“मनु स्मृति”- प्रथम अध्याय (सृष्टि उत्पत्ति एवं धर्मोत्पत्ति विषय) भाग – 8

गतांक से आगे ....

चारों वर्णों के कर्मों का निर्धारण –

सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः । 
मुखबाहूरुपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत् ||८७||(५०)
अर्थात - अस्य सर्वस्य सर्गस्य इस ५ – ८० पर्यन्त श्लोकों में वर्णित समस्त संसार की गुप्त्यर्थम् गुप्ति अर्थात् सुरक्षा, व्यवस्था एवं समृद्धि के लिए सः महाद्युतिः महातेजस्वी परमात्मा ने मुख – बाहुं – ऊरू – पद् – जानाम् मुख, बाहु जघा और पैर की तुलना से निर्मितों के अर्थात् क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों के पृथक् कर्माणि अकल्पयत् पृथक् – पृथक् कर्म बनाये ।

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ब्राह्मण के कर्म -

अध्यापनं अध्ययनं यजनं याजनं तथा । 
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानां अकल्पयत् ||८८||(५१)
अर्थात - ब्राह्मणानाम् ब्राह्मणों के अध्ययनम् अध्यापनम् पढ़ना – पढ़ाना तथा तथा यजनं याजनम् यज्ञ करना – कराना, दानं, च प्रतिग्रहम् एव दान देना और लेना, ये छः कर्म अकल्पयत् हैं ।

(स० प्र० चतुर्थ समु०)

‘‘एक निष्कपट होके प्रीति से पुरूष पुरूषों को और स्त्री स्त्रियों को पढ़ावे – दो – पूर्ण विद्या पढें, तीन – अग्निहोत्रादि यज्ञ करें, चार – यज्ञ करावें, पांच – विद्या अथव सुवर्ण आदि का सुपात्रों को दान देवें, छठा – न्याय से धनोपार्जन करने वाले गृहस्थों से दान लेवें भी ।’’

(सं० वि० गृहाश्रम प्रकरण)

“इनमे से तीन कर्म पढना, यज्ञ करना, दान देना, धर्म में; और तीन कर्म पढ़ाना, यज्ञ कराना, दान लेना जीविका है | परन्तु –

प्रतिग्रह: प्रत्यवरः ||मनु.||

जो दान लेना है, वह नीच कर्म है | किन्तु पढ़ा कर और यज्ञ करा कर जीविका करनी उत्तम है |

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अनुशीलन:-

ब्राह्मण नाम कर्मणा वर्णाव्यवस्था का सूचक –

वर्णों के नामों की व्याकरणानुसारी रचना और व्युत्पत्ति से भी यह बात सिद्ध होती है कि मनु ने कर्मानुसार ही वर्णों का नामकरण किया है और नामों से वर्णों के कर्मों का भी बोध होता है | ब्राह्मण प्रातिपदिक से ‘तदधीते तद्धेद’ (अष्टा. ४|२|५९) अर्थ में ‘अण’ प्रत्यक्ष के योग से ‘ब्राह्मण’ शब्द बनता है | इसकी व्युत्पत्ति है – ‘ब्राह्मणा वेदेन परमेश्वरस्य उपासनेन च सह वर्तमानो विद्यादी उत्तमगुणयुक्ताः पुरुषः’ अर्थात वेद और परमात्मा के अध्यन और उपासना में तल्लीन रहते हुए विद्या आदि उत्तम गुणों को धारण करने से व्यक्ति ‘ब्राह्मण’ कहलाता है | मनु ने भी इन्ही कर्मों को ब्राह्मण के प्रमुख कर्मों के रूप में वर्णित किया है |

ब्राह्मण ग्रंथो के वचनों में भी वर्णों के कर्मों का वर्णन पाया जाता है | निम्न वचनों में ब्राह्मण के कर्त्तव्य उद्धिष्ट है –

आग्नेयों ब्राह्मणः (तां १५|४|८) | आग्नेयो हि ब्राह्मणः (काठ.२९|१०) = यज्ञाग्नि से सम्बन्ध रखने वाला अर्थात यज्ञकर्ता ब्राह्मण होता है |

ब्राह्मणों वृतभृत (तै.सं. १|६|७|२) | वृतस्य रूपं यत सत्यम (श. १२|८|२|४) = ब्राह्मण श्रेष्ठ व्रतों – कर्मों को धारण करने वाला होता है | सत्य बोलना व्रत का एक रूप है |

गायत्रो वै ब्रह्मणः (ऐ. १|२८) | गायत्री यज्ञः (गो. पू. ४|२४) | गायत्रो वै बृहस्पतिः (तां. ५|१|१५) = ब्राह्मण गायत्र होता है | गायत्र वेद, यज्ञ और परमात्मा को कहते है |

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क्षत्रिय के कर्म –

प्रजानां रक्षणं दानं इज्याध्ययनं एव च । 
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः ||८९||(५२)
अर्थात - ‘‘दीर्घ ब्रह्मचर्य से अध्ययनम् सांगोपांग वेदादि शास्त्रों को यथावत् पढ़ना, इज्या अग्निहोत्र आदि यज्ञों का करना दानम् सुपात्रों को विद्या, सुवर्ण आदि और प्रजा को अभयदान देना, प्रजानां रक्षणम् प्रजाओं का सब प्राकर से सर्वदा यथावत् पालन करना…….. (विषयेष्वप्रसक्तिः) विषयों में अनासक्त होके सदा जितेन्द्रिय रहना – लोभ, व्यभिचार, मद्यपानादि नशा आदि दुव्र्यसनों से पृथक् रहकर विनय सुशीलतादि शुभ कर्मों में सदा प्रवृत्त रहना’’ । (सं० प्र० षष्ठ समु०)

क्षत्रियस्य समासतः ये संक्षेप से क्षत्रिय के कर्म हैं ।

‘‘न्याय से प्रजा की रक्षा अर्थात् पक्षपात छोड़के श्रेष्ठों का सत्कार और दुष्टों का तिरस्कार करना, सब प्रकार से सबका पालन दान विद्या धर्म की प्रवृत्ति और सुपात्रों की सेवा में धनादि पदार्थों का व्यय करना इज्या अग्निहोत्रादि यज्ञ करना वा कराना अध्ययन वेदादि शास्त्रों का पढ़ना तथा पढ़ाना और विषयों में न फंसकर जितेन्द्रिय रह के सदा शरीर आत्मा से बलवान् रहना ।’’ (स० प्र० चतुर्थ समु०)

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वैश्य के कर्म –

पशूनां रक्षणं दानं इज्याध्ययनं एव च । 
वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिं एव च ||९०||(५३)
अर्थात - ‘‘पशुरक्षा गाय आदि पशुओं का पालन वर्धन करना, दान विद्याधर्म की वृद्धि करने कराने के लिए धनादि का व्यय करना इज्या अग्निहोत्रादि यज्ञों का करना अध्ययन वेदादि शास्त्रों का वणिक्पथ सब प्रकार के व्यापार करना कुसीद एक सैंकड़े में चार, छः, आठ, बारह , सोलह वा बीस आनों से अधिक ब्याज और मूल से दूना अर्थात् एक रूपया दिया हो तो सौ वर्ष में भी दो रूपये से अधिक न लेना और न देना कृषि खेती करना वैश्यस्य ये वैश्य के कर्म हैं ।’’ (स० प्र० चतुर्थ समु०)

‘‘अध्ययनम् वेदादि शास्त्रों का पढ़ना इज्या अग्निहोत्रादि यज्ञों का करना दानम् अन्नादि का दान देना, ये तीन धर्म के लक्षण और पशूनां रक्षणम् गाय आदि पशुओं का पालन करना उनसे दुग्धादि का बेचना वणिक् पथम् नाना देशों की भाषा, हिसाब, भूगर्भविद्या, भूमि, बीज आदि के गुण जानना और सब पदार्थों के भावाभाव समझना कुसीदम् ब्याज का लेना कृषिमेव च खेती की विद्या का जानना, अन्न आदि की रक्षा, खात और भूमि की परीक्षा, जोतना, बोना , आदि व्यवहार का जानना, ये चार कर्म वैश्य की जीविका ।’’ (सं० वि० गृहाश्रम प्रक०)

‘‘सवा रूपये सैंकड़े से अधिक, चार आने से न्यून ब्याज न लेवें न देवें । जब दूना धन आ जाये, उससे आगे कौड़ी न लेवे, न देवे । जितना न्यून ब्याज लेवेगा उतना ही उसका धन बढ़ेगा और कभी धन का नाश और कुसन्तान उसके कुल में न होंगे ।’’ (सं० वि० गृहाश्रम प्रक० में ऋ० दया० की टिप्पणी)

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शूद्र के कर्म –

एकं एव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत् । 
एतेषां एव वर्णानां शुश्रूषां अनसूयया ||९१||(५४)
अर्थात - ‘‘प्रभुः परमेश्वर ने शूद्रस्य जो विद्याहीन – जिसको पढ़ने से भी विद्या न आ सके, शरीर से पुष्ट, सेवा में कुशल हो, उस शूद्र के लिए एतेषामेव वर्णानाम इन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों की अनसूयया निन्दा से रहित प्रीति से शुश्रूषाम् सेवा करना, एकमेव कर्म यही एक कर्म समादिशत् करने की आज्ञा दी है ।’’ (सं० वि० गृहाश्रम प्रक०)

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अनुशीलन – 

‘शूद्र’ नाम कर्मणा व्यवस्था का सूचक – 

शुच शोकार्थक (भ्वादि) धातु से ‘शुचेर्दश्च’ (उणा. २|१९) सूत्र से ‘रक्’ प्रत्यय, उकार को दीर्घ, च को द होकर ‘शूद्र’ शब्द बनता है | शूद्रः = शोचनीयः शोच्यां स्थितिमापन्नो वा, सेवायां साधुर अविद्यादिगुणसहितो मनुष्यों वा = शूद्र वह व्यक्ति होता है जो अपने अज्ञान के कारण किसी प्रकार की उन्नत स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाया और जिसे अपनी निम्न स्थिति होने की तथा उसे उन्नत करने की सदैव चिंता बनी रहती है अथवा स्वामी के द्वारा जिसके भरण पोषण की चिंता की जाती है ऐसा सेवक मनुष्य |
ब्राह्मण ग्रांटों में भी यही भाव मिलता है – “असतो व एष सम्भूतो यत शूद्रः” (तै. 3|२|३|९) असतः = अविद्यातः | अज्ञान और अविद्या से जिसकी निम्न जीवन स्थिति रह जाती है, जो केवल सेवा आदि कार्य ही कर सकता है, ऐसा मनुष्य शूद्र होता है |

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(२) शूद्र के कर्तव्यों के प्रसंग में, शूद्र के प्रति मनु की धारणा क्या है, इस बात पर भी प्रकाश पड जाता है | मनु ने वहां शूद्र के लिए शुचिः = ‘पवित्र’ (शरीर एवं मन से), उत्कृष्ट शुश्रुषुः = ‘उत्तम सेवा करने वाला’ जैसे विश्लेषणों का प्रयोग किया है | इससे स्पष्ट होता है कि मनु की शूद्र के प्रति हीन भावना नहीं है | सबकी सेवा करने वाला व्यक्ति अपवित्र कैसे हो सकता है ?

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(3) शूद्र जन्मना नहीं होता किन्तु वह व्यक्ति शूद्र होता है जो उपनयन में दीक्षित होकर ब्रह्मजन्म अर्थात वेदाध्यन रुपी द्वितीय जन्म को प्राप्त नहीं कर सका | द्विजों को द्विज इसलिए कहा जाता है कि उनका अध्यनरुपी दूसरा ब्रह्मजन्म उपनयन के समय होता है “द्विजार्यते इति द्विजः|” शूद्र का यह दूसरा जन्म न होने से उसका पर्यायवाची शब्द ‘एकजातिः’ = एक जन्म वाला है | इससे सिद्ध हुआ कि मनु जन्मना नहीं, व्यक्ति को कर्मणा शूद्र मानते है | देखिये मनु ने यह मान्यता १०|४ में प्रकट की है – 

“चतुर्थः एकजातिस्तु शूद्रः |”

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वह उत्तम कर्मों से उच्च वर्ण को भी प्राप्त कर सकता है | (९|३३५||१०|६५)

शूद्र के कुछ विस्तृत कर्तव्यों का वर्णन ९|३३४-३३५ श्लोकों में है | उन श्लोकों से मनु की शूद्र सम्बन्धी यह मान्यता और भी स्पष्ट हो जाती है कि वे शूद्र को जन्मना नहीं मानते तथा न घृणास्पद मानते है |

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क्रमशः
साभार – विशुद्ध मनुस्मृति
भाष्यकार – प्रो. सुरेन्द्र कुमार

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