शिवपुरी का इतिहास भाग 1 - अंचल का सत्ता केंद्र ग्वालियर



स्व. हरिहर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संकलित ग्वालियर के दस्तावेजों के अनुसार प्रतिहार वंश के महा प्रतापी सम्राट मिहिर भोज का शासन संवत ९३२, ९३३ में ग्वालियर पर रहा, यह ग्वालियर गढ़ एवं सागर ताल के पास मिले चार अभिलेखों से प्रमाणित होता है। इनमें श्री गोपगिरी के कोट्टपाल के रूप में अल्ल तथा बलाधिकृत अर्थात सेनापति के रूप में टट्टक का उल्लेख अंकित है। इन्ही कोट्टपाल अल्ल ने ग्वालियरगढ़ की एक शिला को छेनी से कटवाकर विष्णु मंदिर का निर्माण कराया था। सागरताल से प्राप्त अभिलेखों में तुरुष्कों के रूप में मुसलमानों का भी उल्लेख है। आठवी ईसवीं शताब्दी में नागभट्ट ने मुसलमानों को हराया। यहाँ दसवीं शताब्दी के प्राप्त अभिलेखों में महेंद्रपाल के नाम का भी उल्लेख है, जो भोज के पुत्र थे। उनकी मृत्यु के पश्चात महीपाल ग्वालियर पर अधिकार किये रहे।

९५० ईसवी के आसपास कच्छपघात बज्रदमन ने प्रतिहारों से ग्वालियर गढ़ छीना। कच्छपघात राजाओं का अधिकार सन ११२८ के लगभग तक इस क्षेत्र पर रहा। कछवाहों के इस राज्य में सिहानिया, पढावली, नरवर तथा सुरवाया तक का क्षेत्र शामिल था। इन राजाओं के समय में स्थापत्य एवं मूर्तिकला का विशेष प्रसार हुआ। ग्वालियर गढ़ में सास बहू के मंदिर, सिंहानिया का ककन मठ, पढावली तथा सुरवाया के मंदिर इन्हीं के समय बने। इस वंश द्वारा ग्वालियर गढ़ पर अधिकार करने के पूर्व सिंहपानीय अर्थात सिंहानिया इनकी राजधानी थी। बज्रदमन ने गोपागिरी को जीता, यह सास-बहू के मंदिर से मिले अभिलेख से स्पष्ट है। सिंहानिया में मिले १०३५ के अभिलेख में भी बज्रदमन कच्छपघात का उल्लेख है। इन अभिलेखों के अनुसार इनका वंश वृक्ष इस प्रकार है –

लक्ष्मण, बज्रदमन, मंगलराज, कीर्तिराज, मूलदेव, देवपाल, पद्मपाल, सूर्यपाल, महीपाल, भुवनपाल एवं मधुसूधन। इस वंश के अंतिम राजा तेजकरण से परमर्दिदेव परिहार ने ग्वालियर का राज्य ले लिया। इसकी गाथा भी आज तक जनश्रुतियों में सुरक्षित है। हुआ कुछ यूं कि राजा तेजकरण अपना राज अपने भानजे परमार्दिदेव को सोंपकर, देवसा के रणमल की राजकुमारी मारौनी से विवाह करने गए। विवाह कर एक वर्ष बाद लौटे तो भानजे ने ग्वालियर गढ़ लौटाने से इनकार कर दिया। यह प्रेम गाथा ढोला मारू के नाम से आज भी जन जन का रंजन करती है।

तो इस प्रकार कछवाहों के पश्चात इस अंचल का शासन परिहारों के हाथों में आया। संभवतः ये परिहार राजा कन्नौज के राठौड़ राजाओं के अधीन थे। परिहार राजवंश में सन ११२९ से १२११ तक परमार्दिदेव, रामदेव, हमीरदेव, कुबेरदेव, रत्नदेव, लोहंगदेव तथा सारंगदेव, इन सात राजाओं का वर्णन मिलता है। मुसलमान इतिहासकार कहते हैं कि सन ११९६ में ऐबक ने ग्वालियर जीता। कनिंघम ने लिखा है कि सन १२१० में ऐबक के बेटे आरामशाह के समय हिन्दुओं ने ग्वालियर गढ़ पुनः जीत लिया और १२३२ तक वह परिहारों के पास रहा। कुरैठा ताम्रपत्रों के अनुसार ग्वालियर विजेता वस्तुतः प्रतिहार थे। उसके अनुसार नटुल पुत्र प्रतापसिंह के पुत्र विग्रह ने एक म्लेच्छ राजा को पराजित कर गोपगिरी को जीता। उसके चाहमान कल्हणदेव की पुत्री लाल्हणदेवी से मलयवर्मन प्रतिहार नामक पुत्र हुआ, जिसके सिक्के नरवर, ग्वालियर और झांसी में मिले हैं, जिन पर संवत १२८० से १२९० तक की तिथि अंकित है। सन १२३५ में अल्तमश ने ग्वालियर गढ़ पर आक्रमण किया, खंगराय के अनुसार उस समय चौहान, जादौन, सिकरवार, कछवाहा, मोरी, सोलंकी, बुंदेला, बघेला, चंदेल, ढाकर, पंवार, खीची, परिहार, भदौरिया, बडगूजर आदि समुदायों ने उसका मुकाबला किया। किन्तु अंततः अल्तमश विजई हुआ और राजपूत ललनाओं ने जौहर किया।

सन १३७५ में जब भारत पर तैमूरलंग ने आक्रमण किया, तब भारत में मुस्लिम सत्ता डावांडोल हो गई और अवसर का लाभ उठाकर तोमर वंश के वीरसिंह ने ग्वालियर गढ़ पर अधिकार कर लिया। उनके बाद उद्धरणदेव (१४००), विक्रमदेव, गणपतिदेव (१४१९), डूगरेन्द्र सिंह, कीर्ति सिंह, कल्याणमल्ल और मानसिंह (१४८६) तोमर शासक हुए। तोमरों को प्रारंभ से ही मुसलमानों से लोहा लेना पड़ा। मालवा का हुशंगशाह और दिल्ली का मुबारकशाह डूगरेन्द्रसिंह को सतत कष्ट देते रहे। हुशंगशाह से पीछा छुडाने को उसे मुबारकशाह की सहायता लेनी पड़ी और उसे कर भी देना पड़ा। किन्तु वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखने में सफल रहे। उन्होंने १४३८ में नरवर किले को भी घेरा, जो उस समय मालवा के अधीन हो गया था। यद्यपि उस समय उनका यह प्रयत्न सफल नहीं हुआ, किन्तु बाद में नरवर तोमरों के अधीन अवश्य हो गया, क्योंकि उनकी वन्शाबली नरवर के जयस्तम्भ पर उत्कीर्ण है।

डूगरेन्द्र सिंह के तीस वर्षीय शासन के बाद उनके पुत्र कीर्तिसिंह ने पच्चीस वर्ष शासन किया। उन्हें भी अपना शासन बचाए रखने के लिए कभी जौनपुर तो कभी दिल्ली को मित्र बनाना पड़ा। उनके पुत्र कल्याणमल्ल के समय की कोई महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख नहीं है किन्तु कल्याणमल्ल के पुत्र मानसिंह ने ग्वालियर के मान को बहुत ऊंचा उठाया। इनके शासनकाल में दिल्ली के बहलोल लोदी ने ग्वालियर पर आक्रमण प्रारम्भ कर दिए। कभी कूटनीति से तो कभी धन देकर मानसिंह ने इस संकट से पीछा छुडाया। बहलोल १४८९ में मरा और सिकंदर लोदी गद्दी पर बैठा। उसकी भी नजर ग्वालियर पर थी, किन्तु मानसिंह के प्रताप को भी जानता था, अतः उसने मित्रता का हाथ बढाया और राजा मानसिंह को घोडा और पोशाक भेजी। मानसिंह ने भी एक हजार घुड़सवारों के साथ अपने भतीजे को भेंट लेकर सुलतान से मिलने बयाना भेजा और १५०७ तक उन्होंने निष्कंटक राज्य किया। इस बीच १५०१ में तोमरों के राजदूत निहाल से क्रुद्ध होकर सिकंदर ने ग्वालियर पर आक्रमण किया भी, किन्तु मानसिंह ने अपने पुत्र विक्रमादित्य को भेजकर सुलह कर ली। लेकिन १५०५ में शांतिकाल और यह ओढी हुई दोस्ती समाप्त हो गई और सिकंदर लोदी ने फिर ग्वालियर पर चढ़ाई कर दी। इस बार मानसिंह ने भी आरपार की लड़ाई करने की ठान ली। लोदी की रसद काट दी गई और बेतरह कुटाई की गई। सिकंदर लोदी बहुत दुरावस्था में दिल्ली को भागा। इसके बाद १५१७ तक मानसिंह ने निष्कंटक राज्य किया। किसी की हिम्मत ही नहीं हुई ग्वालियर की ओर नजरें टेढ़ी करने की। सिकंदर के बाद उसके बेटे इब्राहीम लोदी के मन में भी ग्वालियर गढ़ लेने की महत्वाकांक्षा जागृत हुई। जिस समय गढ़ घिरा हुआ था, उसी समय मानसिंह की मृत्यु हो गई और उनके पुत्र विक्रमादित्य अपने नाम को सार्थक नहीं रख सके, उन्होंने लोदी की अधीनता स्वीकार कर ली, यहाँ तक कि वे पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी की ओर से लडे।

तोमरों की राज्यसीमा में वर्तमान गिर्द, मुरैना, श्योपुर, नरवर जिलों के भाग शामिल थे। मानसिंह के काल में निर्मित मान मंदिर हिन्दू स्थापत्य कला का अप्रतिम उदाहरण है। इस स्थापत्य को सजाने के लिए पत्थर को तराशकर बनाई गईं मूर्तियां बेजोड़ हैं। शताब्दियाँ बीत जाने के बाद भी इनके रंग फीके नहीं हुए हैं। ग्वालियर गढ़ की जैन प्रतिमाएं भी उल्लेखनीय हैं जो डूगरेंद्र सिंह के कार्यकाल में निर्मित हुई हैं। इन प्रतिमाओं का १५२७ में बाबर ने ध्वंश करवाया और इस घटना का अपने आत्म चरित्र में बड़े गौरव के साथ वर्णन किया। दो सौ वर्ष बाद जब मराठा सेनानायक पेशवा बाजीराव ने १७२४ में मालवा व चम्बल क्षेत्र को मुस्लिम आक्रान्ताओं से मुक्ति दिलाई तो उनके द्वारा नियुक्त राणोजी सिंधिया, मल्हारराव होलकर व ऊदाजी पंवार का आमजन ने ह्रदय से स्वागत किया।

शिवपुरी

प्राचीनकाल में शिवपुरी वस्तुतः नरवर जिले का एक ग्राम भर था। विक्रम संवत ११७७ के एक अभिलेख के अनुसार कच्छपघातों की एक शाखा नरवर पर राज्य कर रही थी, इसमें गगनसिंह, शारदा सिंह तथा वीरसिंह का उल्लेख है। ग्वालियर पर मुस्लिम अधिपत्य के बाद नरवर पर भी अल्तमश का कब्जा हो गया, जिसे सन १२४७ ,में प्रतापी चाहड ने खदेड़ कर नरवर पर विजय पताका फहराई । इस वंश में आसल्लदेव, नृपवर्मन, गोपाल देव एवं गणपति देव नामक चार राजा हुए। विक्रम संवत १३३९ के कचेरी के अभिलेख में चाहड़ के पूर्व के किन्ही जयपाल का नाम दिया हुआ है, जो अत्यंत पराक्रमी थे व रत्नगिरि नामक गिरीन्द्र के स्वामी थे। चाहड़ का उल्लेख सुरवाया व कदवाहा के अभिलेखों में भी मिलता है, जिनके अनुसार इन्होने मालवा के परमारों को भी व्यथित किया। अतः संभवतः चाहड़ का राज्य आज के गुना जिले तक था।

चाहड़ के पश्चात नृवर्मन राजा हुए, नरवर से प्राप्त अभिलेखों के अनुसार इन्होने धार नरेश से भी चौथ बसूल की, निश्चय ही यह उनके प्रतापी होने का संकेत है। नृवर्मन के बाद उनके पुत्र आसल्लदेव का उल्लेख सम्बत १३१९ तथा १३२७ के भीमपुर और राई के अभिलेखों में मिलता है। इनके अनेक सिक्के भी मिले हैं, जिन पर सम्बत १३११ से १३३६ तक की तिथि अंकित है। लगभग २५ वर्ष के शासनकाल में आसल्लदेव ने आज के सम्पूर्ण शिवपुरी जिले तथा गुना के कुछ भाग पर शासन किया। आसल्लदेव के पश्चात उनके पुत्र गोपाल देव राजा हुए। कचेरी के अभिलेख के अनुसार इन्होने बुंदेलखंड के तत्कालीन राजा वीरवर्मा द्वारा किये गए आक्रमण को विफल कर विजय प्राप्त की। यह युद्ध ईसागढ़ के नजदीक बंगला नामक ग्राम में हुआ, जहाँ आज भी अनेक स्मारक स्तम्भ खड़े हैं, जिन पर गोपालदेव की ओर से लड़ते हुए आहत वीरों के स्मारक लेख हैं। इस वीरवर्मन का शासन करैरा पर भी रहा होगा। नरवर के एक अन्य अभिलेख के अनुसार गोपालदेव के पुत्र गणपतिदेव ने सम्बत १३५५ में कीर्तिदुर्ग (चंदेरी) को जीता। किन्तु इसके बाद यह वंश मुसलमानों की विजय वाहिनी से टकराकर समाप्त हो गया और सम्बत १३५७ में अल्तमश ने नरवर को भी जीत लिया। किन्तु जैसा कि ग्वालियर में हुआ, तैमूर के आक्रमण के बाद नरवर पर भी तोमर वंश का शासन हो गया। किन्तु बाद में एक साल की घेराबंदी के बाद सिकंदर लोदी ने नरवर पर कब्जा जमाया और राजसिंह कछवाहा को अपने सामंत के रूप में यहाँ नियुक्त किया । सिंधियाओं के आगमन तक मुगलों के सामंत के रूप में कछवाहों ने नरवर पर शासन किया।

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