शिवपुरी का इतिहास भाग 3 - शिवपुरी का भाग्यसूर्य चमका




लश्कर के दक्षिण-पश्चिम में लगभग १०० कि. मी. की दूरी और समुद्र तल से 1,315 फीट की ऊंचाई वाला यह ग्राम स्व. माधवराव सिंधिया प्रथम को इतना भाया कि इसे उन्होंने अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी ही बना लिया। फिर तो यहाँ १९०१ में ६ लाख रुपये की लागत के साथ एक भव्य महल का भी निर्माण हुआ और माधव महाराज ने व्यक्तिगत रूचि लेकर शिवपुरी को आकर्षक बनाने के लिए नगरीय क्षेत्रों को तो सडकों से जोड़ा ही जंगलों में भी सडकों का जाल बिछा दिया जिनके माध्यम से जंगल की झीलों और सख्या सागर, जाधव सागर, भूरा खोह आदि प्राकृतिक झरनों तक पहुंचना भी पर्यटकों के लिए सुगम कर दिया । भदैया कुंड नामक झरने का जल तो प्राकृतिक रूप से कार्बोनेटेड होने के साथ ही सभी हानिकारक खनिज से मुक्त होने के कारण गठिया, कब्ज आदि रोगों के लिए रामवाण औषधि भी डॉक्टरों द्वारा माना गया। इस कारण उस काल में इसकी मांग मुम्बई सहित देश के अन्य बड़े शहरों में थी ।

महाराजा माधव राव के सौतेले भाई बलवंतराव जी ने भी शिवपुरी के विकास कार्य में रूचि ली व राजस्थान के कुछ संपन्न धनपतियों को शिवपुरी में बसने के लिए आग्रह किया। उनके आग्रह का मान रखते हुए कुछ वैश्य समाज के लोग आकर शिवपुरी में बसे तथा यहाँ व्यापार व उद्योगों की नींव रखी। गणेश आयल मिल, हनुमान मिल, दाल मिल जैसे उद्योगों के साथ दीवान परिवार ने कत्था मिल भी प्रारंभ किया। मूलतः गुजरांवाला पंजाब के निवासी दीवान परिवार के पूर्वज 1919 तक तत्कालीन कश्मीर रियासत के दीवान रहे थे, इस कारण दीवान उपनाम उनके साथ जुडा।

उस काल में कई सरदारों और अधिकारियों के ग्रीष्मकालीन निवास तो निर्मित हुए ही, महाराजा माधव राव द्वारा अपनी मां महारानी सख्याराजा के अंतिम संस्कार स्थल पर उनकी स्मृति में एक छतरी का भी निर्माण करवाया गया। इस भवन का निर्माण 1931 में पूरा हुआ। इसके चारों और एक सुन्दर बगीचा लगवाया। इस छतरी के सामने एक छोटा तालाब मोहन कुंड और नजदीक ही प्राचीन हिन्दू मंदिर बाणगंगा पूर्व से ही विद्यमान है ।

1925 में महाराजा की मृत्यु के पश्चात उनकी उनकी इच्छानुसार ही उनका अंतिम संस्कार भी उनकी मां की छतरी के सामने ही किया गया व बाद में उनकी स्मृति में भी उसी स्थान पर एक छत्री निर्मित की गई। इस छतरी को बनाने में 6 वर्ष लगे। संगमरमर द्वारा निर्मित 90 फीट लंबी और 40 फीट चौड़ी इस भव्य छतरी के खंभों, दीवारों और छत पर स्वर्ण निर्मित डिजाइन हैं और कारीगरी इतनी उत्तम है कि यह कहा जा सकता है कि यह आगरा के ताजमहल के बाद निर्मित सबसे भव्य और सुन्दर इमारत है । चांदी के दरवाजे और बिजली के झूमर छत्री के आकर्षण को और बढ़ाते हैं।

महाराज माधवराव सिंधिया की विलक्षण कार्यपद्धति ने उन्हें अपार लोकप्रियता प्रदान की। एक उदाहरण देखिये –

क्षेत्र में मोगिया और बावरी जातियां पीढ़ियों से लूटपाट व अन्य आपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहा करते थे । इसकी भी एक लोमहर्षक गाथा थी। कहा जाता है कि जब मोरा के प्रमुख की बेटी मैनावती, मुग़ल सम्राट अकबर की दुल्हन बनाने के लिए आगरा भेजी जा रही थी, उसने मार्ग में ही एक कुएं में कूदकर आत्महत्या कर ली। आत्महत्या का कारण यह था कि जो सरदार और अंगरक्षक साथ जा रहे थे, उनके व्यंग वाण उसे चुभ गए थे। उसके बाद मैनावती के पिता और मुगल सम्राट अकबर के भय से ये सरदार डाकू बन गए और लूटपाट करके जीवन बिता रहे थे। उन सरदारों के वंशजों ने मालवा के साथ-साथ ग्वालियर के आसपास के जनजीवन को भी गंभीरता से प्रभावित किया हुआ था । यूं तो पूर्ववर्ती शासकों ने भी इन लोगों को आपराधिक जीवन से विरत करने और कृषि कार्य हेतु प्रेरित करने के प्रयत्न किये, किन्तु असफल रहे, क्योंकि कृषि कार्य उनकी रूचि का क्षेत्र नहीं था।

स्वर्गीय माधव महाराज ने उन्हें रेशम उद्योग व उसकी कारीगरी का प्रशिक्षण दिलवाया। योजना सफल रही और मंदसौर व उज्जैन में आयोजित इन जनजातियों के सम्मेलनों में इन लोगों ने अपनी पूर्व की आपराधिक गतिविधियों को छोड़ने का संकल्प लिया। कुछ समय बाद इनके लिए मुक्काबाद में शहतूत के बागान शुरू किए गए और वहां रेशम के कीड़े पालने का उद्योग प्रारंभ हुआ । इनकी बस्तियों में कुटीर उद्योगों ने जड़ें जमा लीं और यह समाज आपराधिक कार्यों से सदा के लिए दूर हो गया।

क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र

शिवपुरी जिले का खनियाधाना स्वातंत्र्य समर का जीता जागता दस्तावेज है। न केवल खनियाधाना का राजपरिवार बल्कि यहाँ की आम जनता ने भी अंग्रेजों से दो दो हाथ किये थे। यहाँ तक कि जब अंग्रेजों ने तत्कालीन महाराजा खलक सिंह को उनकी विद्रोही गतिविधियों के चलते सत्ताच्युत कर दिया और प्रभुदयाल श्रीवास्तव को रेजीडेंट नियुक्त कर दिया तो छप्पन गाँव के किसानों ने अपनी छप्पन इंची छाती का परिचय देते हुए, फसल उगाना ही बंद कर दिया। लगातार दो वर्ष तक उनका यह अनूठा सत्याग्रह चला। नतीजतन फिरंगियों को झुकना पड़ा और महाराज खलकसिंह के अधिकार बहाल हुए।

तो बात इन्हीं खलकसिंह जी की है। खलकसिंह जी के पास कई कारें थीं। फोर्ड, बेबी हडसन और रोल्स रायस आदि आदि। इनमें से रोल्स रायस सर्विसिंग के लिए बुंदेलखंड गैराज के मालिक अलाउद्दीन के पास भेजी गई। कार जब ठीक हो गई और महाराज उसे लेकर झांसी से खनियाधाना रवाना हुए, तो अलाउद्दीन ने एक मेकेनिक साथ भेजा, ताकि रास्ते में अगर गाड़ी खराब हो जाए तो राजा साहब को कोई तकलीफ न हो। बबीना के पास महाराज खलकसिंह ने लघुशंका के लिए कार रुकवाई। किन्तु जब वे एक पेड़ के नजदीक पेशाब करने बैठे, तभी एक काला भुजंग सांप पेड़ की जड़ में से निकल आया। इसके पूर्व कि वह सांप महाराज को कोई नुकसान पहुंचा पाता, मैकेनिक ने बिना देरी किए तपाक से अपना तमंचा निकाला और सटीक निशाना लगाते हुए सांप को मार गिराया। उसका अचूक निशाना देखकर खलकसिंह हतप्रभ रह गए।

हैरानी के बीच राजा साहब के मन में मैकेनिक के प्रति संदेह भी हुआ। गाड़ी खनियाधाना के पास बसई गांव के रेस्टहाउस पर रुकी। राजा साहब मैकेनिक को लेकर एकांत में गए और उन्होंने पूछा, कौन हो तुम? और किस मकसद से मेरे पास आए हो ? राजा साहब ने कहा कि वो बिना किसी संकोच के उन्हें अपनी असलियत बता सकता है और वो इसके बारे में किसी से नहीं कहेंगे। तब मैकेनिक ने उन्हें अपना वास्तविक परिचय दिया।

वह शख्स और कोई नहीं, हमारे हरदिल अजीज महानायक चन्द्रशेखर आजाद ही थे, जो काकोरी काण्ड के बाद उन दिनों अंग्रजों की नाक के नीचे झांसी में कार मिस्री बनकर भूमिगत थे। बसई कोठी आज भी है, जहाँ खनियाधाना के तत्कालीन महाराज खलकसिंह और आजाद की प्रथम भेंट हुई थी। उस घटना के बाद तो चन्द्रशेखर आजाद और खनियाधाना का एक अटूट रिश्ता ही बन गया। खनियाधाना स्टेट के तत्कालीन राजा खलक सिंह जूदेव राष्ट्रभक्त हैं, यह जानकारी संभवतः आजाद को रही होगी और बहुत संभव है कि वे योजना के तहत ही उनके साथ मैकेनिक बनकर झांसी से निकले हों, ताकि राजा साहब से आर्थिक और शस्त्रों के लिए मदद ली जा सके। जो भी हो, आगे चलकर राजा साहब खलकसिंह, चन्द्रशेखर आजाद के सहयोगी तो बने ही।

जब जूदेव को आजाद की असलियत का पता चला तो वो उन्हें गोविंद बिहारी मंदिर का पुजारी बनाकर, पंडित हरिशंकर शर्मा का छद्म नाम देकर खनियाधाना ले आए। आजाद 6-7 महीने खनियाधाना के गोविंद बिहारी मंदिर में रुके। रात को वो मंदिर में रहते और दिन में तीन किलोमीटर दूर सीतापाठा मंदिर की पहाड़ी पर चले जाते और अपने बनाए बमों का परीक्षण करते या मास्टर रुद्रनारायण, सदाशिव मलकापुरकर और भगवानदास माहौर जैसे अपने कई क्रांतिकारी साथियों को बन्दूक चलाने की ट्रेनिंग देते। उन्हें बम बनाने का जरूरी सामान राजा खलकसिंह उपलब्ध करा देते थे। उनके टेस्ट किए बमों के निशान आज भी सीतापाठा की चट्टानों पर मौजूद हैं, हालांकि देखभाल के अभाव में ये निशान धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं। अपने अंदर भारतीय क्रांतिकारी इतिहास समेटे, खुले आसमान के नीचे बिखरे इन निशानों की देखभाल करने वाला कोई नहीं है। इनके बारे में बताने वाले भी धीरे धीरे कम होते जा रहे हैं।

उन दिनों एक बारह वर्षीय बालक नाथूराम छापकार उनकी सेवा टहल को तैनात रहता था। जिन्हें बाद में लोगों ने उसी सीतापाठा शिव मंदिर में सन्यासी जीवन जीते देखा। नाथूराम ही क्यों, महाराज खलकसिंह भी आजाद की शहादत के बाद सन्यासीवत ही हो गए और अंततः 1935 में महल छोड़कर बसई के राममंदिर में ही रहने लगे। उनके उत्तराधिकारी बेटे देवेन्द्र प्रताप की मार्च १९६८ में केंसर के चलते असामयिक मृत्यु होने पर भी खलकसिंह खनियाधाना राजमहल में नहीं आये। 26 मई 1975 को ९५ वर्ष की आयु में उनका भी स्वर्गवास हुआ। आजादी के बाद सरकार का आग्रह होने पर भी खलकसिंह जी ने स्वतंत्रता सेनानी होने का कोई सम्मान लेने से साफ़ इनकार कर दिया था।

आज हम जो अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद का मूंछ मरोड़ते हुए फोटो देखते हैं, वह भी महाराज खलकसिंह के चित्रकार मम्मा जू ने ही बनाई थी। आजाद ने पहले तो तस्वीर बनवाने से स्पष्ट इनकार ही किया, लेकिन खलक सिंह जूदेव के आग्रह पर आजाद राजी हुए।

इस ऐतिहासिक तस्वीर में आजाद के साथ एक और अहम चीज दिखाई देती है, वह है आजाद की कमर में रौब से लटका उनका ‘बमतुल बुखारा’, यही कहकर तो पुकारते थे आजाद अपनी पिस्तौल को। इस पिस्तौल की भी एक कहानी है। आजाद ने एक दिन राजा खलक सिंह जूदेव से एक अंग्रेजी पिस्तौल का आग्रह किया, खलक सिंह ने अपने प्रिय मित्र की इच्छा का मान रखते हुए राज्य को एक जैसी दो रिवॉल्वर खरीदने का आदेश दिया। उन दिनों ऐसी आधुनिक रिवॉल्वर खरीदने के लिए वायसराय की अनुमति लेनी होती थी और उसे खरीदने का कारण बताना होता था। राजा खलक सिंह जूदेव के पत्र पर रिवॉल्वर खरीदने की इजाजत मिल गई और एक जैसी गोलियों वाली दो रिवॉल्वर खरीदी गईं। राज्य के शस्त्र रिकॉर्ड में आमद दर्ज होने के बाद राजा खलकसिंह ने अपने रोजनामचे में शिकार खेलने जाने की रवानगी डाली और दूसरे दिन लौटकर रोजनामचे में लिखा कि शिकार खेलते समय नदी के ऊपर से उनके घोड़े ने छलांग मारी और इस दौरान रिवॉल्वर कमर से छूटकर नदी में गिर गई। इसके बाद गोताखोरों से बहुत खोज कराई गई, लेकिन रिवॉल्वर नहीं मिली।

वही रिवॉल्वर गोविंद बिहारी के मंदिर में आजाद को सौंपी गई। जूदेव ने एक जैसी दो रिवॉल्वर इसलिए ली थीं, ताकि उसके लिए गोलियां ली जाएं और आजाद को दी जा सकें। आजाद नहाकर आए थे तब उन्होंने उस रिवॉल्वर को लिया और अपनी कमर में बांधकर मूछों पर ताव देते हुए अपना फोटू खिंचवाया। आजाद की शहादत के बाद उनकी बंदूक आज प्रयागराज के म्यूजियम में है।

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