लेबल

शिवपुरी नगर पालिका में सियासी महाभारत: क्या महादेव कर रहे हैं न्याय?

 

शिवपुरी की राजनीति इन दिनों जिस मोड़ पर खड़ी है, वह सिर्फ प्रशासनिक उठापटक नहीं, बल्कि एक गहरी आत्मा की पीड़ा और आस्था के अपमान से उपजा अंतर्विरोध है। करैरा के बगीचा सरकार पर लिए गए संकल्प से लेकर महादेव मंदिर की टीन शेड तक फैली घटनाओं की कड़ियाँ कुछ ऐसा संकेत दे रही हैं, जिसे केवल राजनीतिक दृष्टि से देखना नासमझी होगी।

नगर पालिका अध्यक्ष गायत्री शर्मा को लेकर शुरू हुआ असंतोष अब एक प्रचंड आंदोलन का रूप ले चुका है। वह आंदोलन जिसमें भावनाएं हैं, धारणाएं हैं, और सबसे बड़ी बात — एक अदृश्य शक्ति की मौजूदगी है। बगीचा सरकार पर जाकर असंतुष्ट पार्षदों ने जिस प्रकार शपथ ली, वह केवल एक फोटो खिंचवाने की कवायद नहीं थी, वह एक प्रतिज्ञा थी उस आस्था के नाम, जिसके सामने झुक कर हमारे पूर्वज निर्णय करते थे। पर क्या सत्ता का नशा इतना घना हो चुका है कि अब वह आस्था भी सत्ता के जूते तले रौंदी जा सकती है?

गायत्री शर्मा के समर्थकों की दलीलें हैं कि विरोध करने वाले पार्षद ठेकेदारी चाहते हैं, भुगतान रुकने से नाराज़ हैं। पर क्या सच इतना सरल है? क्या इतने वर्षों से नपा में कार्यरत, अध्यक्ष के साथ साए की तरह दिखने वाले पार्षद, अचानक ठेके की लालसा में विरोधी हो गए? विजय बिंदास, ओमी जैन, रघुराज गुर्जर, तारा राठौर और विशेष रूप से गौरव सिंघल — ये वे नाम हैं, जो कभी नपा अध्यक्ष के निर्णयों के मूल में थे। गायत्री शर्मा ने गौरव सिंघल के कहने पर वह कर दिखाया, जिसकी कल्पना भी कोई भाजपा नेता नहीं कर सकता था — हिंदुत्व की भावना को ठेस पहुँचाते हुए महादेव मंदिर की टीन शेड को उतरवाया गया।

और क्या इसे महज एक प्रशासनिक निर्णय कहा जाए, जिसमें मंदिर को ‘शराबियों के अड्डे’ में तब्दील हो जाने की संभावना बताई गई? यह कहना, अपने आप में न सिर्फ एक धार्मिक स्थल का अपमान है, बल्कि उस जनमानस की पीड़ा का भी मज़ाक है जो रोज़ उस मंदिर में अपने दुख-सुख कहने जाता है। और फिर, इस काम के लिए जिन नपा कर्मियों को भेजा गया, उनका चयन और उनकी धार्मिक पहचान को लेकर जो बातें सामने आईं, वह इस मुद्दे को और अधिक जटिल बना देती हैं।

शहर में यह चर्चा आम हो चुकी है कि मंदिर में शराब पी जाएगी — यह बात कहने वाला कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, बल्कि स्वयं भाजपा की नगर पालिका अध्यक्ष है। भाजपा, जो राम मंदिर को राष्ट्र गौरव मानती है, जो काशी और उज्जैन के पुनर्जागरण को हिंदू चेतना की पहचान बताती है, उसकी एक प्रतिनिधि यदि मंदिर को अपराधियों का ठिकाना बताती है, तो यह केवल विरोधियों की नहीं, बल्कि खुद संगठन की भी विफलता है।

यहां सवाल सिर्फ गायत्री शर्मा के विरोध का नहीं है। सवाल उस अहंकार का है, जो सत्ता में आते ही सुनने की क्षमता को लील जाता है। सवाल उस व्यवस्था का है, जहां जनता की भावना को टेंडर और भुगतान से तोला जाता है। सवाल उस चुप्पी का है, जो विधायक, सांसद, जिलाध्यक्ष, सीएमओ और हिंदुत्ववादी संगठनों ने साध रखी है, मानो महादेव की छाया में हो रही राजनीति उन्हें दृष्टिहीन कर चुकी हो।

जब महादेव मंदिर पर टीन शेड उतरवाने के बाद शहर की आत्मा चीख पड़ी, तब किसी ने कुछ नहीं कहा। जब गायत्री शर्मा के पति द्वारा हनुमान जी के पिता को लेकर अभद्र टिप्पणी की गई, तब भी सबने मौन का चोला ओढ़ लिया। और फिर, एक औपचारिक माफीनामा — जो शायद अंतरात्मा की पुकार नहीं, बल्कि संकट से बचने का यंत्र था — यही इस पूरे प्रकरण का ‘न्याय’ बन गया।

पर अब सवाल उठ रहा है — क्या वाकई यह न्याय हो गया?
या यह उस अन्याय का अगला अध्याय है, जिसमें आस्था को कुचलकर सत्ता की गाड़ी आगे बढ़ा दी जाती है?
क्या वह करैरा की धरती पर ली गई शपथ केवल एक रस्म थी, या कोई ईश्वरीय संकेत, जो अब मूर्त रूप ले रहा है?

यह वही नगर है जहाँ हर नुक्कड़ पर शिव की घंटियाँ बजती हैं, हर मोहल्ले में कोई न कोई मठ है, कोई न कोई मंदिर है, पर उन्हीं की आस्था पर अब राजनीति की गंदगी पोती जा रही है। और सबसे बड़ी बात — जब नगर सरकार की रीढ़ मानी जाने वाली पार्षद मंडली दो हिस्सों में बंट चुकी हो, जब एक केंद्रीय मंत्री से मिलने का कार्यक्रम विरोधी गुट तय कर रहा हो, तब क्या यह नहीं दर्शाता कि यह संकट केवल नपा का नहीं, पूरे राजनीतिक तंत्र का है?

अब समय प्रश्न करने का है —
क्या यह केवल सत्ता का संघर्ष है या महादेव की चेतना जाग चुकी है?
क्या यह संयोग है कि जिनके निर्णयों पर कभी फूल बरसते थे, आज वही निर्णय भारी विरोध और आक्रोश का कारण बन रहे हैं?
क्या महादेव मौन रहेंगे, या यह संकेत उन्हीं की कृपा का परिणाम हैं?

शायद ईश्वर न्याय कर रहे हैं।
या शायद…
हम ही उनकी चेतावनी को समझने में देर कर रहे हैं।