गतांक से आगे ....
सूक्ष्म शरीर से आत्मा का संयोग –
सदाविशन्ति भूतानि .............................................सर्वभूतकुदव्ययम ||१८||
तब जगत के तत्वों की सृष्टि होने पर अपने अपने कर्मों के साथ शक्तिशाली सभी सूक्ष्म महाभूत और समस्त सूक्ष्म अवयवों अर्थात इन्द्रियादी के साथ मन सब भौतिक प्राणों शरीरों को जन्म=जीवनरूप देने वाले अविनाशी आत्मा को (क्यूंकि जीवात्मा के संयोग से ही समस्त शरीरों में जीवन आता है और उसके वियोग से समाप्त हो जाता है) आवेष्टित करते है (और इस प्रकार सूक्ष्म शरीर की रचना होती है) ||१८||
अनुशीलन –
1. पंचमहाभूतों के कर्म –
पंचमहाभूतों में आकाश का कर्म है अवकाश देना, वायु का गति, तेज का पाक, जल का एकत्रीकरण और प्रथ्वी का कर्म धारण करना है !
2. १८वें श्लोक का सांगत अर्थ –
प्रायः सभी टीकाकारों ने इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार किया है – ‘विनाश रहित एवं सब भूतों के कर्ता उस ब्रहम से अपने अपने कर्मों से युक्त पंचमहाभूत आकाश आदि और सूक्ष्म अवयवों के साथ मन की श्रुष्टि हुई !’
समस्त विनश्वर संसार की उत्पत्ति –
तेषामिदं तु ................................................संभवत्यव्ययादुव्ययम ||१९||
विनाश रहित परमात्मा में श्रुष्टि के मूल कारण अविनाशिनी प्रकृति से उन्ही महाशक्तिशाली सात तत्वों – महत्त,अहंकार तथा पांच तन्मात्राओं के जगत के पदार्थ का निर्माण करने वाले सूक्ष्म विकारी अंशों से यह दृश्यमान विनाशशील विकाररूप जगत उत्पन्न होता है ||१९||
अनुशीलन
यह समस्त विनाशशील जगत सक्षेप में निम्न प्रक्रिया से प्रकटरूप में आता है ! गत श्लोकों में यही प्रक्रिया और क्रम बतलाया है –
1. श्रुष्टि उत्पत्ति का क्रम –
“जब श्रुष्टि का समय आता है, तब परमात्मा उन परमसूक्ष्म पदार्थों को इकठ्ठा करता है ! उसकी प्रथम अवस्था में जो परमसूक्ष्म प्रकृतिरूप कारण से कुछ स्थूल होता है उसका नाम महतत्व, और जो उससे कुछ स्थूल होता है उसका नाम अहंकार और अहंकार से भिन्न भिन्न पांच – सूक्ष्मभूत श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ; वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा, ये पांच कर्म इन्द्रियाँ है और ग्यारहवा मन कुछ स्थूल उत्पन्न होता है ! और उन पञ्च तन्मात्राओं से अनेक स्थूलावस्थाओं को प्राप्त करते हुए क्रम से पांच स्थूलभूत जिनको हम लोग प्रत्यक्ष देखते है, उत्पन्न होते है ! उनसे नाना प्रकार की औषधियां, वृक्ष आदि, उनसे अन्न, भग्न से वीर्य और वीर्य से शरीर होता है, परन्तु आदि सृष्टि मैथुनी नहीं होती, क्यूंकि जब स्त्री-पुरुषों के शरीर परमात्मा बनाकर उनमे जीवों का संयोग कर देता है तदन्तर मैथुनी सृष्टि चलती है !” (स.प्र.२२२)
2. पुरुष के महतत्व आदि अर्थ –
निरुक्त २|१|३ में पुरुष की व्युत्पत्ति दी है – “पुरिशयः =पुरुषः !” इस आधार पर अपने कार्यपदार्थों में सूक्ष्मरूप से शयन करने अर्थात स्थिर रहने से महतत्व आदि सूक्ष्म तत्व ‘पुरुष’ कहलाते है ! शत.ब्राह्मण में ‘वायु’ और ‘अग्नि’ महाभूत को ‘पुरुष’ संज्ञा से अभिहित किया गया है [१३|६|२|१;१०|४|१|६] !
3. सृष्टि में मनुष्यों की उत्पत्ति –
“(प्रश्न) मनुष्य की सृष्टि प्रथम हुई या पृथ्वी आदि की ?
(उत्तर) पृथ्वी आदि की, क्यूंकि पृथ्वी आदि के बिना मनुष्य कि स्थिति और पालन नहीं हो सकता !” (स.प्र.२२३)
“(प्रश्न) सृष्टि के आदि में एक वा अनेक मनुष्य उत्पन्न किये थे ?
(उत्तर) अनेक, क्यूंकि जिन जीवों के कर्म ऐश्वरी सृष्टि में उत्पन्न होने के थे उनका जन्म सृष्टि के आदि में ईश्वर देता, क्यूंकि “मनुष्या ऋषयश्च ये | ततो मनुष्या अजायन्त” यह यजुर्वेद में लिखा है ! इस प्रमाण से यही निश्चय है कि आदि में अनेक अर्थात सैकड़ों, सहस्त्रों मनुष्य उत्पन्न हुए और सृष्टि में देखने से भी निश्चित होता है कि मनुष्य अनेक माँ-बापों की संतान है !” (स.प्र.२२३)
पंचमहाभूतों के गुणों का कथन –
आघाघस्य .................................................... स्मृतः ||२०|| (१२)
इन पंचमहाभूतों में पूर्व पूर्व के भूतों के गुण को परला परला अर्थात उतरोत्तर बाद में उत्पन्न होनेवाला भूत प्राप्त करता है और जो जो भूत जिस संख्या पर स्थित है वह वह उतने ही अधिक गुणों से युक्त माना गया है ||२०||
अनुशीलन -
पंचमहाभूतों का क्रम और गुण – जैसे, पंचमहाभूतों का निश्चित क्रम है –
1. आकाश
२. वायु
3. अग्नि
४. जल
5. पृथ्वी
उनमे आकाश प्रथम स्थान पर है, इस प्रकार उसका केवल एक अपना शब्द गुण ही है | वायु द्वितीय स्थान पर है, अतः उसके दो गुण है – एक अपने से पहले वाले आकाश का शब्द तथा दूसरा अपना स्पर्श गुण ! इसी प्रकार तृतीय स्थानीय अग्नि में दो अपने से पहले वाले आकाश और वायु नामक भूतों के क्रमशः शब्द,स्पर्श गुण है तथा तीसरा अपना रूप गुण ! चतुर्थ स्थानीय जल के इसी प्रकार चार गुण है – शब्द,स्पर्श रूप,रूप और रस ! पंचम स्थानीय पृथ्वी में पांच गुण है – शब्द,स्पर्श रूप,रस और गंध ! इसे तालिका द्वारा निम्न प्रकार स्पष्ट किया जाता है –
वेद शब्दों से नामकरण एवं विभाग –
सर्वेषां तु स .................................................... निर्ममे ||२१|| (१३)
उस परमात्मा ने सब पदार्थों के नाम और भिन्न भिन्न कर्म अथवा मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के हिंसक-अहिंसक आदि कर्म तथा पृथक पृथक विभाग या व्यवस्थाएं सृष्टि के प्रारम्भ में बनायी अर्थात मन्त्रों के द्वारा यह ज्ञान दिया ||२१||
अनुशीलन -
1. इस श्लोक के अर्थ पर प्रकाश डालते हुए महर्षि दयानंद ने लिखा है –
“इस वचन के अनुकूल आर्य लोगों ने वेदों का अनुकरण करके जो व्यवस्था की, वह सर्वत्र प्रचलित है ! उदाहरणार्थ – सब जगत में सात ही वार है, बारह ही महीने है और बारह ही राशियाँ है, इस व्यवस्था को देखो (पू.प्र.८९)
वेद में भी कहा है –
शाश्व्तीभ्यः समाभ्यः || (यजु. ४०|८)
अर्थात आदि सनातन जीवरूप प्रजा के लिए वेद द्वारा परमात्मा ने सब विधाओं का बोध किया है !” (स.प्र.२०८)
२. श्रुष्टि के प्रारम्भ में नामकरण –
अभिप्राय यह है कि सृष्टि के प्रारम्भ में वेद्शब्दों के द्वारा ही मनुष्यों को नाम,कर्म,विभाग आदि का ज्ञान हुआ ! परमात्मा ने वेद्शब्दों के रूप में यह सब ज्ञान दिया ! ‘निर्ममे’ से यहाँ भाव, नाम, कर्म, विभाग आदि का ज्ञान वेद्शब्दों में अन्तर्निहित करके लोगों को अवगत कराने से है !
3. २१ वें श्लोक का सांगत अर्थ –
कुल्लूकभट्ट ने इस श्लोक की व्याख्या करते हुए व्यवस्थाओं के उदाहरण में – ‘कुम्हार का घडा बनाना, जुलाहे का कपड़ा बनाना’ ये उदाहरण गलत व मनु विरुद्ध दिए है ! यहाँ व्यवस्थाओं से अभिप्राय है जैसे – चार वर्णों की व्यवस्था ! इसे १|३१ में मनु ने कर्मानुसार परमात्मा-निर्मित माना है ! इसी प्रकार राज्यव्यवस्था आदि भी हो सकती है ! मनु ने केवल चार वर्णों को माना है ! उनके मत में कुम्हार,जुलाहा आदि कोई जाती उपजाति नहीं है और न ही ये जातियां या उनके ये कार्य ईश्वर रचित है ! मनु के अनुसार तो ‘शिल्पकार्य’ वैश्य का कार्य है, चाहे वह किसी भी प्रकार का शिल्पकार्य करे वैश्य ही कहलायेगा, कुम्हार या जुलाहा नहीं ! मनु की व्यवस्था के अनुसार जो व्यक्ति आज बर्तन बनाने का कार्य कर रहा है वह कल कपडे बनाने का कार्य भी कर सकता है, परसों कोई अन्य, फिर भी वह वैश्य ही कहलायेगा कुम्हार या जुलाहा नहीं ! क्यूंकि, मनु ने ऐसी जातियां और उनके नामों का निर्धारण ही नहीं किया ! जाती उपजाति की कल्पनाएं वर्णव्यवस्थाओं की शिथिलता के पश्चात कार्यरूढ़ी के आधार पर अवर समाज द्वारा की गयी है ! अतः उन्हें ईश्वर रचित व्यवस्था मानकर मनु के श्लोक में उदाहरण रूप में देना गलत एवं मनु की व्यवस्था के विरुद्ध है !
क्रमशः
साभार – विशुद्ध मनुस्मृति
भाष्यकार – प्रो. सुरेन्द्र कुमार
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