“मनु स्मृति”- प्रथम अध्याय (सृष्टि उत्पत्ति एवं धर्मोत्पत्ति विषय) भाग – 2

गतांक से आगे ....

श्रुष्टि उत्पत्ति विषयक वेदमंत्रों के प्रमाण :- 

नीचे प्रमाण रूप में वेदों के श्रुष्टि उत्पत्ति एवं पुरुषसूक्त के कुछ ऐसे मंत्र उद्धत किये जा रहे है जिनमे श्रुष्टि उत्पत्ति विषय पर प्रकाश पड़ता है ! इनमे परमेश्वर को निराकार, अजन्मा आदि दर्शाया गया है ! मनु ने इन्ही भावों को 1|५ -६ श्लोकों में संकलित किया है –

“तम आसीत तमसा ............................................जायतैकम || (ऋ.१०|१२९|३)

यह सब जगत श्रुष्टि से पहले अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य आकाशरूप सब जगत तथा तुच्छ अर्थात अनंत परमेश्वर के एकदेशी आच्छादित था, पश्चात परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य के कारणरूप से कार्यरूप कर दिया ||”

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नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं ..................................... गहनं गभीरम || (ऋ. १०|१२९|१)

जब यह कार्यश्रुष्टि उत्पन्न नहीं हुई थी तब एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर और दूसरा जगत का कारण अर्थात जगत बनाने की सामग्री विराजमान थी, उस समय शून्य्नाम आकाश अर्थात जो नेत्रों से देखने में नहीं आता सो भी नहीं था, क्यूंकि उस समय उसका व्यवहार नहीं था ! उस काल में सत अर्थात सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण मिलाकर जो प्रधान कहाता है वह भी नहीं था ! उस समय परमाणु भी नहीं थे तथा विराट अर्थात जो सब स्थूल जगत के निवास का स्थान है सो भी नहीं था ! जो यह वर्तमान जगत है वह भी शुद्ध ब्रह्म को नहीं ढक सकता जैसे कोहरा का जल प्रथ्वी को नहीं ढक सकता ! उस जल से नदी में प्रवाह नहीं चल सकता और न कभी वह गहरा और उथला हो सकता है ! इससे क्या जाना जाता है कि परमेश्वर अनंत है और जो यह उसका बनाया जगत है सो ईश्वर की अपेक्षा से कुछ भी नहीं है !” (ऋ. भू. ११७)

प्रजापतिश्चरति ....................................................विजायते | (यजु. ३१|१९)

जो प्रजा का पति अर्थात सब जगत का स्वामी है वही जड़ और चेतन के भीतर और बाहर अन्तर्यामी रूप से सर्वत्र व्याप्त हो रहा है, जो सब जगत को उत्पन्न करके अपने आप सदा अजन्मा रहता है !” (ऋ.भू. १३३)

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प्रकृति से महत्त आदि तत्वों की उत्पत्ति –

उदबबर्हाssत्मनश्चैव मन:...........................................रमिश्वरम ||१४|| (७)

महान्तमेव .......................................................... पञ्चेन्द्रियाणी च ||१५|| (८)

और फिर उस परमात्मा ने स्वाश्रयस्थित कृति से जो कारणरूप में विद्यमान रहे और विकारी अंश से कार्यरूप में जो अविद्यमान रहे, ऐसे स्वभाव वाले ‘महत्त’ नामक तत्व को और महतत्त्व से ‘में हूँ’ ऐसा अभिमान करने वाले सामर्थ्यशाली ‘अहंकार’ नामक तत्व को और फिर उससे सब त्रिगुणात्मक पांच तन्मात्राओं – शब्द, स्पर्श, रूप, रंग, रस, गंध को तथा आत्मोपकारक अथवा निरंतर गमनशील ‘मन’ इन्द्रीय को और विषयों को ग्रहण करने वाली दोनों वर्गों की पाँचों ज्ञानेन्द्रियों – आँख,कान,नाक,जिह्वा,त्वचा एवं चकार से पांच कर्मेन्द्रियों – हाथ,पैर,वाक्,उपस्थ,पायु को यथाक्रम से उत्पन्न कर प्रकट किया !

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अनुशीलन – 

१४-१५ श्लोकों के अर्थ में भ्रान्ति और श्रुष्टि उत्पत्ति की प्रक्रिया –

इन दोनों श्लोकों के अर्थ को सही रूप में न समझने के कारण टीकाकारों और आलोचकों को भ्रान्ति का शिकार होना पडा है ! टीकाकारों ने श्रुष्टि उत्पत्ति की प्रक्रिया का यहाँ प्रतिक्रम से वर्णन माना है और ‘मन: सदसदात्मकम’ का संकल्प-विकल्पात्मक मन अर्थ किया है और फिर मन से पूर्व अहंकार, अहंकार से पूर्व महत्त इत्यादि रूप में अर्थ किया है ! लेकिन वह ‘प्रतिक्रम’ भी क्रमबद्ध रूप से सिद्ध नहीं हो पाया है, क्यूंकि १५वे श्लोक में महतत्व के बाद इन्द्रियों का वर्णन आ गया ! इस अर्थ की भ्रान्ति के कारण आलोचकों ने इन श्लोकों को भ्रामक घोषित कर दिया ! वस्तुतः इन श्लोकों के अर्थ को सही रूप में नहीं समझा गया है ! मनु स्मृति का और सांख्यदर्शन का श्रुष्टि उत्पत्ति का क्रम मिलता है –

‘सत्वरजस्तमसां ......................................................पंचविंशतिर्गण: || (सांख्य १|६१)

(सत्व) शुद्ध (रज) मध्य (तमः)जाड्य अर्थात जड़ता, तीन वास्तु मिलकर जो एक संघात है उसका नाम प्रकृति है ! उससे महतत्व (बुद्धि), उससे अहंकार, उससे पांच तन्मात्रा, सूक्ष्मभूत और दस इन्द्रियाँ तथा ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओं से पृथ्वीत्यादी पांच भूत से चौबीस, और पच्चीसवां पुरुष अर्थात जीव और परमेश्वर है ! इनमे से प्रकृति अधिकारिणी और महतत्व, अहंकार तथा पांच सूक्ष्मभूत प्रकृति का कार्य और इन्द्रियों, मन तथा स्थूल भूतों का कारण है ! पुरुष न किसी की प्रकृति = उपादानकारण और न किसी का कार्य है !” (स.प्र.२०९) यही क्रम यहाँ है !


पञ्चमहाभूतों की श्रुष्टि का वर्णन –

तेषां त्ववयवान्सूक्ष्मान ..................................................... निर्ममे ||१६|| (९)

वर्णित तत्वों में से अत्याधिक शक्तिवाले छः तत्वों के सूक्ष्म अवयवों शब्द,स्पर्श,रूप,रस और गंध यह पांच तन्मात्राएं तथा छठे अहंकार के सूक्ष्म अवयवों को उनके आत्मभूत तत्वों के विकारी अंशों अर्थात कारणों से मिलाकर सब पाँचों सूक्ष्म महाभूतों आकाश,वायु,अग्नि,जल और पृथ्वी की श्रुष्टि की ||१६||

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अनुशीलन –

पञ्चतन्मात्राओं से पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति –

जो जिससे सूक्ष्म होता है वह उस स्थूल की आत्मा होता है ! अहंकार से पञ्चतन्मात्राओं की उत्पत्ति हुई है अतः अहंकार पञ्चतन्मात्राओं की आत्मा कहलायेगा ! इस प्रकार पंचभूतों की रचना की प्रक्रिया और क्रम यह बना – पञ्चतन्मात्राओं के आत्मरूप तत्व अहंकार के विकारी अंश और आकाश के सूक्ष्म अवयवों = शब्द तन्मात्राओं के मिलने से ‘आकाश’ नामक सूक्ष्म महाभूत की रचना हुई ! वायु के आत्मभूत तत्व आकाश के विकारी अंश तथा वायु के सूक्ष्म अवयवों स्पर्श तन्मात्राओं के मिलने से ‘वायु’ नामक महाभूत की रचना हुई ! अग्नि के आत्मभूत तत्व वायु के विकारी अंश के साथ अग्नि के सूक्ष्म अवयव अर्थात रूपतन्मात्राओं के संयोग से ‘अग्नि’ नामक महाभूत की रचना हुई ! जल के आत्मभूततत्व अग्नि के विकारी अंश के साथ जल के सूक्ष्म अवयव अर्थात रसतनमात्रा के संयोग से ‘जल’ नामक महाभूत बना और पृथ्वी के आत्मभूत तत्व जल के विकारी अंश के साथ प्रथ्वी के सूक्ष्म अवयव अर्थात गंधतन्मात्रा के संयोग से ‘पृथ्वी’ नामक सूक्ष्म महाभूत की रचना हुई ! (दृष्टव्य १|७५-७८ श्लोक)

क्रमशः
साभार – विशुद्ध मनुस्मृति
भाष्यकार – प्रो. सुरेन्द्र कुमार

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