“मनु स्मृति”- प्रथम अध्याय (सृष्टि उत्पत्ति एवं धर्मोत्पत्ति विषय) भाग – 6


गतांक से आगे ....

प्राणियों की उत्पत्ति का प्रकार –

येषां तु ........................................................................... च जन्मनी ||४२|| (२२)

अर्थात - इस संसार में जिन मनुष्यों का –वर्णगत मनुष्यों का जैसा कर्म वेदों में कहा है उसे वैसे ही और उत्पन्न होने में जीवों का जो एक निश्चित प्रकार रहता है, उसे आप लोग को कहूंगा ||४२||

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अनुशीलन – 

४२ वें श्लोक की शैली एवं अर्थ पर विचार 

(१) सृष्टि उत्पत्ति का प्रसंग समाप्त होकर वह प्रसंग कर्मों के वर्णन की और चला गया था ! किन्तु सृष्टि के सम्बन्ध में कुछ ऐसी बातें अभी शेष रह गयी थी , जिनसे अवगत कराना मनु को आवश्यक लगा ! इसलिए वेग को बदलकर पुनः सृष्टि उत्पत्ति पर लाये है जिससे शेष अग्रिम बातों की जानकारी दे सके ! पहले उस प्रसंग को बदलने का संकेत कर दिया है ! मनु की यह एक शैली है कि जब भी वे कोई निम्न प्रसंग शुरू करते है, उसका संकेत देते है ! इस कारण प्रसंग – भिन्नता का दोष नहीं आता !

(२) यहाँ ‘कीर्तितम’ से ‘वेदों में कहा है’ यह भाव अभिप्रेत है |१|३,२१,८७ श्लोकों से यह पुष्ट होता है ! इन श्लोकों में मनु ने यह भाव प्रकट किया है कि – परमात्मा ने जो भी कर्म आदि बनाए उनका ज्ञान वेदों के द्वारा कराया ! यहाँ वेदों में कहे कर्मों को ही मनु बतलाएँगे, यतो हि १|३ में मनु को ‘कार्यतत्वार्थवित्’ कहकर वेदों द्वारा प्रतिपादित धर्म अधर्मों को ही जानने की इच्छा प्रकट की थी !

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(३) ‘क्रमयोगम’ से यहाँ क्रमानुसार अर्थ लेना उचित नहीं है ! जीवों के उत्पन्न होने में जो एक निश्चित प्रकार रहता है जैसे- मनुष्यादि जरायु से पैदा होते है ! पक्षी,सर्प आदि अण्डों से, इत्यादि यहाँ ‘क्रमयोग च जन्मनि’ का इसी से अभिप्राय है !

जरायु जीव 

पशवाच मृगाश्चैव ........................................................जरायुजाः ||४३|| (२३)
अर्थात - ग्राम्यपशु गौ आदि अहिंसक वृत्ति वाले वन्यपशु हिरन आदि और दोनों और दांत वाले हिंसक वृत्ति वाले पशु सिंह, व्याघ्र आदि तथा राक्षस पिशाच तथा मनुष्य ये सब ‘जरायुत’ अर्थात झिल्ली से पैदा होनेवाले है ||४३||

अनुशीलन –

राक्षस और पिशाच का लक्षण ३|३३-३४ श्लोकों की समीक्षा में दृष्टव्य है !

अंडज जीव

अंडजाः पक्षिण:........................................स्थलजान्यौदकानि च ||४४|| (२४)
अर्थात - पक्षी, सांप, मगरमच्छ, मछलियां तथा कछुए और अन्य जो इस प्रकार के भूमि पर रहने वाले जीव है, वे सब ‘अंडज’ अर्थात अंडे से उत्पन्न होने वाले है ||४४||

स्वेदज जीव 

स्वेदजं दंशमशकं यूकामक्षिकमत्कुणम् |
ऊष्मणश्चोपजायन्ते यच्चान्यत्किं चिदीदृषम् ||४५|| (२५)
अर्थात - (दशंमशकम्) डंक से काटने वाले मच्छर आदि (यूका) जूं (मक्षिक) मक्खियां (मत्कुणम्) खटमल (यत् च अन्यत् किंच्चित् ईदृशम्) जो और भी कोई इस प्रकार के जीव हैं जो (ऊष्मणः) ऊष्मा अर्थात् सीलन और गर्मी से (उपजायन्ते) पैदा होते हैं, वे सब (स्वेदजम्) ‘स्वेदज’ अर्थात् पसीने से उत्पन्न होने वाले कहाते हैं ||४५||

अनुशीलन –

संस्कृत के शब्दकोशों के अनुसार और जैसा कि इस श्लोक से भी ज्ञात होता है, यहाँ ‘स्वेद’ शब्द का अर्थ व्यापक है ! प्राकृतिक पदार्थों में उत्पन्न क्लिन्नता = सीलन या ताप्युक्त सीलन, प्राणियों के शरीर से उत्प्पन पसीना और नवमेधकृत सेचन, ये सब ‘स्वेद’ कहलाते है ! इन स्वेदरूपों से श्लोक में वर्णित तथा अन्य बहुत से लघु जीव उत्पन्न होते है ! वे सब ‘स्वेदज’ कहलाते है !

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उद्दिज्ज जीव तथा औषधियाँ –

उद्भिज्जाः स्थावराः सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिणः | 
ओषध्यः फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः ||४६|| (२६)
अर्थात - (बीजकाण्डप्ररोहिणः) बीज और शाखा से उत्पन्न होने वाले (सर्वे स्थावराः) सब स्थावर (एक स्थान पर टिके रहने वाले) जीव वृक्ष आदि (उद्भिज्जाः) ‘उद्भिज’ – भूमि को फाड़कर उगने वाले कहाते हैं । इनमें – (फल – पाकान्ता) फल आने पर पककर सूख जाने वाले और (बहुपुष्पफलोपगाः) जिन पर बहुत फूल – फल लगते हैं, वे ‘ओषधि’ कहलाते हैं ||४६||

वनस्पति तथा वृक्ष –

अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः ।
पुष्पिणः फलिनश्चैव वृक्षास्तूभयतः स्मृताः ||४७|| (२७)
अर्थात - (ये अपुष्पाः फलवन्तः) जिन पर बिना फूल आये ही फल लगते हैं (ते) वे (वनस्पतयः स्मृताः) ‘वनस्पतियाँ’ कहलाती हैं (जैसे – बड़ (वट), पीपल, गलूर आदि) (च) और (पुष्पिणः फलिनः एव) फूल लगकर फल लगने वाले (उभयतः) दोनों से युक्त होने के कारण (वृक्षाः) वे उद्धिज्ज स्थावर जीव ‘वृक्ष’ (स्मृताः) कहलाते हैं ||४७|| (२७)

गुल्म,गुच्छ,तृण तथा बेल –

गुच्छगुल्मं तु विविधं तथैव तृणजातयः ।
बीजकाण्डरुहाण्येव प्रताना वल्ल्य एव च ||४८|| (२८)
अर्थात - (विविधम्) अनेक प्रकार के (गुच्छ) जड़ से गुच्छे के रूप में बनने वाले ‘झाड़’ आदि (गुल्मम्) एक जड़ से अनेक भागों में फूटने वाले ‘ईख’ आदि (तथैव) उसी प्रकार (तृणजातयः) घास की सब जातियां, (बीज – काण्डरूहाणि) बीज और शाखा से उत्पन्न होने वाले (प्रतानाः) उगकर फैलने वाली ‘दूब’ आदि (च) और (वल्ल्यः) उगकर किसी का सहारा लेकर चढ़ने वाली बेलें (एव) ये सब स्थावर भी ‘उद्धिज्ज’ कहलाते हैं ।

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वृक्षों में अंतश्चेतना –

तमसा बहुरूपेण वेष्टिताः कर्महेतुना ।
अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः ||४९|| (२९)

(कर्महेतुना) पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण (बहुरूपेण तमसा) बहुत प्रकार के तमोगुण से (वेष्टिताः) संयुक्त या घिरे हुए (एते) ये स्थावर जीव (अन्तः – संज्ञाः भवन्ति) आन्तरिक चेतना वाले (जिनके भीतर तो चेतना है किन्तु बाहरी क्रियाओं में प्रकट नहीं होती) होते हैं (सुख – दुःखसमन्विताः) और सुख – दुःख के भावों से युक्त होते हैं । अर्थात इनके भीतर चेतना तो होती है किन्तु चार प्राणियों के समान बाहरी क्रियाओं में प्रकट नहीं होती | अत्याधिक तमोगुण के कारण चेतना और भावों का प्रकटीकरण नहीं हो पाता |

अनुशीलन – 

वृक्षों की चेतनता पर विचार – 

अर्थात - मनु ने यहाँ वृक्षादि में चेतना तो स्वीकार की है, किन्तु वह चेतना बाह्यरूप में प्रकट होनेवाली न होकर केवल आंतरिक मानी है ! दूसरी बात यह है कि ये अत्याधिक तमों गुण से वेष्टित है !

यद्यपि सुख दुःख के भावों से युक्त चेतना इनमे है किन्तु तमोगुणाधिक्य के कारण उनकी अनुभूति इनमे नहीं है ! जैसे मूर्च्छित प्राणी में चेतना होते हुए भी सुख दुःख का ज्ञान नहीं होता है ! अतः वृक्षों के साथ सुख दुःख का व्यवहार नहीं है ! सुख दुःख अनुभूति उसी को होती है जो पंचेंद्रियों से संयुक्त होता है और उन इन्द्रियों के साथ उनके विषय का सम्बन्ध होता है, अन्यथा नहीं ! 

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परमात्मा की जाग्रत एवं सुषुप्ति अवस्थाएं –

यदा स देवो जागर्ति तदेवं चेष्टते जगत् । 
यदा स्वपिति शान्तात्मा तदा सर्वं निमीलति ||५२|| (३०)
अर्थात - (यदा) जब (सः देवः) वह परमात्मा (१।६ में वर्णित) (जागर्ति) जागता है अर्थात् सृष्ट्युत्पत्ति के लिए प्रवृत्त होता है (तदा) तब (इदं जगत् चेष्टते) यह समस्त संसार चेष्टायुक्त (प्रकृति से समस्त विकृतियों की उत्पत्ति पुनः प्राणियों का श्वास – प्रश्वास चलना आदि चेष्टाओं से युक्त) होता है, (यदा) और जब (शान्तात्मा) यह शान्त आत्मावाला सभी कार्यों से शान्त होकर (स्वपिति) सोता है अर्थात् सृष्टि – उत्पत्ति, स्थिति से निवृत्त हो जाता है (तदा) तब (सर्वम्) यह समस्त संसार (निमीलति) प्रलय को प्राप्त हो जाता है ।

परमात्मा की सुषुप्ति अवस्था में जगत की प्रलायावस्था – 

तस्मिन्स्वपिति तु स्वस्थे कर्मात्मानः शरीरिणः । 
स्वकर्मभ्यो निवर्तन्ते मनश्च ग्लानिं ऋच्छति ||५३|| (३१)
अर्थात - (सुस्थे) सृष्टि – कर्म से निवृत्त हुए (तस्मिन् स्वपिति तु) उस परमात्मा के सोने पर (कर्मात्मानः) कर्मों – श्वास – प्रश्वास, चलना – सोना आदि कर्मों में लगे रहने का स्वभाव है जिनका, ऐसे (शरीरिणः) देहधारी जीव भी (स्वकर्मभ्यः, निवर्तन्ते) अपने – अपने कर्मों से निवृत्त हो जाते हैं (च) और (मनः) ‘महत्’ तत्त्व (ग्लानिम्) उदासीनता – सब कार्य – व्यापारों से विरत होने की अवस्था को या अपने कारण में लीन होने की अवस्था को (ऋच्छति) प्राप्त करता है ।

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अनुशीलन –

मन शब्द से यहाँ ‘महतत्व’ अर्थ अभिप्रेत है ! इसकी पुष्टि के लिए १ | १४-१५ श्लोकों की समीक्षा दृष्टव्य है !

युगपत्तु प्रलीयन्ते यदा तस्मिन्महात्मनि ।
तदायं सर्वभूतात्मा सुखं स्वपिति निर्वृतः ||५४|| (३२)

अर्थात - (तस्मिन् महात्मनि) उस सर्वव्यापक परमात्मा के आश्रय में (यदा) जब (युगपत् तु प्रलीयन्ते) एक साथ ही सब प्राणी चेष्टाहीन होकर लीन हो जाते हैं (तदा) तब (अयं सर्वभूतात्मा) यह सब प्राणियों का आश्रयस्थान परमात्मा (निर्वृतः) सृष्टि – संचालन के कार्यों से निवृत्त हुआ – हुआ (सुखं स्वपिति) सुख पूर्वक सोता है ।

एवं स जाग्रत्स्वप्नाभ्यां इदं सर्वं चराचरम् । 
संजीवयति चाजस्रं प्रमापयति चाव्ययः ||५७|| (३३)
अर्थात - (सः अव्ययः) वह अविनाशी परमात्मा (एवम्) इस प्रकार (५१-५४ के अनुसार) (जाग्रत् – स्वप्नाभ्याम्) जागने और सोने की अवस्थाओं के द्वारा (इदं सर्वं चर – अचरम्) इस समस्त जड़ चेतन जगत् को क्रमशः (अजस्त्रं संज्जीवयति) प्रलयकाल तक निरन्तर जिलाता है (च) और फिर (प्रमापयति) मारता है अर्थात् कारण में लीन करता है ।

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अनुशीलन :-

मान्यता एवं भावसाम्यता के लिए इसकी पुष्टि में १२|१२४ श्लोक भी दृष्टव्य है !

निमेष, काष्ठा, कला, मुहर्त और दिन रात का काल- परिमाण –

(दश च अष्टौ च) दश और आठ मिलाकर अर्थात् अठारह (निमेषाः) निमेषों (पलक झपकने का समय) की (काष्ठा) १ काष्ठा होती है (ताः त्रिंशत्तु) उन तीन काष्ठाओं की (कला) १ कला होती है (त्रिंशत्कलाः) तीस कलाओं का (मुहूत्र्त स्यात्) एक मुहूत्र्त (४८ मिनट का) होता है , और (तावतः तु) उतने ही अर्थात् ३० मुहूत्र्तों के (अहोरात्रम्) एक दिन – रात होते हैं । 

अहोरात्रे विभजते सूर्यो मानुषदैविके ।
रात्रिः स्वप्नाय भूतानां चेष्टायै कर्मणां अहः ||६५||(३५)

अर्थात - (सूर्यः) सूर्य (मानुष – दैविके) मानुष – मनुष्यों के और दैवी – देवताओं के (अहोरात्रे) दिन – रातों का (विभजते) विभाग करता है, उनमें (भूतानां स्वप्नाय रात्रिः) प्राणियों के सोने के लिए ‘रात’ है और (कर्मणां चेष्टायें अहः) कामों के करने के लिए ‘दिन’ होता है ।

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दैवी दिन रात उतरायण दक्षिणायन –

दैवे रात्र्यहनी वर्षं प्रविभागस्तयोः पुनः । अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्याद्दक्षिणायनम् ||६७|| (३६)

अर्थात - (वर्षम्) मनुष्यों का एक वर्ष (दैवे रात्र्यहनी) देवताओं के एक दिन – रात होते हैं (तयोः पुनः प्रविभागः) उनका भी फिर विभाग है (तत्र उदगयनम् अहः) उनमें ‘उत्तरायण’ देवों का दिन है, और (दक्षिणायनम् रात्रिः स्यात्) ‘दक्षिणा-यन’ देवों की रात है ।

क्रमशः
साभार – विशुद्ध मनुस्मृति
भाष्यकार – प्रो. सुरेन्द्र कुमार

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2 टिप्पणियाँ

  1. बहुत बहुत धन्यवाद यह अति उत्तम कार्य का बीड़ा उठाने के लिए!

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    1. आपका स्नेह इसी प्रकार बना रहे ..... धन्यवाद

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