“मनु स्मृति”- प्रथम अध्याय (सृष्टि उत्पत्ति एवं धर्मोत्पत्ति विषय) भाग – 5

गतांक से आगे ....

जीवों का कर्मों से संयोग –

यं तु कर्मणि ................................................................पुनः पुनः ||२८||(१८)

उस परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में जिस प्राणी को जिस कर्म में लगाया प्रत्येक सृष्टि उत्पत्ति समय में वह फिर उत्पन्न होता हुआ अर्थात जन्म धारण करता हुआ उसी कर्म को ही अपने आप प्राप्त करने लगा ||२८||

हिंसाहिंस....................................................................... स्वयमाविशत ||२९||(१९)

हिंसा अहिंसा दयायुक्त और कठोरतायुक्त धर्म तथा अधर्म असत्य और सत्य जिस प्राणी का जो कर्म सृष्टि के प्रारम्भ में उस परमात्मा ने धारण कराना था उस को वही कर्म अपने आप ही प्राप्त हो गया ||२९||

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अनुशीलन –

जगदुत्पत्ति-प्रयोजन एवं कर्मफल –

सृष्टि के आरम्भ में प्राणियों के कर्मों की भिन्नता के कारण और जगत रचना के प्रयोजन पर प्रकाश डालते हुए महर्षि दयानद लिखते है –

“(प्रश्न) जगत बनाने में परमेश्वर का क्या प्रयोजन है ?

(उत्तर) प्रलय के पूर्व सृष्टि में जीवों के किये पाप पुण्य कर्मों का फल ईश्वर कैसे दे सकता और जीव क्योँ कर भोग सकते थे ?’’ (स.प्र.२१३)

(प्रश्न) ईश्वर ने किन्ही जीवों को मनुष्य जन्म, किन्ही को सिंह अआदी क्रूर जन्म, किन्ही को हिरन, गाय आदि पशु, किन्ही को वृक्षादि, कृमि,कीट, पतंग आदि जन्म दिए है; इससे परमात्मा में पक्षपात आता है ?

(उत्तर) पक्षपात नहीं आता, क्यूंकि उन जीवों के पूर्व सृष्टि में किये हुए कर्मोंनुसार व्यवस्था करने से जो कर्म के बिना जन्म देता तो पक्षपात आता !” (स.प्र.२२३-२२४)

यथर्तुलीगान्युतयः ............................................................देहिनः ||३०|| (२०)

जैसे ऋतुएं ऋतू परिवर्तन होने पर अपने आप ही अपने अपने ऋतूचिन्हों – जैसे बसंत आने पर कुसुम विकास,आम्रमंज्जरी आदि को प्राप्त करती है उसी प्रकार देह धारी प्राणी भी अपने अपने कर्मों को प्राप्त करते है अर्थात अपने अपने कर्मों में संलग्न हो जाते है ||३०||

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चार वर्णों की व्यवस्था का निर्माण –

लोकानां तु .....................................................................निरवर्तयत ||३१|| (२१)

प्रजाओं अर्थात समाज की विशेष वृद्धि= शान्ति, सम्रद्धि एवं प्रगति के लिए मुख, बाहु, जंघा और पैर के गुणों की तुलना के अनुसार क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण को निर्मित किया ! अर्थात चातुर्वणय व्यवस्था का निर्माण किया ||३१|| 

(प्रचलित अर्थ – लोक वृद्धि हेतु ब्रह्मा ने मुख,बाहू,उरु और पैर से क्रमशः ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र की सृष्टि की ||३१||)

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अनुशीलन – 

(१) चातुरण्यवर्ण व्यवस्था निर्माण वेदों से –

वेद में पुरुषसूक्त में चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन आया है ! मनु ने इस श्लोक में ठीक उसी प्रकार वर्णों की उत्पत्ति दर्शाई है ! इन मन्त्रों से मनु का भाव और स्पष्ट हो जाता है तथा ब्रह्मा के अंगों से चार वर्णों की उत्पत्ति की भ्रान्ति का भी निराकरण हो जाता है ! जैसा कर्मों-गुणों के आधार पर आलंकारिक वर्णन वेद में है वैसा ही मनु स्मृति में है ! मंत्र निम्न है –

यत्पुरुषं ............................................................. उच्येते || (यजु. ३१|१०)

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पुरुष उसको कहते है कि जो सर्वशक्तिमान ईश्वर कहाता है जिसके सामर्थ्य का अनेक प्रकार से प्रतिपादन करते है क्यूंकि उसमे चित्र विचित्र बहुत कार का सामर्थ्य है, अनेक कल्पनाओं से जिसका कथन करते है ! इस पुरुष के मुख अर्थात मुख्य गुणों से इस संसार में क्या उत्पन्न हुआ है बल वीर्य, शूरता और युद्ध आदि विद्या गुणों से किसकी उत्पत्ति हुई है ! व्यापार आदि माध्यम गुणों से किसकी उत्पत्ति होती है ? इन चारों प्रश्नों के उत्तर यह है कि –

|| ब्राह्मणोंSस्य मुखमासीत बाहू राजन्यः कृतः | ऊरूतदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत || (यजु. ३१|११)

इस पुरुष की आज्ञा के अनुसार जो विद्या, सत्यभाषण आदि उत्तमगुण और श्रेष्ठ कर्मों से ब्राह्मणवर्ण उत्पन्न होता है, वह मुख्य कर्म और गुणों के सहित होने से मनुष्यों में उत्तम कहाता है और ईश्वर ने बल पराक्रम आदि पूर्वोक्त गुणों से युक्त क्षत्रिय वर्ण को उत्पन्न किया है खेती,व्यापार और सब देशों की भाषाओं को जानना तथा पशुपालन आदि माध्यम गुणों से वैश्य वर्ण सिद्ध होता है ! जैसे पग सबसे नीच अंग है वैसे मूर्खता आदि नीच(*) गुणों से शूद्र वर्ण सिद्ध होता है !” (ऋ.भू.१२५-१२६)

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(*) यहाँ महर्षि दयानंद द्वारा प्रयुक्त ‘नीच’ शब्द ‘उच्च’ का विलोमार्थक है, जो संस्कृत ‘निम्न’ का पर्यायवाची है, यह आजकल की भाषा और व्यवहार में प्रयुक्त ‘नीच’ घृणार्थक नीच अर्थ में नहीं है ! इसका अर्थ है – ‘गुणों के अनुपात में निम्न गुणों वाला !’

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वर्णोंत्पत्ति विषयक भ्रांत कल्पना –इस श्लोक की व्याख्या करते हुए कुल्लुकभट्ट ने एक अत्यंत अविश्वश्नीय कल्पना की है और उसे उसी प्रकार के विश्वास से पुष्ट किया है ! उन्होंने इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार किया है – ‘ब्रह्मा ने अपने मुख से ब्राह्मण,बाहुओं से क्षत्रिय,जंघाओं से वैश्य और पैर से शूद्र को पैदा किया है !’ इस अंध कल्पना पर कभी किसी का विश्वास न बने, शायद उन्होंने इसलिए यह वाक्य भी जोड़ा –‘दैव्या च शतया मुखादिभ्यो ब्राह्मणादिनिर्वाणं ब्रह्लणेा न विशङ्कनीयं श्रुतिसिद्धत्वात्। तथा च श्रुतिः। ब्राह्मणेाsस्य मुखमासीत’ (ऋक १०|९०|१२) ! अर्थात – ब्रह्मा के मुख आदि से ब्राह्मण आदि का निर्माण दिव्या शक्ति से हुआ है, इसमें किसी प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए, क्यूंकि यह बात वेदों से सिद्ध है, वेद में कहा है कि – ‘ब्राह्मण इस परमात्मा का मुख हुआ !’ वस्तुतः यहाँ आलंकारिक वर्णन है, जिसका अर्थ इस प्रकार बनता है कि परमात्मा ने मुख, बाहु, जंघा और पैर के गुणों की समानता के अनुसार क्रमशः चारों वर्णों का निर्माण किया है ! जैसे ७|४ में इंद्र, वायु, यम, सूर्य, चन्द्र आदि आठ वस्तुओं के अंश से राजा का निर्माण होना कहा है ! स्पष्ट है कि इनसे राजा की रचना नहीं हो सकती, किन्तु आलंकारिक रूप से यहाँ राजाओं में इनके गुणों का होना अभिप्रेत है ! ठीक इसी प्रकार यहाँ भी गुणों की समानता के आधार पर वर्णों की रचना का कथन है !

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शैली और प्रसंग के अनुसार भी यदि विचार किया जाए तो इसका आलंकारिक ही अर्थ बनता है, कुल्लुकभट्ट और उनके अनुशरणकर्ताओं का अर्थ असंगत सिद्ध होता है –

(१) सृष्टि उत्पत्ति क्रम में १|१६,१९,22 में मनुष्यादी प्राणियों की उत्पत्ति का होना कहा जा चुका है और उसके पश्चात ऋषियों से वेद ज्ञान की प्रकटता (१|३३), प्रजाओं की सुख दुखादि से संयुक्ति (१|२६) आदि भी दिखाई जा चुकी है फिर दोबारा उत्पत्ति कैसी ?

(२) मनुस्मृति में ब्रह्मा का प्रसंग प्रक्षिप्त है, अतः उसका नाम जोड़कर अर्थ करना भी उचित नहीं (इसके लिए १|७ -१३ पर समीक्षा देखिये !) और परमात्मा सूक्ष्म, अवयव होने से शरीर धारण नहीं करता ! अतः उसके मुखादि की कल्पना भी नहीं हो सकती, उनसे उत्पत्ति आदि की कल्पना का तो फिर प्रश्न ही नहीं !

(३) यदि ब्रह्मा के माध्यम से यह उत्पत्ति मानी जाए तो उस प्रसंग से भी यह अंध कल्पना सिद्ध नहीं होती ! यातोहि, ब्रहमा के प्रसंग में सृष्टि उत्पत्ति का क्रम –‘ब्रह्मा से विराट, विराट से मनु और मनु से अन्य श्रुष्टि (१|३२-४१) इस रूप में उल्लेखित है ! उससे भी अनेक प्रकार से विरोध आता है – 

(क) मनु की उत्पत्ति बाद में हुई दर्शाई गयी है और ब्राह्मण आदि की उत्पत्ति पहले ही दिखा दी ! 

(ख) जब उक्त ब्रह्मा की वंश परम्परा से सारी सृष्टि उत्पत्ति मानी है तो ब्राह्मण आदि पहले ही क्योँ और किससे पैदा हुए ? 

(ग) यदि ब्राह्मण आदि को पहले ही उत्पन्न कर दिया था तो फिर विराट,मनु आदि की उत्पत्ति की ब्रह्मा को क्या आवश्यकता थी ? सृष्टि तो उन्ही से चल जाती ! 

(घ) जब मुख आदि से ब्राह्मण आदि की रचना कर डाली तो फिर ‘विराट’ को भी क्योँ न किसी अंग से बनाया ? उनके जन्म के लिए पहले स्त्री रचना की आवश्यकता क्योँ हुई ? (१|३२) ! इस प्रकार अनेक युक्तियों से कुल्लुकभट्ट और उनके अनुशरणकर्ताओं की कल्पना गलत और असंगत सिद्ध होती है, अतः आलंकारिक अर्थ ही मनु-अभिप्रेत मानना चाहिए !

क्रमशः
साभार – विशुद्ध मनुस्मृति
भाष्यकार – प्रो. सुरेन्द्र कुमार

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