“मनु स्मृति”- प्रथम अध्याय (सृष्टि उत्पत्ति एवं धर्मोत्पत्ति विषय) भाग – 11

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धर्म के चार आधाररूप लक्षण -
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियं आत्मनः | 
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ||१३१|| [२|१२] (६८)

अर्थात - ‘‘श्रुंति – वेद, स्मृति – वेदानुकूल आप्तोक्त, मनुस्मृत्यादि शास्त्र सत्पुरूषों का आचार जो सनातन अर्थात् वेद द्वारा परमेश्वर प्रतिपादित कर्म और अपने आत्मा में प्रिय अर्थात् जिसको आत्मा चाहता है जैसा कि सत्यभाषण, ये चार धर्म के लक्षण अर्थात् इन्हीं से धर्माधर्म का निश्चय होता है । जो पक्षपातरहित न्याय सत्य का ग्रहण असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार है, उसी का नाम धर्म और इस के विपरीत जो पक्षपात सहित अन्यायाचरण, सत्य का त्याग और असत्य का ग्रहण रूप कर्म है, उसी को अधर्म कहते हैं ।’’
(स० प्र० तृतीय समु०)

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धर्म जिज्ञासा में श्रुति परम प्रमाण और धर्म ज्ञान के पात्र –

अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते ।
धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः ||१३२|| [२|१३] (६९)

अर्थात - अर्थकामेषु असक्तानाम् जो पुरूष अर्थ – सुवर्णादि रत्न और काम – स्त्रीसेवनादि में नहीं फंसते हैं धर्मज्ञानं विधीयते उन्हीं को धर्म का ज्ञान होता है धर्मं जिज्ञासमानानाम् जो धर्म के ज्ञान की इच्छा करें, वे प्रमाणं परमं श्रुतिः वेद द्वारा धर्म का निश्चय करें , क्यों कि धर्म – अधर्म का निश्चय बिना वेद के ठीक – ठीक नहीं होता ।
(स० प्र० तृतीय समु०)

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‘‘परन्तु जो द्रव्यों के लोभ और काम अर्थात् विषय – सेवा में फंसा हुआ नहीं होता, उसी को धर्म का ज्ञान होता है । जो धर्म को जानने की इच्छा करें उनके लिए वेद ही परम प्रमाण है ।’’
(स० प्र० दशम समु०)

‘‘धर्मशास्त्र में कहा है कि – अर्थ और काम में जो आसक्त नहीं, उनके लिये धर्मज्ञान का विधान है ।’’
(द० ल० वे० ख० ६)

‘‘जो मनुष्य सांसारिक विषयों में फंसे हुए हैं उन्हें धर्म का ज्ञान नहीं हो सकता । धर्म के जिज्ञासुओं के लिए परम प्रमाण वेद है ।’’
(पू० प्र० १०५)

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वेदोक्त सब विधान धर्म है -

श्रुतिद्वैधं तु यत्र स्यात्तत्र धर्मावुभौ स्मृतौ |
उभावपि हि तौ धर्मौ सम्यगुक्तौ मनीषिभिः ||१३३|| [२|१४] (७०)

अर्थात - जहाँ कहीं श्रुति वेद में दो पृथक् आदेश विहित हों तत्र ऐसे स्थलों पर उभौ वे दोनों ही विधान धर्मो स्मृतौ धर्म माने हैं मनीषिभिः मनीषी विद्वानों ने तौ उभौ अपि सम्यक् धर्मौ उक्तौ उन दोनों को ही श्रेष्ठ धर्म स्वीकार किया है ।

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उदितेऽनुदिते चैव समयाध्युषिते तथा ।
सर्वथा वर्तते यज्ञ इतीयं वैदिकी श्रुतिः ||१३४|| [२|१५] (७१)

अर्थात - उदिते सूर्योदय के समय च अनुद्विते और सूर्यास्त के समय तथा तथा समयाध्युषिते किसी भी निर्धारित किये समय में जैसे विशेष उपलक्ष्य में आयोजित यज्ञ सर्वथा यज्ञ वर्तते सब स्थितियों में यज्ञ कर लेना चाहिए इति इयं वैदिकी श्रुतिः इस प्रकार ये तीनों ही वैदिक वचन हैं अर्थात् ये तीनों ही धर्म हैं ।

अनुशीलन –

अर्थ भेद- एक मत के अनुसार यहाँ प्रातः के तीन यज्ञ समयों का विकल्प है – ‘उदिते’ = सूर्योदय होने पर, ‘अनुदिते’ = सूर्योदय से पूर्व पक्षात्र दिखने तक, ‘सम्यध्युषिते’ = नक्षत्र दर्शन बंद होने से सूर्यदर्शन से पूर्व तक ! ऐसा अर्थ करने पर सांयकाल का परिगामण नहीं होता ! इस टीका का अर्थ ही व्यापक एवं पूर्ण है !

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ब्रह्मावर्त देश की सीमा –

सरस्वतीदृशद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् ।
तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते ||१३६|| [२|१७] (७२)

अर्थात - सरस्वती – दृषद्वत्योः देवनद्योः सिन्धु और ब्रह्मपुत्र इन देवनदियों के यत् अन्तरम् जो अन्तराल – मध्यवर्तीका भाग है, तं देवनिर्मितं देशम् उस विद्वानों द्वारा बसाये देश को ब्रह्मावर्त प्रचक्षते ‘ब्रह्मावर्त’ कहा जाता है ।

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महर्षि दयानन्द ने ब्रह्मावर्त के स्थान पर आर्यावत्र्त पाठ ग्रहण करके निम्न व्याख्या दी है –

देवनद्योः सरस्वती – दृषद्वत्योः देवनदियों – देव अर्थात् विद्वानों के संग से युक्त सरस्वती और दृषद्वती नदियों, उनमें सरस्वती नदी जो पश्चिम प्रान्त में वर्तमान उत्तर देश से दक्षिण समुद्र में गिरती है, जिसे सिन्धु नदी कहा जाता है और पूर्व में जो उत्तर से दक्षिण देशीय समुद्र में गिरती है, जिसे ब्रह्मपुत्र के नाम से जानते हैं , इन दोनों नदियों के यत् अन्तरम् बीच का देवनिर्मितम् विद्वानों – आर्यों द्वारा सुशोभित देशम् स्थान आर्यावत्र्त प्रचक्षते ‘आर्यावत्र्त’ कहलाता है ।

(ऋ० दया० पत्र वि० पृ० ९९ – हिन्दी में अनूदित)

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उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में इस श्लोक के साथ १४१ वां या २।२२ वां श्लोक संयुक्त करके उसकी व्याख्या इस प्रकार की है – ‘‘उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विध्यांचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र तथा सरस्वती पश्चिम में अटक नदी , पूर्व में दृषद्वती जो नेपाल के पूर्वभाग पहाड़ से निकल के बंगाल के आसाम के पूर्व और ब्रह्मा के पश्चिम और होकर दक्षिण के समुद्र में मिली है जिसको ब्रह्मपुत्रा कहते हैं और जो उत्तर के पहाड़ों से निकल के दक्षिण के समुद्र की खाड़ी में अटक मिली है । हिमालय की मध्यरेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर और रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं उन सबको आर्यावत्र्त इसलिये कहते हैं कि यह आर्यावत्र्त देव अर्थात् विद्वानों ने बसाया और आर्य जनों के निवास करने से आर्यावत्र्त कहाया है ।’’(स० प्र० अष्टम समु०)

सदाचार का लक्षण –

तस्मिन्देशे य आचारः पारम्पर्यक्रमागतः |
वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ||१३७|| [२|१८] (७३)

अर्थात - तस्मिन् देशे उस ब्रह्मावर्त देश में वर्णानां सान्तरालानां पारम्पर्य-क्रमागतः य आचारः वर्णों और आश्रमों का जो परम्परागत आचार है । सः वह सदाचार उच्यते सदाचार कहलाता है ।

(प्रचलित अर्थ – उस देश में ब्राह्मण आदि और अम्बष्ठ रथकार आदि वर्ण संकर जातियों का कुल परम्परागत जो आचार है, वही ‘सदाचार’ कहा जाता है |)

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सारे संसार के लोग ब्रह्मवर्त के विद्वानों से चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें -

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः |
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवाः ||१३९|| [२|२०] (74)

अर्थात - एतत् देशप्रसूतस्य इसी ब्रह्मावर्त देश (१३६ – १३७) में उत्पन्न हुए अग्रजन्मनः सकाशात् ब्राह्मणों – विद्वानों के सान्निध्य से पृथिव्यां सर्वमानवाः पृथिवी पर रहने वाले सब मनुष्य स्वं स्वं अपने – अपने चरित्रं शिक्षेरन् आचरण तथा कत्र्तव्यों की शिक्षा ग्रहण करें ।

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महर्षि दयानन्द ने उसी आर्यावर्त के पाठ के अनुसार अर्थ किया है –

‘‘इसी आर्यावत्र्त में उत्पन्न हुए ब्राह्मणों अर्थात् विद्वानों से भूगोल के सब मनुष्य – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, दस्यु, म्लेच्छ आदि सब अपने अपने योग्य विद्या चरित्रों की शिक्षा और वि़द्याभ्यास करें ।’’
(स० प्र० एकादश समु०)

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मध्यप्रदेश की सीमा –

हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्यं यत्प्राग्विनशनादपि |
प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः ||१४०|| [२|२१] (७५)

अर्थात - हिमवद् – विन्ध्ययोः मध्यं उत्तर में हिमालय पर्वत और दक्षिण में विन्ध्याचल के मध्यवर्ती यत् प्राक् विनशनादपि तथा पूर्व में विनशन – सरस्वती नदी के लुप्त होने के स्थान से लेकर जो पूर्व दिशा का प्रदेश है च और प्रयागात् प्रत्यग् प्रयाग से पश्चिम में जो प्रदेश है मध्यदेशः प्रकीर्तितः ‘मध्यदेश’ कहा जाता है ।

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आर्यावर्त देश की सीमा –

आ समुद्रात्तु वै पूर्वादा समुद्राच्च पश्चिमात् |
तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः ||१४१|| [२|२२] (७६)

अर्थात - आ – समुद्रात्तु वै पूर्वात् जो पूर्वसमुद्र से लेकर आ – समुद्रात्तु पश्चिमात् पश्चिम समुद्रपर्यन्त विद्यमान तयोः एव गिर्योः अन्तरम् उत्तर में हिमालय और दक्षिण में स्थित विन्ध्याचल का मध्यवर्ती देश है, उसे बुधाः आर्यावर्त विदुः विद्वान् आर्यावर्त कहते हैं ।
(ऋ० दया० पत्र० विज्ञा० ९९ हिन्दीअनुवाद)

वह आर्यावर्त यज्ञिक देश है, उससे परे म्लेच्छ देश –

कृष्णसारस्तु चरति मृगो यत्र स्वभावतः |
स ज्ञेयो यज्ञियो देशो म्लेच्छदेशस्त्वतः परः||

अर्थात - यत्र जिस देश में स्वभावतः कृष्णसारः चरति स्वाभाविक रूप से ही काला मृग विचरण करता है सः यज्ञियः देशः ज्ञेयः वह यज्ञों से सुशोभित अथवा पवित्र देश जानना चाहिए, अतः परः म्लेच्छदेशः इससे भिन्न म्लेच्छ देश है । 

(प्रचलित अर्थ – जहाँ पर काला मृग स्वभाव से ही विचरण करता है, वह ‘यज्ञीय’ देश है, इसके अतिरिक्त मलेच्छ देश है !)

‘‘जो आर्यावर्त देश से भिन्न देश हैं वे दस्यु देश और म्लेच्छ देश कहाते हैं ।’’
(स० प्र० अष्टम समु)

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सृष्टि एवं धर्मोत्पत्ति विषय की समाप्ति का कथन, वर्णाधर्मो का वर्णन प्रारम्भ – 

एषा धर्मस्य वो योनिः समासेन प्रकीर्तिता |
संभवश्चास्य सर्वस्य वर्णधर्मान्निबोधत ||१४४|| [२|२५] (७८)

अर्थात - एषा यह धर्मस्य योनिः धर्म की उत्पत्ति १२० से १३९ तक अथवा २।१ से २।२० च और अस्य सर्वस्य संभवः इस समस्त जगत् की उत्पत्ति समासेन संक्षेप से वः प्रकीर्तिता आप लोगों को कही, अब वर्ण – धर्मान् वर्णधर्मों को निबोधत सुनो ।

मनु स्मृति प्रथम अध्याय समाप्त !

साभार – विशुद्ध मनुस्मृति
भाष्यकार – प्रो. सुरेन्द्र कुमार   

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