद्ध के समय के निर्णयों में मदद करती थी। इसके अलावा, रामायण में " पुष्पक विमान" का उल्लेख भी मिलता है। रामायण में हनुमान द्वारा लाए गए संजीवनी बूटी का उल्लेख भी है, जो उनकी औषधीय क्षमता को दर्शाता है। यह न केवल अस्पतालों के लिए महत्व रखता था, बल्कि प्राचीन समय में औषधि विज्ञान के विकास की एक बुनियाद भी थी।

महाभारत में भी विभिन्न तकनीकी और वैज्ञानिक विकास के अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। इसे भारतीय ज्ञान परंपरा का एक महत्वपूर्ण स्तंभ माना जाता है। महाभारत में विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का उल्लेख मिलता है। इनमें 'ब्रह्मास्त्र', 'पशुपतास्त्र' जैसे शक्तिशाली अस्त्रों का वर्णन है, जो न केवल विनाशकारी होते थे, बल्कि इनका प्रयोग करने की एक विशेष विद्या भी होती थी। ये अस्त्र इस बात का प्रमाण हैं कि उस समय युद्ध और सुरक्षा के लिए कितनी तरकीबों और तकनीकों का विकास किया गया था।

महाभारत में गणित और भूगोल से संबंधित अवधारणाओं का भी उल्लेख है। जैसे कि "रुलिंग" और "ज्योतिष" के माध्यम से युद्ध के समय की गणना करना। महाभारत के युद्ध का आयोजन वैज्ञानिक रूप से तर्कसंगत ढंग से किया गया था, जिसमें सैनिकों की संख्या, उनके स्थान और अस्त्रों की स्थिति सभी का ध्यान रखा गया था। भारतीय ज्ञान परंपरा में विज्ञान और प्रौद्योगिकी का यह समृद्ध इतिहास हमें यह सिखाता है कि सामान्य ज्ञान और अनुभव के आधार पर कई नवीन आविष्कार किए जा सकते हैं। प्राचीन भारतीय ऋषियों और मुनियों ने अपने समय में जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी को विकसित किया, वह आज भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है। समग्र रूप से, प्राचीन समय के चिकित्सा ज्ञान और आधुनिक विज्ञान के बीच एक पुल का निर्माण किया जा सकता है, जहाँ पारंपरिक तरीकों को वैज्ञानिक दृष्टि से समझने और मान्य करने का प्रयास किया जा रहा है।

सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति में रामायण और महाभारत तकनीकी तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से एक अद्भुत धरोहर के रूप में उपस्थित हैं। ये महाकाव्य न केवल नैतिक और धार्मिक शिक्षा देते हैं, बल्कि हमें इस बात का भी ज्ञान कराते हैं कि प्राचीन भारतीय समाज में विज्ञान और तकनीकी नवाचार का कितना बड़ा योगदान था। आज हम जब अपनी सांस्कृतिक जड़ों को खोजते हैं, तब हमें इन महाकाव्यों में छिपा अद्भुत विज्ञान और तकनीकी विकास का गर्व महसूस होता है। यह हमारे आने वाले पीढ़ियों के लिए भी एक प्रेरणा स्रोत रहेगा, जो उन्हें आगे बढ़ने और नवाचार करने के लिए प्रेरित करेगा।

डॉ. अमरीक सिंह ठाकुर

सहायक प्रोफेसर

हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय।

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